सोमवार, 23 जून 2025

साक्षात्कार: मानवीय मूल्यों को जीवंत रखने में अहम है साहित्य: वीरेन्द्र ‘मधुर’

हिंदी व हरियाणवी कवि व गीतकार के रुप में बनाई पहचान 
      व्यक्तिगत परिचय 
नाम: वीरेन्द्र 'मधुर' 
पूरा नाम: वीरेन्द्र कुमार शर्मा 
जन्मतिथि: 1 जनवरी 1958 
जन्म स्थान: मुजफ्फरनगर (यूपी) 
शिक्षा: एम.एस.सी. (रसायन) 
संप्रत्ति: साहित्यकार, लेखक, कवि एवं गीतकार 
संपर्क: 90-ए/22, किशनपुरा, लक्ष्मी नगर, रोहतक(हरियाणा), मोबा. 9253187577 
BY--ओ.पी. पाल 
भारतीय संस्कृति में सामाजिक उत्थान के लिए साहित्य संवर्धन की भी अहम भूमिका मानी जाती है। इसलिए साहित्य के क्षेत्र में लेखक और साहित्यकार अपनी अलग अलग विधाओं में साहित्य सृजन करके समाज को नई दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे ही लेखकों में शामिल वरिष्ठ साहित्यकार वीरेन्द्र कुमार शर्मा भी सामायिक विषयों और सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर कविताएं, गीत, गजल, मुक्तक और आलेख जैसी रचनाओं के संसार को दिशा देने में जुटे हैं। उन्होंने हिंदी और हरियाणवी भाषा में साहित्यिक साधना के साथ सामाजिक सेवा को भी सर्वोपरि रखा है। वरिष्ठ साहित्यकार, कवि एवं गीतकार वीरेन्द्र ‘मधुर’ ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजाकर किया है, जिनमें साहित्य संवर्धन में सभी भाषाओं के सम्मान के साथ मानवीय मूल्यों को जीवंत रखना संभव है। 
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रिष्ठ साहित्यकार एवं कवि वीरेन्द्र 'मधुर' का जन्म 1 जनवरी 1958 को यूपी के मुजफ्फरनगर में रामेश्वर प्रसाद शर्मा एवं श्रीमती सुशीला देवी के घर में हुआ। परिवार में हालांकि कोई साहित्यिक माहौल नहीं था, लेकिन उनके दादा मूल चंद शर्मा शिक्षक रहे। जबकि पिता रामेश्वर प्रसाद भी अंग्रेजी के प्रवक्ता रहे और रामलीला मंच के संरक्षक रहे। साथ ही वे गुड खांडसारी के अच्छे व्यापारी रहे। वीरेन्द्र की प्राथमिक शिक्षा शहर की प्राइमरी पाठशाला में हुई, जहां उनके प्रथम गुरु मोहम्मद इकबाल बने। उन्होंने पहली बार साल 1968 में कक्षा पांच के दौरान स्कूील में मंच मिला। स्कूल में स्कूल में वे साप्ताहिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी मंचन के साथ ड्रामा, डांस और गाना बजाना भी भी करने लगे। उन्होंने कक्षा छह से आठ तक स्कूल में अंताक्षरी] वाद-विवाद और अभिनय में हमेशा प्रथम स्थान हासिल करके हैट्रिक अपने नाम की। वहीं स्कूी रसायन विषय से एमएससी की डिग्री के बाद उन्होंने सरकारी और गैर सरकारी केमिकल प्रतिष्ठानों 32 साल तक नौकरी और व्यवसाय किया। इसके बावजूद उन्होंने अपनी साहित्यिक और सांस्कृति अभिरुचि से नाता नहीं तोड़ा और हारमोनियम और तबला भी सीखकर अपनी विधा और लेकर को लगातार धार दी। बकौल वीरेन्द्र कुमार शर्मा, साल 1969 में रामलीला में विभिन्न किरदार के रुप में मंचन शुरु किया। उन्होंने साल 1974 में रचना गीत जब पीहू पीहू, इस रेत के शहर में, रिमझिम आया सावन, कहां से लाऊं बचपन अपना, जैसे गीत लिखना शुरु किया, जिन्हें सराहत हुए एक प्रख्यात कवि ने उन्हें मधुर नाम दिया। उनके ये गीत काफी प्रचलित भी हुए। साल 1985 में वह परिवार के साथ हरियाणा के रोहतक आए, जहां उन्होंने एक कैमिकल प्रतिष्ठान में नौकरी की और उसके बाद रोहतक में ही बस गये। उन्होंने बताया कि उन्होंने रोहतक में ही एक अपनी पेस्टिसाइड फैक्ट्री भी लगाई, लेकिन खास सफलता नहीं मिली। परिवार में बेटों के रोजगार लगने के बाद वे अपने साहित्यिक लेखन को आगे बढ़ाते रहे और हिरयाणवी संस्कृति में रमना शुरु कर दिया। हालांकि उन्हें हरियाणा में भाषा विशेष के कारण परेशानी का भी सामना किया, जहां अलग पड़े धड़ों में हिंदी गीत को रागिनी के प्रचलन में रखना एक कठिन डगर रही। मसलन सीमा और भाषा अड़चन तो पैदा करते ही हैं लेकिन उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और साहित्य सृजन में तपस्या, मेहनत और अभ्यास ने उनके साहित्यिक लक्ष्य को बुलंदियां दी। उन्होंने म्हारे गाम की छोरी, कदे कदे न्यू धड़के सै, जैसे अनेक हरियाणवी गीत व कविताएं भी लिखी हैं। उनकी रचनाओं का फोकस सामयिक और सामाजिक सरोकारों के मुद्दों, अंधविश्वास, मानव एकता, देशभक्ति जैसे विषयों पर रहा है। कोविड के दौरान उन्होंने मानवता के प्रति गीत लेखन, गायन, संगीतमय धार्मिक संवेदनाएं लिखे। साल 2017 से एक मुक्तक और नई पहल की एक रचना निरंतर फेसबुक जैसी सोशल मीडिया पर लिखने का सिलसिला अभी तक जारी है, जिसमें गीत, कहानी, ग़ज़ल और आलेख आदि शामिल हैं। अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में सक्रीय भागीदारी और काव्य मंच के संयोजक व संचालन का दायित्व निभाना उनके लिए गर्व का विषय है। उन्होंने बताया कि हिंदी के साथ हरियाणवी गीतों व कविताओं के लेखन को आगे बढ़ाने का श्रेय वरिष्ठों लेखकों और साहित्यकारों के प्रोत्साहन को जाता है। उनका सौभाग्य रहा कि उन्हें देश के तमाम श्रेष्ठ कवियों नागार्जुन, काका हाथरसी, सत्यदेव शास्त्री भोंपू, गोपालदास नीरज, संतोषानंद, कैफ़ी आजमी, निदा फाजली, कुंअर बेचैन ,हरिओम पंवार,उदय भानु हंस, सुरेन्द्र शर्मा जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों व कवियों के साथ मंच साझा करने और काव्य पाठ करने का मौका मिला। उन्होंने साल 2017 में दुबई(यूएई)की विदेश यात्रा के दौरान आयोजित कार्यक्रम में हरियाणवी संस्कृति से जुड़े गीत और काव्य पाठ किया है। जबकि उन्होंने देश के विभिन्न राज्यों के अनेक हिस्सों में काव्य पाठ करने का सौभाग्य मिला और आज वह देश के अच्छे गीतकारों में सम्मानित नाम के रुप से पहचाने जाने लगे हैं। साल 1999 में शोधग्रंथ वीरेन्द्र ‘मधुर’ की कृतित्व और व्यक्तित्व पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के कई छात्र एमफिल की उपाधि के लिए शोध भी कर चुके हैं। वह रोहतक की कला परिक्रमा, पंजाबी साहित्यकार मण्डल, विजन फाऊण्डेशन, टैगोर कॉसिल आफ आर्टस रोहतक जैसी कई साहित्यिक, सामाजिक से जुड़े हैं। वहीं वे संस्कार भारती रोहतक जिला ईकाई के साहित्य प्रमुख भी रह चुके हैं। आकशवाणी, डीडी न्यूज जयपुर और आकाशवाणी नई दिल्ली व हिसार से भी उनकी कविताओं और गीतों का प्रसारण हो चुका है। उनकी रचनाएं देश के प्रतिष्ठत पत्र पत्रिकाओं में उनकी रचनाए प्रकाशित हो रही है। 
आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति 
वरिष्ठ साहित्यकार, कवि और गीतकार वीरेन्द्र कुमार शर्मा का आधुनिक युग में साहित्य की चुनौतियों को लेकर कहना है कि इस इंटरनेट युग में हर कोई सोशल मीडिया पर अपनी अभिरुचि की सामग्री तलाश कर ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, लेकिन यह सत्य है कि गुरुओं के सानिध्य के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए इस बदलते परिवेश में वरिष्ठ साहित्यकारों और लेखकों की पुस्तकों का अध्ययन करने से लेखनी को यशस्वी किया जा सकता है। जीवन ही संग्राम है और इस बदलते युग में युवाओं को अपनी संस्कृति के ज्ञान के लिए साहित्य के लिए प्रेरित किया जाना आवश्यक है। मसलन भाषा है तो ज्ञान है और ज्ञान है तो भाषा है। ऐसे में लेखकों को भी भाषा विशेष पर अपनी पकड़ बनाकर सभी भाषाओं का सम्मान देकर समाज को नई दिशा देने की जरुरत है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्यकार एवं गीतकार वीरेन्द मधुर की प्रकाशित एक दर्जन पुस्तकों में गीत संग्रह ‘गलता हुआ हिमानी’, ‘भ्रूण के पहरुए’, ‘कोहराम जिंदगी का’, कविता संग्रह आसमान लुटता है व साँझ मेरे आँगन आयी, गजल संग्रह आवाज़ का जंगल, कहानी संग्रह वापस गांव की ओर, भक्तिगीत काव्य संग्रह हरि मन मनके सुर्खियों में हैं। उन्होंने काव्य शास्त्र संग्रह के रुप में मुक्तक वाटिका और बच्चों के लिए हंसता बचपन शीर्षक से भी पुस्तक लिखी हैं। इसके अलावा कल्पना वार्षिकी 1977, वीणापाणी वार्षिकी 1979 में सम्पादन कला परिक्रमा सँग्रह रचनाएं भी लिखी है।
पुरस्कार व सम्मान 
वरिष्ठ कवि एवं गीतकार वीरेन्द्र मधुर को साहित्यिक सेवाओं के लिए अनेक पुरस्कार मिले हैं। प्रमुख रुप से उन्हें हिन्दी साहित्य श्री सम्मान, हंस पुरस्कार, अजमेर मोर स्मृति साहित्य सम्मान, काव्य-भूषण सम्मान, साहित्य सम्मान, प्रज्ञा साहित्य मंच का 'साहित्य सोम' सम्मान मिले हैं। वहीं जयपुर, मेरठ, नांदूरा, हिंदी साहित्य अकादमी दिल्ली, कला संगम दिल्ली, भारतीय महोत्सव समिति श्रीगंगानगर जैसी सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं से सम्मान दिया जा चुका है। 
23June-2025

सोमवार, 16 जून 2025

चौपाल: संस्कृति में लोक साहित्य की वाचन परंपरा का खास महत्व: रविन्द्र रवि

वरिष्ठ रचनाकारों की साहित्य विधाओं को अपनी आवाज देकर बनाई पहचान 
     व्यक्तिगत परिचय 
नाम: रविन्द्र कुमार 'रवि' 
जन्मतिथि: 18 जुलाई 1978 
जन्म स्थान: गांव सुरेहली, जिला रेवाडी (हरियाणा)
शिक्षा: स्नातकोत्तर आंग्ल भाषा 
संप्रत्ति: अध्यापन, हिंदी व हरियाणवी लेखन 
संपर्क: गांव सुरहेली तहसील कोसली,जिला रेवाड़ी, मोबा. 9991514244
-BY--ओ.पी. पाल 
भारतीय संस्कृति एवं साहित्य को अपनी अलग अलग विधाओं के जरिए नई दिशा देने का प्रयास करते आ रहे लेखक एवं कलाकारों ने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई है। ऐसे ही हरियाणवी संस्कृति में लोक साहित्य को अपनी आवाज के जादू से नया आयाम देते आ रहे रविन्द्र कुमार रवि अनूठी साधना में जुटे हैं। मसलन कवि सम्मेलन, काव्य मंच, आकाशवाणी व टीवी चैनलों के माध्यमों से साहित्य की विधाओं को स्थान मिलता रहा है, लेकिन वह सोशल मीडिया पर साहित्य की वाचन-परंपरा का नया चितेरा बनकर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना चुके हैं, जो पिछले करीब नौ वर्षो से हिंदी और हरियाणवी भाषा में अपनी कलम और आवाज के जादूगर के रूप में एक मजबूत व्यक्तित्व और बेहतरीन मंच संचालक के रुप में उभरे हैं। अंग्रेजी शिक्षक एवं साहित्य विद्, लेखक एवं आवाज के जादूगर रविन्द्र कुमार रवि ने हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान कई ऐसे तथ्यों को उजागर किया है, जिसमें वह अपनी वाचन कला की प्रतिभा के बल पर हरियाणवी संस्कृति में लोक साहित्य की वाचन परंपरा को देश भर की रचनाधर्मिता से जोड़े हुए हैं। 
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रियाणवी संस्कृति में लोक साहित्य की वाचन परंपरा को अपनी जादुई आवाज से पहचान दे रहे रविन्द्र कुमार 'रवि' का जन्म 18 जुलाई 1978 को हरियाणा के रेवाड़ी जिले के गांव सुरेहली में फतेह सिंह और श्रीमती चंद्रकला के घर में हुआ। उनके पिता सेना में देश की सेवा में रहे तथा माता गृहणी में धार्मिक प्रवृत्ति के साथ परिवार को संस्कार देने में जुटी रही। परिवार में कोई साहित्यिक और सांस्कृतिक माहौल नहीं रहा, लेकिन बचपन से रेडियो सुनने के शौकीन रहे रविन्द्र रवि यादव लोक संस्कृति पर आधारित का काव्य सृजन यानी काव्य मंचों पर तरन्नुम में मधुरकंठी काव्यपाठ से छाप छोड़ने माहिर हैं। पठन पाठन, वाचन, संगीत सुनना, हिंदी हरियाणवी में लिखना उनकी अभिरुचित में समाया हुआ है। वह खेती-किसानी तथा ग्रामीण परिवेश के सभी कार्य करने में दक्ष रहे हैं। रवि ने नाहड़ के सरकारी कालेज से स्नातक मोरनी हिल्स से जेबीटी की पढ़ाई पूरी की, जिसके छह वर्ष तक एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्यरत रहे, जिनकी बाद में दिल्ली सरकार के स्कूल में अंग्रेजी के जेबीटी शिक्षक के तौर पर नियुक्ति हुई। इसके बावजूद वह अपनी लोक साहित्य को नया आयाम देते हुए रचनात्मक कार्य में जुटे रहे। उनकी काव्य सृजन, मंच संचालन, काव्य पाठ आदि अभिरुचि को लगातार मंच मिलता रहा है। इसी दौरान वर्ष 2016 में वे बोल हरियाणा के एक बड़े मंच से जुड़े और उनकी इस कला की प्रतिभा को ऐसे पंख लगे, कि उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। बकौल रवि उन्होंने बोल हरियाणा देश के विभिन्न कोनों के वरिष्ठ रचनाकारों की चार सौ से ज्यादा लघुकथाओं तथा ‘बोल किताबों ताई के’ नामक शीर्षक से अपनी हरियाणवी रचनाओं की एक लंबी श्रृंखला को स्वर देकर विशिष्ट पहचान बनाई। उनका कहना है कि वह हरियाणवी में तुकबंदी की छह पंक्तियों को ‘बोल किताबो ताई के’ लिखते हैं, जो तस्वीर पर आधारित होती हैं यानी जैसी तस्वीर वैसी ही छह हरियाणवी पंक्तियां होती हैं। अब तक वह करीब पांच सौ बोल किताबो ताई के लिख चुके हैं। फोटो आधारित इन छह पंक्तियों में हरियाणवी जीवन के हर पहलू को लिखने का प्रयास किया है। वहीं उन्होंने कोराना काल में अपने उक्त स्थायी स्तंभों के अलावा एक चिट्ठी अपनों के नाम, माई लाइफ ड्यूरिंग लॉकडाउन, आपके जज्बात-के साथ आदि समसामयिक स्तंभों का लेखन करके अपना रचनात्मक योगदान दिया है। उनका कहना है कि अंग्रेजी उनके कार्य क्षेत्र के लिए एक विषय है, लेकिन हिन्दी भाषा रगो में रची बसी है और हरियाणवी मां बोली है। 
यहां से मिली मंजिल 
आवाज के जादूगर रविन्द्र कुमार उर्फ रवि यादव  ने बताया कि उनकी इस रचनात्मक यात्रा में जनवरी 2019 में एक नया पड़ाव उस समय आया, जब उन्होंने इसी परंपरा पर आधारित नवाचारी प्रकल्प प्रारंभ किया। बोलता साहित्य-विद रवि यादव नामक इस यूट्यूब चैनल के माध्यम से उन्होंने फिर नए प्रयोग करने शुरु किए। इसी माध्यम से वह अभी तक शताधिक लघुकथाएं, करीब एक दर्जन कहानियां, डेढ़ सौ से ज्यादा कविताएं, काफी ज्यादा संख्या में समीक्षाएं, संस्मरण, पत्र आदि रिकॉर्ड कर सोशल मीडिया पर प्रसारित कर चुके हैं। यही नहीं वह विभिन्न प्रतियोगिताओं का सफल आयोजन भी कर चुके हैं तथा प्रसारित संस्मरणों पर आधारित कुटुंब नामक एक ई-बुक भी लॉन्च कर चुके हैं। हरियाणवी संस्कृति से जुड़ी तस्वीरों पर आधारित वह 6 हरियाणवी पंक्तियों को लिखकर हरियाणवी रीति रिवाज, परंपराओं आदि से दूर जाते समाज और खासतौर से अनभिज्ञ नई पीढ़ी नई दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। ऑनलाइन रेडियो बोल हरियाणा ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न से चलता है और दुनिया भर के साथ देश में इसका प्रसारण होता है। उन्होंने बताया कि कथा कहानी कार्यक्रम में 400 से ज्यादा लघुकथाओं का प्रसारण हुआ इसके साथ-साथ बड़ी कहानियां एवं कविताओं का भी प्रसारण रेडियो बोल हरियाणा पर हुआ।
पुरस्कार व सम्मान 
अपनी इस अनूठी साहित्यिक कला की साधना में जुटे रविन्द्र रवि को अनेक सम्मानों से नवाजा जा चुका है, जिनमें प्रमुख रुप से बोल हरियाणा गौरव सम्मान, लघुकथा हितैषी सम्मान, हिंदी गूंज पुरस्कार, हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए हिन्दी सेवी सम्मान, शिक्षा के क्षेत्र में आउट स्टैंडिंग टीचर ऑफ डेल्ही शिक्षक सम्मान, वेस्ट दिल्ली जोनल बेस्ट टीचर अवॉर्ड, यूनेस्को के वर्ल्ड वाइड न्यूज लेटर में सम्मान के अलावा अनेक सामाजिक,साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं से भी अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं। 
युवाओं को संस्कृति से जोड़ना जरुरी 
आधुनिक युग में लोक कला एवं संस्कृति को लेकर रविन्द्र कुमार रवि का कहना है कि हरियाणा की सांस्कृतिक विरासत सदियों पुरानी और समृद्ध रही है। हरियाणा की लोक संस्कृति, कला, रंगमंच और साहित्य ने सदा से समाज को दिशा दी है। इस आधुनिक युग में भी लोक कला और संस्कृति ने अपना विशिष्ट स्थान बए रखा है। हालांकि तकनीक और आधुनिकता के प्रभाव, व्यवसायिकता के कारण इन कलाओं में बदलाव नजर आने लगा है। ऐसे में खासतौर से युवाओं को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने के लिए उन्हें लोक कला, संगीत व अभिनय के प्रति प्रेरित करने की जरुरत है। जब तक युवा अपनी संस्कृति को नहीं अपनाएंगे, तब तक कोई भी कला जीवित नहीं रह सकती। 
16June-2025

सोमवार, 9 जून 2025

साक्षात्कार: समाज को नई दिशा देने में साहित्य की अहम भूमिका: अनामिका वालिया

देशभक्ति से ओतप्रोत वीर रस की कविताओं के लेखन व काव्यपाठ से बनाई पहचान 
           व्यक्तिगत परिचय 
नाम: अनामिका वालिया 
जन्म तिथि: 19 मई 1989 
जन्म स्थान: कैथल, (हरियाणा) 
शिक्षा: एम.ए. (अंग्रेजी) 
सम्प्रति: लेक्चरार(शिक्षा विभाग हरियाणा), लेखक एवं कवियत्री 
संपर्क: यमुनानगर(हरियाणा), मोबा. 9034848291 
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BY-ओ.पी. पाल 
हिंदी साहित्य के क्षेत्र में हरियाणवी संस्कृति के संवर्धन के लिए लेखक अपनी अलग अलग विधाओं में साहित्य साधना करते आ रहे हैं। ऐसे ही साहित्यकारों में कवियत्री अनामिका वालिया भी समाजिक सरोकारों के मुद्दों पर अपने रचना संसार को आगे बढ़ा रही हैं। देशभक्ति और समाज में महिलाओं के मुद्दे पर भी कविताओं का लेखन और मंच से समाज को सकारात्मक संदेश देते हुए उन्होंने परिवार से मिली विरासत को आगे बढ़ाने का प्रयास किया है। शिक्षाविद्, लेखिका एवं कवियत्री अनामिका वालिया शर्मा ने अपने साहित्यिक सफर को लेकर हरिभूमि संवाददाता से बातचीत करते हुए कुछ ऐसे पहलुओं का भी जिक्र किया है, जिसमें उनका मत है कि साहित्य के बिना समाज की कल्पना करना बेमाने है, क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है। 
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हिला साहित्यकार अनामिका वालिया का जन्म 19 मई 1989 को जिला कैथल में देशबंधु वालिया और दमयंती वालिया के घर में हुआ। उनके नाना स्वर्गीय रमेश चंद्र ने आज़ाद हिंद फौज के सेनानी के रूप में और उसके बाद सेना में भर्ती होकर देश की सेवा की। इसलिए देशभक्ति और देश प्रेम भी विरासत में मिला। जबकि मामा स्वर्गीय अमरजीत अहलूवालिया कविता लेखन किया करते थे, तो उन्हें साहित्यिक माहौल मिलने के कारण बचपन में कविता लेखन में रुचि पैदा हुई। शायद यही कारण है कि उन्होंने 13-14 वर्ष की आयु से कविता लेखन शुरू कर दिया था। उनके कविता लेखन में ओज विधा रही और देशभक्ति से परिपूर्ण कविताएं लिखना शुरू किया। पहली कविता साहित्य सभा कैथल के मंच से चौदह वर्ष की आयु में पढ़ी, जहां वह अपने पिता के साथ कार्यक्रम में पहुंची थी। उन्हें वो दिन आज भी याद है, जब कार्यक्रम के समापन के बाद एक शख्स उनके पास आए और जिन्होंने कहा कि तुमने बहुत अच्छी कविता पढ़ी और उसकी सराहना की, लेकिन उन्होंने सवाल किया कि ये कविता तुमने तो नहीं लिखी होगी? जब उसने बताया कि ये कविता उसने खुद लिखी है, तो वह बोले कि इतनी कम उम्र में कोई इस तरह की कविता नहीं लिख सकता? यह सुनकर उसने बताय कि आप अपनी पसंद का कोई भी विषय उन्हें दीजिए और वह अभी आपको कविता लिखकर दिखा देगी। तब उन्होंने मुस्करा कर उनके सर पर हाथ रखा और आशीर्वाद देते हुए कहा कि अब यकीन हो गया कि कविता तुमने ही लिखी है। अनामिका की प्रारंभिक शिक्षा कैथल और उच्च शिक्षा अंबाला शहर से पूरी हुई। अंबाला के एमडीएसडी कॉलेज से स्नातक की शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ग्रेजुएशन की परीक्षा में पूरे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में द्वितीय व अंबाला ज़िले में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसके लिए उन्हें तत्कालीन केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा के द्वारा गोल्ड मेडल से सम्मानित किया गया था। भाषण प्रतियोगिता में नेशनल यूथ फेस्टिवल में पूरे उत्तर भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए पहला स्थान प्राप्त किया, जिसके लिए हरियाणा सरकार द्वारा सम्मानित किया गया। साल 2014 से शिक्षा विभाग हरियाणा में अंग्रेजी लेक्चरर के तौर पर अपनी सेवाएं देना प्रारंभ किया। एक शिक्षिका के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने सामाजिक मुद्दों पर आधारित विभिन्न नाटकों का लेखन एवं निर्देशन भी किया, जो राज्य स्तर पर प्रथम स्थान के लिए शिक्षा विभाग को ओर से उन्हें सम्मानित किया गया। साल 2018 में हरियाणा के यमुनानगर ज़िले में विवाह हुआ। परिवार और दो जुड़वां बेटियों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए साहित्यिक सफर को आगे बढ़ाना आसान नहीं था, लेकिन परिवार के सहयोग और साहित्य के प्रति अपने समर्पण से अपने इस सफर को निरंतर जारी रखा। वर्तमान में अपने परिवार के साथ यमुना नगर में रहकर अध्यापन और साहित्य सेवा कर रही हैं। उनके साहित्यिक गतिविधियों को परिवार के लोगों के प्रोत्साहन भी अहम रहा है। उन्होंने अपनी कविताओं के लेखन में देश, समाज और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर फोकस किया है। वहीं उन्होंने सैनिकों के शौर्य का जयगान तो कभी राजनीतिक पर व्यंग्यात्मक कविताओं को भी साहित्य मंच पर उतारा है। उनकी एक प्रसिद्ध रचना 'बेटियां मैदान में उतार दूं' स्कूल कॉलेज की बच्चियों को इतनी पसंद आई कि विभिन्न प्रतियोगियों में उन्होंने इसे प्रस्तुत किया और पुरस्कार प्राप्त किए। उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने देश के विभिन्न राज्यों में होने वाले कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ करना प्रारंभ किया और देश के अनेक प्रतिष्ठित न्यूज चैनलों पर काव्यपाठ किया। 
साहित्य की स्थिति बेहतर 
आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति को लेकर कवियत्री एवं लेखक अनामिका वालिया का कहना है कि आज भी साहित्यिक लेखन प्रगति पर है और नई युवा पीढ़ी भी साहित्य क्षेत्र में बेहतर लेखन कर रही है, जिससे कहा जा सकता है कि साहित्य बेहतर स्थिति में है। हालांकि सोशल मीडिया के माध्यम से साहित्य लेखन ज्यादा बढ़ा है। इससे भी युवा पीढ़ी साहित्य के प्रति आकर्षित हो रही है। इसके बावजूद साहित्य जगत में एक बात आहत करने वाली है, कि साहित्यिक मंचों पर कविताओं के नाम पर चुटकले और अश्लीलता परोसी जा रही है, जिस पर अंकुश लगाना जरुरी है। साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है, इसलिए साहित्यकारों और लेखकों को युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति के प्रति प्रेरित करने वाला साहित्य सृजन करने की जरुरत है, ताकि समाज को सकारात्मक संदेश दिया जा सके। मसलन विशुद्ध साहित्य की रचना बेहद जरुरी है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
महिला कवियत्री अनामिका वालिया ने अल्प आयु में ही कविताओं का लेखन शुरु कर दिया था और वीर रस की कविताओं के संकलन के रुप में 2014 में पहली काव्य पुस्तक 'एक और इंकलाब' पाठकों के सामने आई। उनकी इस प्रकाशित पुस्तक में देश प्रेम और महिला सशक्तिकरण से संबंधित कविताओं को समायोजित किया गया है। उनकी रचनाएं विभिन्न समाचार पत्र व पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हो रही हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
साहित्यकार अनामिका वालिया को हरियाणा सरकार गोल्ड मेडल से सम्मानित कर चुकी है। साहित्य क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें नारायणी फाउंडेशन के रूपा राजपूत सम्मान, रोटरी क्लब के ऑनरेरी मेंबर सम्मान मिला है। वहीं भारत विकास परिषद अंबाला शहर और पंचनद शोध संस्थान यमुना नगर द्वारा भी सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा उन्हें देश व विभिन्न राज्यों की साहित्यिक एवं प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा काव्य मंचों से अनेक पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। 
09June-2025

मंगलवार, 3 जून 2025

चौपाल: फिल्मों की कहानियां समाज को देती हैं सकारात्मक संदेश: संजय सैनी

फिल्मी पटकथा लेखन के साथ अभिनय और निर्देशन में भी बनाई पहचान 
          व्यक्तिगत परिचय 
नाम: संजय संजू सैनी 
जन्मतिथि: 10 अक्टूबर 1990 
जन्म स्थान: गाँव बिरौली, जिला जींद (हरियाणा)
शिक्षा: स्नातकोत्तर (वनस्पति विज्ञान और मनोविज्ञान), डीएवी कॉलेज चंडीगढ 
संप्रत्ति: लेखक और निर्देशक 
संपर्क: मोबाइल नंबर- 9996436999 
By-ओ.पी. पाल 
रियाणवी लोक कलाकारों ने हरियाणवी संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं की पहचान देश विदेश तक पहुंचाई है, जिसमें हरियाणवी फिल्मों, लोक संस्कृति से जुड़ी रागनी, सांग तथा लोक संगीत के क्षेत्र में अलग विधाओं में कलाकारों के हुनर अपनी अलग ही पहचान रखता है। ऐसे ही संजय संजू सैनी ऐसे कलाकार है, जिन्होंने एक छोटे से गांव से बॉलीवुड तक अपने अभिनय का सफर तय किया है। उन्होंने कई फिल्मों और वेबसीरीज की कहानियां लिखी और उन पर बनी फिल्मों का निर्देशन के अभिनय की भूमिका भी निभाई है। उन्होंने अपने लेखन, फिल्म अभिनय और निर्देशन के सफर को लेकर हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कई ऐसे पहलुओं का जिक्र किया, जिसमें कला की हर विधा समाजिक सरोकार के मुद्दों में सकारात्मक संदेशों का समावेश करने में सक्षम है। 
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रियाणा संस्कृति संवर्धन में जुटे लेखक एवं निर्देशक संजय संजू सैनी का जन्म 10 अक्टूबर 1990 को जींद जिले के गांव बरौली में एक किसान परिवार में कंवर सिंह और इंदू देवी के घर हुआ। उनके पिता हरियाणा सरकार के शिक्षा विभाग में अध्यापक पद पर कार्यरत रहे, जबकि माता गृहणी हैं। उनका परिवार बड़ा है और दादा किसान थे और उनके पिता चार भाईयों के साथ नौकरी करने के अलवा खेती बाड़ी में भी हाथ बंटाते थे। परिवार में उनके चाचा पंजाबी भाषा के अध्यापक हैं, जो सुरजीत बिंदरखिया की कैसेजट से आते थे और एक लाल बैटरी, जिसमें म्यूज़िक की भी व्यवस्था थी उससे वह सुनता था। हरियाणवी में उन्होंने बचपन में ही सुनील दूजानिया और रामकेश जीवनपुरीया को भी सुना है। शायद उसी के कारण उन्हें बचपन में कला व संगीत में अभिरुचि होने लगी। उनके गांव की ही एक टोली रागनी गाने और गढवे बैंजो बजाकर गाती थी, तो वह भी चोरी छिपे उनके साथ रहता था। बकौल संजय सैनी, पहली बार उन्हें लिखने का एहसास उस समय हुआ था, जब उनके दोस्त के उपर प्रस्ताव लिखना था। संजू ने मॉय बेस्ट फ्रेंड को अलग अलग तरीक़े से चार बार लिख दिया था। इसमें एक बार हास्य, फिर दुखास, इसके बाद गंभीर और अंत में गुस्सैल तरीके से लिखा, तो उनके अध्यापक ने हंसते हुए उनकी पीठ थपथपाई थी। दरअसल यह लिखने का कारण था कि सबके दोस्त एक जैसे कैसे हो सकते है? सबके किरदार मिलते जुलते कैसे हो सकते हैं, लेकिन उनका दोस्त अलग है और वह दुनिया की भीड से अलग रहेगा। उन्होंने बताया कि एक बार वह अपने दोस्त के साथ गलती से 'चंडीगढ में पंजाब कला भवन सेक्टर 16 गया, जहां उन्होंने 'बिच्छू', 'सातवाँ घोड़ा' 'कोर्ट मार्शल' थिएटर देखा और फिर वहीं का होकर रह गया। यानी वहां एक्टरों को घंटो तैयारी करते देखा और एक्टरों को देखना उनकी एक आदत बन गई और आज वह भी बिना पहचान बताए यही कर रहे हैं और वहां बैठकर एक्टर और डायरेक्टर को काम करते देखता हैं। उनकी पहली कृति एक कविता थी, जो कि एक न्यूज़ चैनल की वेबसाइट पर प्रकाशित हुई थी। दरअसल वह कालेज के दिनों में पढ़ाई करते समय से ही फिल्म की कहानी लिखने लगे थे। उन्होंने एमएससी की पढ़ाई के दौरान रॉकी मेंटल की कहानी लिखी और सौभाग्यवश इसे चयनित कर लिया गया। इसके बाद मन में आया कि उन्हें लेखन कार्य को अपना करियर बनाना चाहिए और इसी फील्ड में अपने करियर को आगे बढ़ाने का फैसला किया। हाल ही में उनके कुछ प्रोजेक्ट बड़े प्रोडक्शन हाउस से आने वाले हैं। सैनी ने बताया कि उनके ⁠फ़िल्मों का सफ़र कुछ ऐसा रहा कि फ़िल्म की कहानी लिखने और अपनी लिखी फ़िल्म थिएटर में देखने का मौका मिल गया था, लेकिन तब भी उनका इधर काम करने का इरादा कम ही था। ⁠लेकिन उनकी लिखी हुई पहली दोनों कहानियों पर फ़िल्म बनी, तो उनका खुद पर भरोसे के साथ आत्मविश्वास बढ़ने लगा और उन्हें लगा कि जो वह करने आया था वह उसी राह पर हैं। 
यहां से मिली मंजिल 
लेखक एवं निर्देशक संजय सैनी ने बताया कि खेल में उन्होंने कबड्डी खेली है और राज्य स्तर के टूर्नामेंट तक खेला। जब भी कोई खेल प्रतियोगिता होती है, तो हरियाणा के पहलवानों का दबदबा हमेशा देखने को मिला है। उन्होंने जब कालेज की पढ़ाई के दौरान ही खेलों पर ही फिल्म 'रॉकी मेंटल' की कहानी लिखी और उसे फिल्म के लिए चुना गया। उन्होंने वेबसीरीज फिल्म अखाड़ा (एक और दो), स्कैम, पिंकी भाभी के किरदार की पटकथा भी लिखी और अभिनय भी किया। अखाड़ा के लिए उन्हें हिफ्फा से सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का अवार्ड भी मिल चुका है। पलवानो और उनके संघर्ष पर ही आधारित फिल्म 'अखाड़ा' वेबसीरीज को लेकर लेखक संजय सैनी काफी चर्चा में है। इसके निर्माण के लिए उन्होंने काफी समय तक हरियाणा के विभिन्न गांवों और छोटे कस्बों में शोध कार्य करके कुश्ती जैसे खेल पर यह वेब सिरीज लिखी है। वर्तमान में वह बॉलीवुड में दो हिंदी फ़िल्म, एक वेब सीरीज़ में बतौर लेखक और निर्देशक की भूमिका में कार्यरत हैं। गैंगस्टर और रियल लाइफ स्टोरी पर भी उन्होंने कार्य किया। 
डाक्टर न बनने का मलाल 
फिल्म निर्देशक संजय संजू सैनी का कहना है कि उन्हें इस बात का मलाल रहेगा कि वह डाक्टर नहीं बन पाए। मन में यह ऐसी पीड़ा बस गई कि नौकरी करना उनकी किस्मत में नहीं था, क्यों कि उनका लेखन की तरफ ज्यादा रूझान बढ़ता गया। घंटो बॉयलोजी की पढ़ाई करने के कारण किताबों के साथ समय बीताना अच्छा लगता था, जिसमें शरतचंद्र, धर्मवीर भारती, दिनकर और सुरेंद्र मोहन पाढक से लेकर समकालीन लेखक सत्य व्यास, प्रवीण झा प्रियकां ओम और मिनाक्षी सिंह सुनीत करोथवाल तक को पढता रहता था। इसके साथ वह असमंजस में रहे कि यदि फिल्म लाइन का कोई भरोसा नहीं, फ़िल्म बन भी गई तो चलेगी या नहीं इसका डर अलग रहा। इन सभी सवालों का जवाब उन्हें उनके स्वर्गीय दादा हवा सिंह ने देते हुए दिया कि बेटा खेती कौनसा सिक्योर है? लेकिन हमने भी तो जीवन निकाल लिया और उतार चढ़ाव आना जिंदगी का हिस्सा है। इसलिए जो कर रहे हो उस पर ध्यान रखते हुए शिद्दत से काम करो। उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और नहीं सोचा। तब से वह लगातार कहानियों का लेखन करते आ रहे हैं और उन पर फिल्में भी बन रही हैं। आज के आधुनिक युग में साहित्य और संस्कृति के सामन चुनौतियों को लेकर संजय सैनी का कहना है कि ऐसे समय में खासतौर से युवाओं में रुचि बढ़ी है, बदलाव केवल इतना है कि इसके लिए आज कल इंटरनेट युग में सोशल मिडिया और ओटीटी ने उनके लिए नए रास्ते खोले। ⁠हालांकि समाज में संस्कृति से जोड़ने की दिशा में युवाओं को प्रेरित करने की जरूरत है। हालांकि युवा वर्ग स्वयं अपनी दिशा और प्रेरणा तलाश लेते है, जिन्हें केवल मार्गदर्शन की जरुरत है। 
02June-2025

सोमवार, 26 मई 2025

साक्षात्कार: सामाजिक उत्थान का माध्यम है साहित्य सृजन: कृष्ण कुमार

कविता, गजल, लघुकथा, व्यंग्य जैसी विधाओं में लेखन से मिली पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: कृष्ण कुमार निर्माण 
जन्म तिथि: 15 जून 1975 
जन्म स्थान: गांव व पोस्ट बरोदा, गोहाना, जिला सोनीपत,(हरियाणा) 
शिक्षा: एमए (हिंदी),बीएड,एलएलबी, पत्रकारिता डिप्लोमा 
सम्प्रति:स्वतंत्र लेखन, कवि, एवं शिक्षा विभाग हरियाणा में अधिकारी
संपर्क:निर्माण सदन, शांति नगर,करनाल, मोबा-9034875740, ई मेल kknsec@gmail. com 
--BY-ओ.पी. पाल 
साहित्य जगत में लेखन केवल साहित्य संवर्धन ही नहीं है, बल्कि सामाजिक उत्थान में भी साहित्य की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसा साहित्य सृजन करते आ रहे मूर्धन्य विद्वानों का भी मत है कि साहित्य के बिना समाज की कल्पना करना असंभव है। समाज को नई दिशा देने के मकसद से ही साहित्यकार अपनी विभिन्न विधाओं में लेखन करने में जुटे हैं। ऐसे ही लेखकों में साहित्य साधाना में जुटे साहित्यकार कृष्ण कुमार निर्माण भी सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों को उजागर करके आलेख, कविताओं और सामयिक विषयों पर अपने रचना संसार को दिशा देने में जुटे हुए हैं। हिंदी और हरियाणवी भाषा में साहित्य संवर्धन करते आ रहे साहित्यकार कृष्ण कुमार निर्माण ने हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान कई ऐसे तथ्यों का जिक्र किया है, जिसमें वह कविता, ग़ज़ल, लघुकथा, व्यंग्य, समसामयिक विषयों पर लेखन करके समाज, खासतौर से युवा पीढ़ी को अपनी परंपराओं से जुड़े रहने का सकारात्मक संदेश दे रहे हैं। 
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साहित्यकार एवं लेखक कृष्ण कुमार निर्माण का जन्म 15 जून 1975 को हरियाणा के सोनीपत जिले में गोहाना तहसील के गांव बरोदा में भूप सिंह निनानिया और श्रीमती रतनी देहड़ान के घर में हुआ। उनके परिवार में कोई साहित्यिक माहौल तो नहीं रहा, लेकिन उनके बड़े ताया लेखन करके रागनी का गायन करते थे। जबकि पिता को भी पढ़ने और रागनी गाया करते थे। उनके पिता और अक्सर उन्हें सांग दिखाने भी ले जाया करते थे, शायद इसी से प्रभावित होकर उनमें भी साहित्यिक व सांस्कृतिक के प्रति कब रुझान बढ़ने लगा और उन्हें ठीक से याद भी नहीं है कि कब उनमें यह लिखने का गुण आ गये। उन्हें ऐसा लगता है कि मेरे ताया रघबीर सिंह की ही प्रेरणा है कि उन्हें विरासत में साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में लेखन मिला, इसका जिक्र उन्होंने अपनी पुस्तक 'बखत-बखत के बोल' में भी किया है। वहीं स्कूली शिक्षकों ने भी उनकी इस प्रतिभा को निखारने में सहयोग दिया। वह स्कूली शिक्षा के दौरान स्कूल में होने वाले हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेकर भाषण प्रतियोगिता, काव्य पाठ और अभिनय करते थे और इन सभी विधाओं में उसने पहला स्थान हासिल किया। उन्हें राज्य स्तर पर श्रेष्ठ अभिनेता और सर्वश्रेष्ठ कमण्टेटर का खिताब भी हासिल हुआ है। बकौल कृष्ण कुमार, बचपन से ही सांग देखकर और ताऊ जी को सुन-सुनकर उन्होंने जिस माहौल को महसूस किया, उसी की वजह से साहित्य सृजन के लिए उनके लेखन की शुरुआत हुई। हालांकि सबसे पहले तो हरियाणवी में रागनी लिखना शुरू किया। जब वह आठवीं कक्षा में थे तो उन्होंने अपनी पहली रचना लिखी, जिसे उनके ने कई आध्यात्मिक कार्यक्रमों में भी गाया और उन्होंने उसे स्वयं भी सुना। इसी बीच निरंकारी मिशन द्वारा एक गीत संग्रह 'हर का भजन करया कर' प्रकाशित हुआ, जो कि पहली बार सार्वजनिक भी हुआ और फिर अखबारों में प्रकाशित हुआ। अखबारों में उनकी रचनाएं छपने के क्रम से उनका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक भी था, जिसमें हिसार में उनके साहित्यिक गुरु मोहन स्नेही की प्रेरणा मिली। इसी प्रेरणा और बढ़ते रुझानों के चलते उन्हें राज्य कवि उदयभानु हंस के साथ भी मंच पर कविता पढ़ने का अवसर मिला और यहीं से हिंदी में भी साहितय लिखने का क्रम आगे बढ़ा ओर प्रकाशित भी हुआ। उन्होंने बताया कि उनके लेखन के क्रम ने गति पकड़ी और विभिन्न कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ भी करते रहे। वहीं उनके कई साझा संग्रह भी आए, लेकिन एक मित्र ने कहा कि आप इतने दिनों से लिख रहे हो, अपना खुद का संग्रह लिखकर भ छपवाओं। इसके बाद उन्होंने हरियाणवी लघु कविताओं का संग्रह लिख, जिसकी भूमिका सुविख्यात साहित्यकार सत्यवीर नाहड़िया ने लिखी है। जहां तक साहित्यिक सफर में परेशानियों का सवाल है उसके लिखे साहित्य के लेखन में कई बार आई, लेकिन ऐसी समस्याएं जल्द हल हो गई। एक ऐसा दिलचस्प किस्सा भी उस समय सामने आया, जब रेवाड़ी में वह अपना कविता पाठ करके मंच से नीचे उतर रहे थे तो युगदृष्टा बाबा हरदेव सिंह जी ने उनकी लिखी रचना को लिखित में मुझे मांगा, जिससे उनका उत्साह बढ़ना भी स्वाभाविक था। आज वह कविता, ग़ज़ल, लघुकथा, व्यंग्य, समसामयिक विषयों पर लेख लिख रहे हैं और कुंडली, लघुकविता, लघुकथा भी उनके साहित्यक साधना की विधाओं में शुमार हैं। उनके उनके साहित्य लेखन का फोकस जनपक्ष की व्यथा, जातिगत भेदभाव, किसानों की दुर्दशा और नारी अधिकार जैसे सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर ज्यादा रहा है। उनके आलेख, कविताएं और रचनाएं देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में भी अनवरतप्रकाशित होती रही है। वहीं हिसार दूरदर्शन से उनके काव्य की अनेक बार प्रस्तुतियां प्रसारित हो चुकी है। उन्होंने हरियाणावी साहित्य अकादमी बनाने के लिए आंदोलन भी चलाए और इसके लिए सरकार को पत्र भी लिखे हैं।
सोशल मीडिया से बड़ी चुनौती 
आधुनिक युग में भी निश्चित रूप से साहित्य की स्थिति सर्वोच्च बनी है, मगर सोशल मीडिया के दौर में थोड़ा चुनौती भी कहा जा सकता है। इस आभासी दुनिया में जहाँ सकारात्मकता है, वहीं काफी चीजें अनुचित भी हैं। ऐसा भी नहीं है कि साहित्य के पाठको में कमी आई है, बल्कि मुद्रित पुस्तकों के मुकाबले ऑनलाइन पाठ पठन कुछ ज्यादा हो गया है। वहीं इस बाजारीकरण के दौरे में अर व्यक्ति व्यस्त है और मोबाइल को ही अपने जीवन की प्रक्रियाओं का जरिया बना लिया है। साहित्य और संस्कृति से दूर होती युवा पीढ़ी को लेकर उनका कहना है 'भूखे पटे भजन होए न गोपाला' वाली कहावत ऐसे माहौल में सटीक भी है, जब युवाओं पर करियर को लेकर दबाब बढ़ रहा है। लेकिन ऐसे में युवाओं को साहित्य के लिए प्रेरित करने की ज्यादा आवश्यकता है, जो उन्हें नई राह देने के साथ उनके आत्मसम्बल भी बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकता है। युवाओं को साहित्य के प्रति प्रेरित करने के लिए उनके स्तर और बदलते युग के साहित्य लेखन की जरुरत है। लेकिन लेखक और साहित्यकारों द्वारा साहित्य तो ज्यादा लिखा जा रहा है, लेकिन उसमें गिरावट नजर आने लगी है और यह बहुत ही तकलीफदेह है कि आज साहित्य भी दो खांचों में बांटा जा रहा है। असल में साहित्य वही है जो कालजयी हो और आम जनमानस की पीड़ा को प्रभावी तरीके से व्यक्त करता हो। इसके लिए खासतौर से युवाओं को साहित्य से जोड़ने के लिए स्कूल और कॉलेजों स्तर पर में सहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यशालाओं को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्यकार कृष्ण कुमार निर्माण की प्रकाशित पुस्तकों में हरियाणवी लघुकविता संग्रह 'बखत बखत के बोल', हिंदी आलेख संग्रह 'प्रसंगवश', हिंदी काव्य संग्रह 'कविता के बहाने व शब्द बोलते हैं', हरियाणवी ग़ज़ल संग्रह 'बखत-बखत की बात', हरियाणवी लघुकविता संग्रह 'घणा बदलग्गा यार जमाना', व्यंग्य संग्रह 'हल्के-फुल्के व्यंग्य', हरियाणवी कुंडली संग्रह 'मन के जालै', आलेख संग्रह 'संयोगवश'(समय का दसतावेज) शामिल हैं। इसके आलवा उनके साझा संग्रह में हरयाणवी गीत संग्रह 'हर का भजन करया कर', करनाल के कवियों का संग्रह 'कविप्रिया', लघुकविता संग्रह 'हरियाणवी जिंदाबाद' हरियाणा के लघुकथाकार 'ख्यालों का चरागाँ' दूरदर्शन द्वारा प्रकाशित बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ-आवाज-ए हिंदुस्तान भी उनकी उपलब्धियां हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
हिंदी और हरियाणवी साहित्य में योगदान के लिए साहित्यकार कृष्ण कुमार को अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। उन्हें 'हिंदी श्री' सम्मान, श्रेष्ठ साहित्यकार सम्मान, हरियाणवी साहित्य गौरव अवार्ड, श्रेष्ठ शिक्षक सम्मान, साहित्य सभा कैथल व नेपाल की संस्था द्वारा पुरस्कारों से नवाजा गया है। वहीं कवि सम्मेलनों के मंचों पर भी उन्हें अनेक पुरस्कार मिले हैं। 
  26May-2025

सोमवार, 19 मई 2025

चौपाल: समाज व संस्कृति के संवर्धन में लोक कलाओं की अहम भूमिका: सोनिया

लोक नृत्य और शास्त्रीय नृत्य कथक से सांस्कृतिक का विकास करने में जुटी कलाकार 
           व्यक्तिगत परिचय 
नाम: सोनिया 
जन्मतिथि: 24 सितंबर 2001 
जन्म स्थान: गांव ससोली, जिला यमुनानगर 
शिक्षा: ग्रेज्युएट 
संप्रत्ति: लोक नृत्य, लोक कलाकार 
संपर्क: गांव ससोली, जिला यमुनानगर, मोबा: 8295083765 
BY--ओ.पी. पाल 
रियाण की समृद्ध लोक संस्कृति के संवर्धन में जुटे लोक कलाकारों ने विभिन्न विधाओं के माध्यम से अपनी कला में नई दिशा देने का प्रयास ही नहीं किया, बल्कि हरियाणवी कला, संस्कृति और परंपराओं की देश-विदेशों तक अलख जगाई है। ऐसे ही कलाकारों में प्रतिभावान सोनिया अपने लोक नृत्य की कला को ऐसी धार देने में जुटी हैं, जिसमें उनका लोक नृत्य, केवल मनोरंजन ही नहीं, बल्कि संस्कृति का वाहक बनकर धर्म, संस्कार और आत्म-चिंतन को जोड़ने का सबब बनता जा रहा है। लोक नृत्य के साथ वह भारतीय शास्त्रीय नृत्य कथक की विधा में अपने कदम बढ़ा रही हैं। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान युवा लोक कलाकार सोनिया ने अपनी लोक कला के सफर को लेकर कुछ ऐसे पहलुओं को भी उजागर किया है, जिसमें वह अपनी कला लोक परंपरा और शास्त्रीय साधना से एक ऐसा सांस्कृतिक पुल बनाया जा सकता है, जो नई पीढ़ी अपनी जड़ों से जोड़कर समाज को सकारात्मक विचारधारा के साथ नई दिशा देने में सक्षम है। 
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रियाणा की प्रतिभाशाली लोक कलाकार सोनिया का जन्म जन्म 24 सितंबर 2001 को यमुनानगर जिले के ससोली गाँव के एक मध्यमवर्गीय परिवार में सुरेंद्र कुमार और श्रीमति करनैलो देवी के घर में हुआ। उनके परिवार में कोई सांस्कृतिक या कला का माहौल नहीं था। सोनिया की प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही सरकारी स्कूल में हुई, उनके पिता कभी-कभी रिक्शा चलाकर भी परिवार का पालन पोषण करने का प्रयास करते थे, जबकि माता नगर पालिका में कच्ची कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं और आज भी उनका परिवार मां की आय पर आधारशिला हैं। इसका कारण यह था कि कोराना काल में घर में ब्रजपात हुआ और उनके पिता का दुर्भाग्यवश निधन हो गया, उस समय वह गुरु नानक गर्ल्स कॉलेज, यमुनानगर में स्नातक प्रथम वर्ष की पढ़ाई कर रही थी। पिताजी के निधन के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियाँ बढ़ने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ समय के लिए बाधित रही। लेकिन परिवार की जिम्मेदारी संभाल रही मां ने बेटे के अभाव में भी घर में तीन बेटियों का आत्मबल कभी कम नहीं होने दिया और आर्थिक चुनौतियों के बीच माँ के धैर्य और हमारी एकजुटता ने हमें आगे बढ़ने की शक्ति दी। बकौल सोनिया, उन्हें बचपन से ही नृत्य और अभिनय बेहद पसंद थे और खासतौर से नृत्य में अभिरुचि थी। जब भी कोई फिल्म देखती, तो उसके नृत्य को कॉपी करने की कोशिश करती और उसके संवादों की तरह अभिनय भी करती थी। कभी कमरे में अकेले, तो कभी किसी पारिवारिक आयोजन में जैसे ही संगीत बजता या कोई सीन मन को छूता, मेरा मन नृत्य और अभिनय की ओर खिंच जाता था। वह अभी अपने भविष्य से अनजान थी, लेकिन अहसास होता था कि उसकी राह राह कला की दुनिया से होकर ही जाती है और समय के साथ यह रुचि ही उनकी साधना बन गई और अब लोकनृत्य ही उसकी कला की पहचान बन चुकी है। उन्होंने बताया कि 12वीं की शिक्षा पूरी करने के बाद उसे गुरु नानक गर्ल्स कॉलेज में शिक्षा ग्रहण करते हुए कॉलेज के यूथ फेस्टिवल में उन्हें हरियाणवी लोक नृत्य के ग्रुप डांस में भाग लेने का अवसर मिला, जो दर्शकों के सामने उनकी पहली लोकनृत्य की प्रस्तुति थी, जहां उनकी कला को तालियों से मिली सराहना ने आत्मविश्वास को ऐसे बढ़ाया कि उनका मन पूरी तरह नृत्य में रच-बस गया। कॉलेज में ही उन्होंने हरियाणवी लोकनृत्य की बारीकियाँ सीखी थीं, जिसके बाद उन्होंने कई शूटिंग के दौरान बैकग्राउंड डांसर के रूप में काम करना शुरू किया। इसी दौरान उन्हें स्वर्गीय सिंगर राजू पंजाबी के साथ एक गाने में मुख्य भूमिका में भी काम करने का अवसर मिला। हालांकि इस क्षेत्र में मेहनत के मुकाबले पारिश्रमिक बहुत कम था और कार्यशैली असंगठित, विशेष रूप से बैकग्राउंड कलाकारों के लिए रही। इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि अपनी कला को एक सृजनात्मक, सम्मानजनक और स्थायी मंच पर ले जाएं। उनका कहना है उनकी कला यात्रा आसान नहीं रही, लेकिन हर मोड़ उनके लिए एक नई सीख लेकर आया। जब उन्होंने हरियाणवी लोकनृत्य और भारतीय शास्त्रीय नृत्य की दुनिया में कदम रखा, तब यह सिर्फ एक शौक नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार थी। गाँव की बेटी होने के नाते कई बार सामाजिक सीमाएं भी सामने आईं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल उठे, मंच पर खड़े होने को नजरों से तौला गया। परिवार और समाज के कुछ लोग शुरू में रोक-टोक करते थे, पर उन्होंने हार नहीं मानी। जब उनका नाम अखबारों में मंचों की तस्वीरें के साथ आने लगा तो धीरे-धीरे समाज की आवाजें खुद ही शांत होती चली गई और आज वही राह उसे पहचान और सम्मान दिला रही है। उनकी लोक कला की इस यात्रा में अभी मंज़िलें तो बहुत बाकी हैं। 
हरियाणवी संस्कृति सर्वोपरि 
हरियाणा की मिट्टी में जन्मी और उसी सांस्कृतिक धड़कनों में पली-बढ़ी सोनिया अपनी कला को केवल मंच की प्रस्तुति नहीं, बल्कि आत्मिक यात्रा मानती है। हरियाणवी लोक नृत्य में गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू, भाषा, लोकगीत, हंसी-मजाक और संघर्ष सब कुछ समाहित करते हुए हरियाणा संस्कृति को सर्वोपरि रखा है। अब सोनिया का झुकाव भारतीय शास्त्रीय नृत्य कथक की ओर भी है, जिसकी विद्या को पूरी श्रद्धा और लगन से सीख रही हैं, क्योंकि इसमें केवल ताल और गति नहीं, बल्कि गहराई से भाव, कथा और आत्मिक अनुशासन छिपा है। कथक की हर मुद्राएं, हर भाव-अभिनय मुझे भीतर तक छूते हैं और उनकी कला को एक नई दिशा प्रदान करते हैं। उनका कहना है कि अपनी कला में उनका लक्ष्य नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने का है, ताकि समाज को सकारात्मक विचारधारा के साथ नई दिशा मिल सके और उनकी कला मनोरंजन नहीं, बल्कि संस्कृति का वाहक बनकर धर्म, संस्कार और आत्म-चिंतन से जुड़ सके। 
लोक कलाओं के सामने चुनौतियां 
युवा लोक नृत्य कलाकार सोनिया का इस आधुनिक युग में लोक कला और संस्कृति की चुनौतियों को लेकर कहना है कि हमारी लोक नृत्य, संगीत, और रंगमंच जैसी पारंपरिक कलाओं को कहीं न कहीं संघर्ष करना पड़ रहा है, जिसका कारण डिजिटल माध्यमों ने मंचों को स्क्रीन में बदल दिया है। इसी कारण कभी समाज की आत्म रहीं लोक कलाएं अब सीमित मंचों और सीमित दर्शकों तक सिमटती जा रही हैं। हालांकि अभिनय और संगीत की विधाएं आज भी जीवित हैं, लेकिन व्यावसायिकता और दिखावे का प्रभाव पारंपरिकता, भावनात्मकता और सच्चे कलात्मक प्रयासों की पहचान को मुश्किल करता नजर आ रहा है। लेकिन आज समाज, खासतौर से युवा पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने की जरुरत है, ताकि इन कलाओं को केवल संग्रहालयों में ही नहीं, जीवंत मंचों पर भी जीवंत देखा जा सके। वहीं यह दुर्भाग्यपूर्ण सत्य है कि आज की युवा पीढ़ी की लोक कला, रंगमंच, अभिनय और साहित्य जैसी सांस्कृतिक विधाओं में रुचि कम होती जा रही है। इसका एक प्रमुख कारण है तेज़ी से बदलती जीवनशैली और सोशल मीडिया का प्रभुत्व, जिसने त्वरित मनोरंजन को प्राथमिकता बना दिया है। जबकि लोक कलाएं केवल प्रस्तुति नहीं होतीं, वह हमारे इतिहास, हमारी सभ्यता और हमारे मूल्य प्रणाली की जीवंत अभिव्यक्ति होती हैं। इसलिए हरियाणवी लोक नृत्य, रंगमंच और संगीत जैसे पाठ्यक्रमों को स्कूली स्तर पर लागू करके हर स्कूल में युवाओं को प्रेरित करने के लिए अनिवार्य करने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार को भी लोक कला और नृत्य को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष योजनाएं बनानी चाहिए, ताकि कलाकारों को आर्थिक और सामाजिक सहायता मिल सके, जिससे वे अपनी कला को सशक्त रूप से प्रस्तुत कर सकें। 
19May-2025

सोमवार, 12 मई 2025

साक्षात्कार: समाजहित में हिंदी साहित्य को जीवंत रखना आवश्यक: मीना चौधरी

कवियत्री के साथ सामाजिक कार्यकर्ता के रुप में भी बनाई पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: मीना चौधरी 
जन्मतिथि: 28 मार्च 1971 
जन्म स्थान: जमशेदपुर (झारखंड) 
शिक्षा: बीएससी, एमबीए 
संप्रत्ति: लेखिका, कवि, संपादक, उद्यमी और सामाजिक कार्यकर्ता 
संपर्क:3313, डीएलएफ, फेज-4, गुरुग्राम (हरियाणा), ईमेल-meena.choudhary7@gmail.com, मोबा.-8527722319 Ph-8527722319 
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--BY-ओ.पी. पाल 
साहित्य संवर्धन करने में जुटे साहित्यकार अलग अलग विधाओं में समाज को नई दिशा देने के मकसद से सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर अपनी लेखनी चलाते आ रहे हैं। ऐसे ही लेखकों में महिला साहित्यकार मीना चौधरी भी एक कवि के रुप में अपने रचना संसार को आगे बढ़ा रही है। साहित्य और सांस्कृतिक समृद्धि के लिए समर्पित लेखन करने के साथ वह कई साहित्यिक, सामाजिक, उद्यमी जैसी संस्थाओं के साथ जुड़ी हैं और एक सामाजिक कार्यकर्ता के रुप में भी अपनी भूमिका निभा रही हैं। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान साहित्यकार, कवि एवं लेखिका मीना चौधरी ने अपने साहित्यिक सफर को लेकर कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिसमें उनका मकसद गद्य और पद्य दोनों विधाओं में साहित्यिक व सांस्कृतिक मंचों पर सक्रिय रहकर हिंदी साहित्य को जीवंत और विकासशील बनाए रखना है, ताकि साहित्य और समाज में उनकी सार्थक भूमिका बनी रहे। 
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महिला साहित्यकार एवं लेखिका मीना चौधरी का जन्म 28 मार्च 1971 को जमशेदपुर(झारखंड) में एक मैथिल ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता जमशेदपुर स्थित टेल्को कंपनी में इंजीनियर थे और माता एक समर्पित गृहिणी रहीं। उनका बचपन जमशेदपुर में ही बीता और उनका और दो भाइयों का पालन-पोषण तथा शिक्षा भी जमशेदपुर में ही हुई। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लिटिल फ्लावर स्कूल(कॉन्वेंट स्कूल ) से हासिल की। उनके परिवार या घर में किसी प्रकार का साहित्यिक या सांस्कृतिक माहौल नहीं था। उन्होंने अपनी शिक्षा विज्ञान विषयों में की, लेकिन हिंदी भाषा के प्रति उनका एक विशेष लगाव रहा और इसी हिंदी प्रेम के चलते उनकी साहित्यिक रुचि विकसित हुई। स्कूल और कॉलेज के दिनों में कभी-कभार कुछ भावनात्मक लेखन करती थी और उसी दौरान आकाशवाणी से भी जुड़ने का अवसर मिला। हालांकि छात्र जीवन की व्यस्तता के कारण यह साहित्य की रुचि थोड़ा पीछे रही। इसके बाद गृहस्थी में आने के बाद जब बच्चे बड़े हो गये तो वहीं साहित्यिक लगाव फिर से मन में जागृत होने लगा और उन्होंने अपनी साहित्यिक पारी को गति देकर लेखन शुरु कर दिया। उनके लेखन किसी एक विशेश विषय तक ही सीमित नहीं है, बल्कि समाज के विभिन्न पहलुओं पर कविताएं और आलेख लिखती आ रही हैं। उन्होंने बीएससी की शिक्षा के दौरान अपनी पहली रचना लिखी, जो स्थानीय अखबारों में भी प्रकाशित हुई। इससे उनका लेखन के प्रति ऐसे में आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था, जब उनकी रचना रेडियो पर भी प्रसारित हुई। उनका पहला हिन्दी कविता संग्रह 'रस स्राविता' प्रकाशित हुए, जिसे भाषा सहोदरी हिन्दी के सहयोग से 2019 में प्रकाशित किया गया। जबकि उनका दूसरा काव्य संग्रह 'पैबंद पर सितारे' शीर्षक से पुस्तक के रुप में 2021 में पाठकों के सामने आया। जबकि तीसरा काव्य संग्रह शीघ्र ही प्रकाशित होगा। बकौल मीना चौधरी, वह हिंदी और अंग्रेज़ी भाषा के अलावा मैथिली में भी लेखन करती आ रही हैं। उन्होंने 'भाषा सहोदरी हिंदी' सहित कई संस्थाओं के साथ मिलकर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कार्य किया है, जिसके लिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली और उन्होंने मॉरीशस, दुबई और सिंगापुर जैसे देशों में हिंदी को मंच को साझा किया। उनका कहना है कि उनके साहित्य क्षेत्र के सफर में उनके पति, बेटियों और दामाद समेत परिजनों का निरंतर सहयोग और प्रोत्साहन मिला है, जो उनके लिए सबसे बड़ी प्रेरणा है। साहित्य क्षेत्र के अलावा वे सामाजिक सेवा में भी सक्रीय हैं और स्वच्छता जागरण समिति जैसी संस्थाओं से जुड़ी हैं। वहीं वे कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ी होने के साथ भाषा सहोदरी की मुख्य संयोजिका हैं और आगमन की राष्ट्रीय महासचिव एवं महिला काव्य मंच, गुरुग्राम की महासचिव भी रही हैं। वे खुद के संस्थान इंडसोल एंटरप्राइजेज की अध्यक्ष भी हैं यानी इंडसोल एंटरप्राइजेज में स्व-नियोजित, उद्यमशीलता की दुनिया में अपनी व्यावसायिक विशेषज्ञता उनके पास है। एक साहित्यकार के रुप में वह राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन दुबई और मॉरीशस में मुख्य प्रबंधक रही हैं एवं भाषा सहोदरी पत्रिका की सम्पादक भी हैं। वहीं उन्होंने अनेक साहित्यिक मंचों के अलावा कई टीवी चैनलों एवं आकाशवाणी के कार्यक्रम में भी भागीदारी की है। 
आधुनिक युग में साहित्य चुनौतीपूर्ण महिला साहित्यकार, कवियत्री एवं लेखिका मीना चौधरी का इस आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति को लेकर कहना है कि आज साहित्य अत्यंत रोचक, बहुआयामी और चुनौतीपूर्ण है। तकनीकी प्रगति, सोशल मीडिया और डिजिटल माध्यमों ने अभिव्यक्ति के नए रास्ते खोले हैं, जिससे साहित्य अब सिर्फ पुस्तकों तक सीमित नहीं रहा। ब्लॉग, ई-बुक्स, पॉडकास्ट और यूट्यूब जैसी डिजिटल माध्यमों ने नए लेखकों को मंच दिया है, और पाठकों को विविधता से भरा साहित्य उपलब्ध कराया है। हालांकि, इस डिजिटल बाढ़ में गंभीर साहित्य कहीं-कहीं हाशिये पर भी दिखता है, जिसका प्रभाव खासतौर से युवा पीढ़ी पर तेजी से हुआ है और युवा पीढ़ी की साहित्य में घटती रुचि के पीछे डिजिटल मनोरंजन का वर्चस्व, त्वरित जानकारी की आदत, और पाठ्यक्रम केंद्रित शिक्षा प्रणाली ने साहित्यिक संवेदनाओं को हाशिए पर डाल दिया है। तात्कालिकता, वायरल होने की लालसा और मनोरंजन की प्रधानता के चलते साहित्यिक गहराई और संवेदना के स्तर पर कभी-कभी समझौता होता है। इसके बावजूद साहित्य आज भी सामाजिक सरोकारों का दर्पण बना हुआ है और बदलते परिवेश में मानसिक स्वास्थ्य, लैंगिक समानता, पर्यावरण और राजनीतिक चेतना जैसे आधुनिक विषयों पर सशक्त लेखन हो रहा है। जहां तक साहित्य के पाठकों में कमी आने का कारण है उसमें तेजी से बदलती जीवनशैली और डिजिटल माध्यमों की बढ़ती निर्भरता है। इसलिए युवाओं को साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि साहित्य न केवल भाषा और अभिव्यक्ति को समृद्ध करने के साथ सोचने, समझने और महसूस करने की क्षमता भी बढ़ाता है। ऐसी प्रेरणा युवाओं को अपनी संस्कृति, समाज और मानवीय मूल्यों से जोड़ने में सहायक होगी। 
प्रकाशित पुस्तकें 
महिला लेखिका एवं कवि मीना चौधरी की प्रकाशित पुस्तकों में रस स्राविता, पैबंद पर सितारे और मेरी स्वरचित काव्य संग्रह हैं प्रमुख रुप से शामिल हैं। उनके हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषा में साँझा संकलन एवं पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, लघुकथा और लेख भी प्रकाशित हुए है। इसके अलावा वे गद्य और पद दोनों साहित्यिक विधाओं में आलेख और रचनाएं लिखती आ रही हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
साहित्यकार एवं लेखिका मीना चौधरी को साहित्यिक क्षेत्र में योगदान के लिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मंचो से अनेक सम्मान मिल चुके हैं। इनमें विश्व हिंदी सम्मान दुबई, 'सहोदरी रत्न' मॉरिशस, 'शब्द मनीषी सम्मान', विविधता में एकता राष्ट्रीय सम्मान, आगमन तेजस्विनी अवार्ड, रंग राची सम्मान, स्वर लहरी सम्मान, प्रेरणा पीढ़ी पुरस्कार, भाषा सहोदरी सम्मान प्रमुख रुप से शामिल रहे। इसके अलावा उन्हें अनेक साहित्यिक मंचों से भी विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। 
14May-2025