सोमवार, 31 मार्च 2025

साक्षात्कार: प्रकृति और मानव के बीच दूरियां मिटाने में अहम साहित्य: कृष्ण लाल गिरधर

सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर कविताओं के लेखन से मिली पहचान 
           व्यक्तिगत परिचय 
नाम: कृष्ण लाल गिरधर 
जन्मतिथि: 12 सितंबर 1961 
जन्म स्थान: गांव-मदीना (रोहतक), 
शिक्षा:एम.ए.(अंग्रेजी),एम.ए.(पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन), एम.एड 
संप्रत्ति:सेवानिवृत्त प्रवक्ता (अंग्रेजी), लेखक, साहित्यकार, कवि 
संपर्क: 388, सेक्टर-02, रोहतक (हरियाणा), मोबा: 9466306226\8708468289 ई-मेल : krishanlal388@gmail.com 
BY-ओ.पी. पाल 
साहित्य और संस्कृति का संवर्धन का सर्वहित में समाज को नई दिशा देने में अहम योगदान माना गया है। इसी मकसद से लेखक, साहित्यकार एवं कलाकार अपनी अलग अलग विधाओं में साहित्य साधना करते आ रहे हैं। साहित्य के क्षेत्र में हिंदी, हरियाणवी, अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं में लेखन करने वाले विद्वानों ने अपनी संस्कृति को संजोए रखने समाज को सकारात्मक संदेश देने का प्रयास किया है। ऐसे ही साहित्यकारों में शुमार कृष्ण लाल गिरधर ने साहित्यिक सफर में हिंदी, अंग्रेजी और हरियाणवी भाषा में अपनी कविताओं और आलेखों के माध्यम सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दो के अलावा प्रकृति, पर्यावरण, मनुष्य का व्यवहार, मानवता, दया, सत्य, प्रेम और करूणा जैसे विषयों को उजागर कर लोकप्रियता हासिल की है। खासतौर से करोना काल में मानवीय मूल्यों और भारतीय संस्कृति के लिए सामाजिक सेवा और लेखन से योगदान करने वाले शिक्षाविद्, साहित्यकार एवं कवि कृष्ण लाल गिरधर ने हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान कुछ ऐसे अछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिसमें साहित्य के जरिए प्रकृति और मानव के बीच में बढ़ती दूरियां मिटाना संभव है। --- वरिष्ठ साहित्यकार कृष्ण लाल गिरधर का जन्म 12 सितंबर 1961 को रोहतक के निकटवर्ती गांव मदीना में मनोहर लाल और श्रीमती मीराबाई के घर में हुआ। पिता एक दुकानदार थे। गांव में ही खेतों खलियान के बीच प्रकृति की गोद में बचपन बीता और उनकी प्राथमिक शिक्षा दीक्षा हुई। राजकीय उच्च विद्यालय मदीना से उन्होने मैट्रिक पास की और सन् 1977 में हिंदू कॉलेज रोहतक में दाखिला लिया। सन 1981 में बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद सर छज्जू राम कॉलेज हिसार में बी.एड.में दाखिला लिया। सन 1982 में बतौर गणित अध्यापक के रुप में राज्यकी सीनियर सेंकैंडरी स्कूल निदाना, साल 2002 में राजकीय सीनियर सेकैंडरी स्कूल सांपला और साल 2005 से सितंबर 2019(सेवानिवृत्ति) तक जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान मदीना में कार्यरत रहे। करीब बीस साल उन्होंने अंग्रेजी मास्टर ट्रेनर के रुप में कार्य किया। अध्यापन के दौरान उन्होंने एम.ए.(पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन), एम.ए.(अंग्रेजी) और एमएड. की परीक्षाएं महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी रोहतक से उत्तीर्ण की। दरअसल उनका परिवार भारत विभाजन के बाद अमृतसर और उसके बाद कुरुक्षेत्र से जिला रोहतक में आकर बस गया। उनके परिवार में किसी प्रकार का कोई साहित्यिक माहौल नहीं था। सन 1978 में कॉलेज समय के दौरान उन्होंने पहली कविता लिखी और आज के अवसर और हिंदू कॉलेज रोहतक की तरफ से उन्होंने गॉड कॉलेज रोहतक में काव्य पाठ प्रतियोगिता में भी हिस्सा लिया। अपने जीवन की एक घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि जब वह अंग्रेजी परीक्षा की तैयारी अपने गांव के पास नहर पर स्थित एक ही बड़े शीशम के पेड़ के नीचे बैठकर अध्ययन कर रहा था और उसमें जॉन मिल्टन द्वारा अंग्रेजी की कविता ऑनहिज ब्लाइंडनेस पढ़ रहा था, कि अचानक लगभग 5 फीट लंबा कोबरा सांप उनके सामने से गुजरा और सीधा नहर से पानी पीकर के सूर्य नमस्कार किया और वापस उनके आगे से ही गुजर गया, लेकिन उसने उसे कोई हानि पहुंचाई। बकौल कृष्ण लाल, यहां से उन्हें एक संदेश मिला, जो कि जॉन मिल्टन ने भी कहा कि वह अंधा हो गया है, लेकिन परमात्मा ने उन्हें लेखन कार्य दिया है वह तो उन्हें करना ही पड़ेगा, वरना आगे उसके दरबार में वह क्या जवाब देगा। इस प्रकार उन्हें अंदर सेही एक प्रेरणा मिली और फिर कलम उठाकर लिखना शुरू कर दिया। उन्होंने बताया कि सबसे पहले सन 1995 में राज्य शिक्षक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद गुरुग्राम के जनसंख्या विभाग में मेरी दो हिंदी कविताएं प्रकाशित हुई। मार्च 2007 में 'मैं विकलांग नहीं हूं' शीर्षक कविता प्रकाशित हुई। इसके बाद घरेलू परस्थितियों के कारण वह 10 साल तक साहित्यिक रचनाओं में योगदान नहीं कर पाए। साहित्यिक साधना में उनकी रचनाओं का फोकस पर्यावरण, सामाजिक कुरीतियों, मनुष्य का व्यवहार, मानवता, दया, सत्य, प्रेम करूणा आदि के भाव रहे है। अभी तक लगभग 60 हिंदी कविताएं प्रकाशित है और 100 कविताओं के कविता संग्रह पर काम जारी है। हरियाणवी भाषा में भी उन्होंने करीब 67 कविताएं लिखी, जिनमें से एक है 'शहर मह ताई'' जो कि पर्यावरण पर कुठाराघात है, जो एनसीईआरटी गुड़गांव में भाषा प्रशिक्षण सेमिनार में सन 2005 में प्रस्तुत की गई। वरिष्ठ साहित्यकार कृष्ण लाल गिरधर ने बताया कि सन् 2017 से 2024 तक उन्होंने अंग्रेजी शायरी लिखना शुरु किया और अंग्रेजी भाषा में उनकी किताबे प्रकाशित हुई। साहित्य साधना के अलावा कृष्ण लाल सामाजिक सेवा में भी सक्रीय है, जिन्होंने कोराना काल के दौरान अज्ञात किडनी रोगी को स्वैच्छिक प्लाज्मा दान करके मानवीय भाव को प्रकट किया और समाज को जागरुकता के लिए महामारी के दौर में प्रकृति पोषण और मनुष्य और प्रकृति को लेकर कविताएं भी लिखी। भारत विकास परिषद जैसी सामाजिक संस्थाओं से जुड़े कृष्णलाल के लेख, कविताएं और विभिन्न पत्रिकाओं में भी प्रकाश होते आ रहे हैं। 
साहित्य की स्थिति चुनौतीपूर्ण 
साहित्य को समाज का दर्पण बताते हुए साहित्यकार कृष्ण लाल का कहना है कि आज के बदलते परिवेश में साहित्य की स्थिति चुनौतीपूर्ण है, जिसमें पारिवारिक दबाव एवं एकल परिवार दवाब के कारण खासतौर से युवाओं में साहित्य के प्रति रुचि बेहद कम होना चिंता का विषय है। उनका मानना है कि यदि युवाओं को साहित्य के प्रति प्रेरित न किया गया, तो आने वाले समय में हम अपनी संस्कृति एवं धरोहर को लुप्त कर लेंगे। इसलिए युवा पीढ़ी का साहित्य और संस्कृति के प्रति मार्गदर्शन के लिए समय-समय पर साहित्य उत्सव का आयोजन करना जरूरी है। खासतौर से युवाओं को साहित्य सर्जन के लिए प्रेरित करने के लिए प्राइमरी स्कूल स्तर पर ही अथक प्रयास करने होंगे, जिसमें कक्षा अध्यापकों का कला और साहित्यिक सकारात्मक रुझान होना अति आवश्यक है। यह भी सत्य है कि आज साहित्य लेखन के स्तर पर भी गिरावट आई है और इसके मूल कारण स्कूलों कॉलेजों में साहित्यिक गोष्ठियों की कमी आई है। इस आधुनिक युग में साहित्य के प्रति पठन-पाठ का कम होने का भी एक मुख्य कारण है कि आजकल की युवा शक्ति की आधुनिक अंधी दौड़ भी है। वहीं हर कोई गूगल या अन्य आधुनिक डिवाइसेज पर विश्वास करके पुस्तकों के पढ़ने में कम रुचि दिखा रहा है। दूसरा मुख्य कारण यह भी है कि आजकल की जो भी चलचित्र या एपिसोड युवा पीढ़ी नेटफ्लिक्स या अन्य प्रोग्राम पर देखती है, उसमें साहित्यिक रुचि को ना दिखाकर केवल मनोरंजन के साधन तक सीमित कर दिया है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
शिक्षाविद् एवं साहित्यकार कृष्णलाल गिरधर की प्रकाशित अंग्रेजी भाषा की छह पुस्तकों में फिलिंग फीलिंग फेदर्स, लाईफ( लिव, लव, लाफ़), लव एंड पीस तथा मी एंड माई अनसैड फिलिंग्स सुर्खियों में हैं। वहीं उनकी दो पुस्तकें नेचर नचर्स और मैन एंड नेचर करोना काल के दौरान लिखी गई, जबकि दो पुस्तकें महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक से संबन्धित प्रकाशित हुई हैं। इसके अलावा उन्होंने हिंदी साहित्य में करीब सौ कविताएं लिखी, जिनका संग्रह जारी है। वहीं उन्होंने 67 कविताएं हरयिाणवी भाषणा में लिखी हैं। उनके हिंदी व अंग्रेजी लेख तथा कविताएं सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुई हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
हिंदी और अंग्रेजी साहित्यकार कृष्ण लाल गिरधर को उनकी पुस्तक पर मेघालय के तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मलिक से राज्यपाल पुरस्कार मिल चुका है। वहीं उन्हें अंतर्राष्ट्रीयश् अंग्रेजी साहित्य के करीब 75 सम्मान पत्र (सर्टिफिकेट) मिले हुए हैं। हरियाणा साहित्य अकादमी से भी उन्हें उनकी पुस्तक मी एंड माई अनसैड फिलिंग्स के लिए पुरस्कृत किया जा चुका है। हरियाणा राज्य शिक्षण एवं प्रशिक्षण परिषद गुरुग्राम भी उन्हें कई प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित कर चुका है। जबकि महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक से भी उन्हें कई पुरस्कार के रुप में सम्मनित किये जा चुके हैं। 
31Mar-2025

सोमवार, 24 मार्च 2025

चौपाल: सामाजिक और संस्कृतिक विरासत को संजोने में फिल्मों की अहम भूमिका: विजय तंवर

फिल्मों, धारावाहिक और वेबसीरिज के निर्देशक के रुप में बनाई पहचान 
       व्यक्तिगत परिचय 
नाम: विजय तंवर 
जन्मतिथि: 15 दिसंबर 1965 
जन्म स्थान: गांव करोला, जिला गुरुग्राम(हरियाणा)
शिक्षा: पोस्ट ग्रेजुएट, फिल्म मेकिंग कोर्स 
संप्रत्ति: फिल्म सहायक निर्देश, कलाकार 
संपर्क: गुडगांव (हरियाणा), मोबा: 9873915125 
BY-ओ.पी. पाल 
भारत एक संस्कृतिक देश है, जिसमें हरियाणा की समृद्ध संस्कृति का अपना अलग महत्व है, जिसकी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अलख जगाने में कलाकार, गीतकार, साहित्यकार और लेखक अपनी अपनी विधाओं में साधना करते आ रहे हैं। ऐसे ही फिल्म जगत में अपनी कला के माध्यम से समाज को अपनी संस्कृति को सर्वोपरि रखने का संदेश देते आ रहे कलाकार विजय तंवर ने अभिनेता के साथ फिल्म निर्देशक की भूमिका में लोकप्रियता हासिल की है। हिंदी, हरियाणवी और क्षेत्रीय फिल्मों के अलावा धारावाहिक व वेबसीरिज के निर्माण में जुटे फिल्म निर्देशक विजय तंवर ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कुछ ऐसे तथ्यों को भी उजागर किया है, जिसमें फिल्मों के क्षेत्र में कला और संस्कृति के आधार पर निर्मित फिल्मों से सामाजिक विरासत को संजोना संभव है। --
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रियाणा की लोक कला और संस्कृति को नया आयाम देने में जुटे कलाकार विजय तंवर का जन्म 15 दिसंबर 1965 को गुरुग्राम जिले के गाँव करोला में जगदीश सिंह तंवर और श्रीमती भगवती देवी के घर में हुआ। उनका परिवार की पृष्ठभूमि डिफेंस से संबन्धित है, जिनके पिता भारतीय नौसेना में थे। पिता के साथ रहते हुए ही उन्होंने अपनी स्कूली और कालेज की शिक्षा मुंबई में ही ग्रहण की। उनके परिवार में उन्हें अभिनय, रंगमंच या संगीत का माहौल तो कतई नहीं मिला, लेकिन वह स्कूल में अपनी म्यूजिक क्लास के दौरान थोड़ा गाना बजाना कर लिया करते थे। इसी कारण स्कूल के वार्षिकोत्सव में सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भागीदारी करने लगे। स्कूल मे कविता लेखन, निबंध लेखन, ड्रामा क्लास के माध्यम से उनमें लोक कला के प्रति रुझान सामने आया। बकौल विजय तंवर, जब वह कक्षा सात में थे, तो उन्होंने युगल गीत प्रतियोगिता मे भाग लिया और जबकि उसका साथ समारोह के दिन गायब रहा, जिसके कारण सबकुछ गाना और अभिनय उन्हें ही करना पड़ा। हालांकि इस गाने में उनकी भूमिका केवल इंजन की सिटी बजाने की थी, लेकिन 'गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है' को उसने जैसे तैसे पूरा किया, लेकिन तालियों की गड़-गडगडाहट ने उन्हें गाने की बीच हुई गलतियों को भी भुला दिया। इसके लिए उनकी सराहना हुई, जिससे उनका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था और उसके बाद उन्होंने धीरे धीरे स्कूल की सभी सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदारी करके कुछ न कुछ कला का प्रदर्शन करना शुरु कर दिया। भले ही वह कविता लेखन हो या निबंध अथवा फिर डांस या नाटक सभी में वह बढ़चढ़कर हिस्सा लेते रहे। इसी उत्साह और कला के बढ़ते प्रभाव के कारण उन्होंने सड़क सुरक्षा, पेट्रोल टीम, एनसीसी टीम, तैराकी आदि क्षेत्र में स्कूल स्तर से कालेज स्तर तक अपने हुनर से अव्वल रहकर सभी के दिलों में जगह बनाई। उन्होंने बताया कि दसवी कक्षा के दौरान मुंबई में उन्होंने तीन फिल्मों त्रिशूल, नास्तिक, रॉकी इत्यादि की शूटिंग को देखा तो उनके मन में काम करने का जज्बा पैदा हुआ। खासकर शूटिंग के दौरान सभी प्रमुख अभिनेता समेत सभी कलाकार निर्देशक से लेकर तकनीकी टीम को सम्मान देते हैं और निर्देशक के इशारे पर काम करते हैं। उन्होंने सम्मान की खातिर फिल्म जगत में किसी भी ऐसी भूमिका के लिए उत्सुकता महसूस की। इसलिए वह फिल्म निर्देशकों और प्रोड्यृशरों के दफ्तरों के चक्कर काटकर उनसे मेलजोल बढ़ाने लगा। फिल्म क्षेत्र में काम करने के लिए ही विजय तंवर ने सामाजिक कार्य में प्रोफेशनल मास्टर डिग्री, फिल्मोग्राफी, फिल्म मेकिंग में कोर्स भी किये हैं। 
ऐसे मिली मंजिल 
फिल्म निर्देशक विजय तंवर ने बताया कि उनके ग्रेज्युएशन के दौरान कुछ प्रोड्यूशर डायरेक्टरों से संबन्ध मजबूत हुए, तो उन्हें सहायक निर्देशक के रुप में काम मिल गया। हालांकि उन्होंने ऐसा कोई कोर्स तो नहीं किया था, इसलिए भरोसा जमाने के लिए चार पांच साल लग गये। जैसे तैसे उन्हें पहली फिल्म मिली तो उनका आत्मविश्वास बढ़ा और उसके बाद पांच फिल्मों में काम किया, जिनमें दो रिलीज हो पाई। उनके सहायक निर्देशन में पहली रिलीज होने वाली फिल्म 'अधूरी सुहाग रात' थी, जिसके मुख्य किरदार मोनेश बहल, अमिता नाजिया और भारत भूषण थे। जबकि उनकी दूसरी फिल्म मोहब्बत मेरा नसीब थी, जिसमें अनुपम खेर, सुरेश ओबरॉय, मोनेश बहल, पुनीत इसार आदि रहे। इसके बाद बागी औरत फिल्म में उन्होंने काम किया। ग्रेज्युएशन के बाद उन्होंने दूरदर्शन पर 52 एपिसोड का सीरियल 'दास्ताने हातिम ताई' किया, जिसमें प्रेम चोपड़ा, शमी कपूर, सुजीत, परीक्षित साहनी, विश्वजीत आदि दिग्गज कलाकार शामिल रहे। उन्होंने इसके बाद एसोसिएट डायरेक्टर के रुप में तीन और सीरियल किये, जिनमें द ग्रेट मौघाल्स में इजहार अहमद, 'स्पेशल टास्क फोर्स' में शहबाज खान ने मुख्य किरदार की भूमिका निभाई। इसके अलावा उन्हें एक हरियाणवी फिल्म चोरी नट की में काम करने का मौका मिला, जिसमें अर्जुन, जैक गौड आदि थे। तंवर ने हिंदी फिल्म गुड्डू में भी विजय तंवर को निर्देशन के रुप में काम करने का मौका मिला, जिसमें उनके साथ मुख्य किरदार निभाने वाले कलाकार शाहरुख खान, मनीषा कोइराला, नवीन निश्चल, मुकेश खन्ना जैसे दिग्गज कलाकारो शामिल रहे। फिल्मों में वॉलीवुड कलाकारों के साथ काम करने का मौका देने वाले निर्देशक कमल साहनी, राजन जौहरी, राकेश कश्यप और नरेश गुप्ता आदि के सहयोग व उनके प्रोत्साहन को वह कभी नहीं भूल सकते। 
पुरस्कार व सम्मान 
कलाकार विजय तंवर के निर्देशन में समाज में बालिकाओं की स्वीकार्यता पर आधारित निर्मित लघु फिल्म 'दिशा' को 25 से भी ज्यादा फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कार मिल चुके हैं। फिल्म निर्देशक की भूमिका निभाने वाले विजय तंवर को मिले प्रमुख पुरस्कारों में दादा साहब फाल्के अवार्ड के अलावा मराठवाडा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल मुंबई, काशी इंडियन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, गंगटोक इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, एशियन टेलेंट इंटरनेशन फिल्म फेस्टिवल, रील्स इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, सेवन सिस्टर नॉर्थईस्ट इंटर नेशनल फिल्म फेस्टिवल, उमरेड इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, जलगांव इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल तथा रोशनी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आदि में पुरस्कार मिले हैं। 
संस्कृति में विद्यमान है कला की अभिव्यक्ति 
फिल्म कलाकार विजय तंवर का आधुनिक युग में कला और संस्कृति पर पड़ते प्रभाव को लेकर कहना है कि भारत देश एक बहुत विविध और उन्नत संस्कृति के साथ आधुनिक तकनीक विकास के साथ एक सयुंक्त राज्य है। युवाओ को लोक कला संगीत, अभिनय संस्कृति के प्रेरित करना चाहिए, जिसके लिए वह भी करते आ रहे हैं। कला के माध्यम से ही संस्कृति हमारे जीवन में संगीत, नृत्य, नाटक, चित्रकला, सिनेमा, फोटोग्राफी रुप में अभिव्यक्ति पाती है और भारत संस्कृति में सत्य शिव सुन्दरम की भावना विद्यमान है। इस युग में युवाओ को लोक कला, संगीत, अभिनय, रंगमंच जैसी संस्कृति के लिए प्रेरित करना आवश्यक है, जो समाजिक परिदृश्य को संरक्षित या मजबूत करने के लिए महत्वपूर्ण है। यही नहीं किसी भी देश के विकास के लिए भी कला का एक अलग महत्व है, जो एक साझा दृष्टिकोण और एक निश्चित लक्ष्य का दर्शाता है। उनका कहना है कि इस आधुनिक युग में सोशल मीडिया के जरिए भी युवाओं को अपनी संस्किृति से जुड़े रहना चाहिए, इसके लिए लेखकों, कलाकारों, गीतकारों और साहित्यकारों को बदलते परिवेश के आधार पर अपनी विद्याओं को प्रस्तुत करने की जरुरत है। भले ही नए तकनीक संचार के उपयोग के कारण युवा अधिक ध्यान दे रहे हों, लेकिन अपनी संस्कृति के मान सम्मान से ही वे अपनी सामाजिक विरासत को संजोए रख सकते हैं। 
24Mar-2025

सोमवार, 17 मार्च 2025

साक्षात्कार: समाज सेवा के भाव से साहित्य संवर्धन आवश्यक: संतोष गर्ग

साहित्य और समाज में अपने ऐतिहासिक योगदान से मिली पहचान 
          व्यक्तिगत परिचय 
नाम: श्रीमती संतोष गर्ग 
जन्मतिथि: 12 नवंबर 1960 
जन्म स्थान: बुढ़लाड़ा (पंजाब) 
शिक्षा: बीए, योगा व नेच्युरोपैथी डिप्लोमा, फैशन डिजाइन 
संप्रत्ति: कवयित्री, लघुकथाकार, बाल उपन्यासकार, कहानीकार, मैनेजिंग डायरेक्टर(एनजी डायग्नोस्टिकस, पंचकूला) 
संपर्क: एससीएफ-59, सेक्टर-6. पंचकूला (हरियाणा),मो:9356532838, 7986432838,  
ईमेल: santoshgarg1211@gmail.com 
BY-ओ.पी. पाल 
सामाजिक और संस्कृतिक प्रासांगिकता के हित में साहित्य जगत में अहम माना गया है। मूर्धन्य विद्वान भी साहित्य की समाज का दर्पण के रुप में व्याख्या करते रहे हैं। ऐसी एक प्रख्यात कवयित्री, लघुकथाकार, बाल उपन्यासकार और कहानीकार के रुप में डा. संतोष गर्ग ने अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य को एक नया आयाम देकर साहित्य जगत में लोकप्रियता हासिल की है। उनकी साहित्यिक रचनाओं में नारी सशक्तिकरण, आध्यात्म, समाज सुधार और बाल साहित्य जैसे विषयों का समावेश शामिल है। उन्होंने हिंदी, पंजाबी, हरियाणवी और अंग्रेज़ी भाषाओं की ज्ञाता संतोष गर्ग ने सामाजिक क्षेत्र में अपनी सक्रीयता से समाज को एक सकारात्मक संदेश पहुंचाने का प्रयास किया। साहित्य और समाज में अपने ऐतिहासिक रुप से योगदान दे रही महिला साहित्यकार डा. संतोष गर्ग ने अपने साहित्यिक और सामाजिक सफर को लेकर हरिभूमि संवाददाता से बातचीत में कई ऐसे पहुलुओं को उजागर किया है, जिसमें उनका मानना है कि साहित्य संवर्धन समाज सेवा के भाव से हो तो उसका संस्कृति और संस्कारों को जीवंत रखने के लिए ज्यादा महत्व है। 
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हिंदी साहित्य के क्षेत्र में कवयित्री, लघुकथाकार, बाल उपन्यासकार, कहानीकार के रुप में लोकप्रिय डा. संतोष गर्ग जन्म 12 नवंबर 1960 को पंजाब के बुढ़लाड़ा के एक संयुक्त परिवार में रूलदू राम सिंगला और श्रीमती देवकी देवी के घर में हुआ। परिवार में पिताजी की चाची श्रीमती वीरो देवी और उनकी सगी दादी श्रीमती लक्ष्मी देवी और दादा इन्द्र मल के अलावा पिताजी के साथ बचपन बीता। संतोष की पढ़ाई लिखाई वहीं पर हुई। एक संयुक्तत परवार में उन्होंने अपनी मां व दादी को चरखे पर सूत कातना, उसको रंग देना और फिर दरी बनाना, चारपाइयां बनाना, दूध बिलोना और फिर उसका घी बनाने जैसे काम करते देखा, जिन्हें देखकर वह भी ऐसे कामों में माहिर हो गई। परिवार में किसी तरह का साहित्य या सांस्कृतिक माहौल नहीं था। बकौल संतोष गर्ग, उनकी शादी 17 साल की उम्र में 23 अप्रैल 1978 को हरियाणा के कलायत गांव में उनकी शादी हुई हो गई थी। शादी से पहले वह सिर्फ 11वीं कक्षा पास की थी और बाकी उच्च शिक्षा शादी के बाद ग्रहण की। उनका बचपन ठाट-बाट से बीता। बचपन में उन्हें कोई साहित्यिक माहौल तो नहीं मिला, लेकिन वह स्कूल के मंचों पर 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे बड़े कार्यक्रमों में गीत बोलती थी। आचार्य जूनापीठाधीश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरी जी की शिष्या एवं महिला साहित्यकार संतोष ने बताया कि शादी के बाद कलायत गांव से वह अपने पति के साथ हिसार आकर रहने लगी, जहां उनके पति की हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार में प्रोफेसर के रुप में नई नई नौकरी लगी थी, वहीं से वे अब प्रोफेसर एंड हैड पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। उनके दोनों बच्चों का जन्म भी हिसार में ही हुआ। बाद में उन्होंने एम.सी कॉलोनी में अपना घर खरीदा और किन्हीं कारणों से अढ़ाई साल बाद अर्बन एस्टेट टू में नया घर लिया और वह साल 2012 से अपने बच्चों के साथ मोहाली में रहने रह रही हैं। हरेक क्षेत्र की तरह साहित्यिक सफर में उतार चढ़ाव सभी के सामने आते हैं। उनके सामने भी बच्चों के भविष्य को लेकर चुनौतियां थी और परिवार की जिम्मेदारियां थी। इसके बावजूद साहित्यिक कार्यक्रमों में भाग लेती रही। हिंदी व पंजाबी के अलावा हरियाणवी भाषा में भी उन्होंने कुछ रचनाएं लिखी हैं। अपने साहित्यिक सफर में अब तक हिंदी भाषा में निरन्तर कवि गोष्ठियों, कवि सम्मेलनों का आयोजन भी कराती आ कर रही हैं। वह अखिल भारतीय साहित्य परिषद में हरियाणा प्रांत की उपाध्यक्ष, और राष्ट्रीय कवि संगम में 2016 से ट्राई सिटी चंडीगढ़ के अध्यक्ष पद पर लगातार सक्रिय हैं। वहीं एसएस फाउंडेशन द्वारा संचालित, राष्ट्रीय संवेदनाओं को समर्पित मनांजलि मंच संस्था की संस्थापक अध्यक्ष के रुप में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, उनकी किताबें, कपड़े, त्यौहार मनाना, खाने- पीने का सामान बांटना और कोराना काल में मानव सेवा जैसी सामाजिक और रचनात्मक गतिविधियों में भी सक्रीय हैं। वे एक व्यवसायिक कंपनी में प्रबंध निदेशक हैं, जो फैशन डिजाइनर होने के साथ योगा व नेच्युरोपैथी चिकित्सक भी हैं। वे ऐसी साहित्यकार और समाजसेवी हैं जिन्होंने चारों कुंभ, चारों धाम, कन्याकुमारी, गंगा सागर, कैलाश मानसरोवर, यूरोप, स्विट्जरलैंड आदि देश विदेश की यात्रा की और उनकी आकाशवाणी और दूरदर्शन पर सरकारी कवि सम्मेलनों में भी सक्रीय भागीदारी रही है। 
यहां से शुरु हुआ साहित्यिक सफर 
हिसार में रहते हुए वह अमृता प्रीतम, शिव कुमार बटालवी और ओशो की पुस्तकें पढ़ा करती थी। कई बार अपने मन के भाव भी डायरी में उतार लेती। पहली बार चोरी से लिखें भावों की डायरी फाड़ दी थी उसका मुझे बहुत अफसोस है। एक तरह से उनकी मेरी साहित्यिक यात्रा 1988 में आरंभ हुई, जब उनकी लिखी हुई दो कविताएं एक समाचार पत्र में पहली बार प्रकाशित हुई। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था। चूंकि पंजाब में शुद्ध पंजाबी बोली जाती है, जिसके कारण उनकी बोलने की भाषा में कुछ पंजाबी के तो कुछ हिंदी के और कुछ शब्द हरियाणवी के भी आते हैं। रही बात हिंदी लिखने की, तो इसका श्रेय हिसार के साहित्यकारों को है। यह उनका सौभाग्य रहा कि उन्हें सर्वोदय भवन में हिसार के राज्यकवि प्रोफेसर उदयभानु हंस, डॉ राधेश्याम शुक्ल, सतीश कौशिक, राजेंद्र प्रसाद जैन, मदन गोपाल शास्त्री, प्रदीप नील जैसे विद्वानों को सुनने का अवसर मिलता रहा। इस बात का अहसान उन्हें भी नहीं हुआ कि कब हिंदी उनकी प्रिय भाषा बन गई। साहित्य जगत में उनकी सभी प्रकाशित पुस्तकें हिंदी भाषा में ही हैं और बहुत से सांझा संकलनों में भी रचनाएं प्रकाशित हैं। साल 1995 में उनकी पहली कृति के रुप में काव्य संग्रह 'दिल मुट्ठी में' प्रकाशित हुआ। फिर उन्होंने लघु कथा संग्रह और अन्य विधाओं में पुस्तकें लिखना शुरु किया। उन्होंने बताया कि उनका काव्य संग्रह सूख गए नैनन के आँसू’ और डायरी के पन्ने ‘मनांजलि’ हरियाणा साहित्य अकादमी सौजन्य से प्रकाशित हुआ। साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने गद्य व पद्य दोनों विधाओं में ही रचनाएं लिखी हैं। मसलन कविताओं के अलावा लघु कथाए, कहानी, उपन्यास और बाल साहित्य भी लिखा है। उनके लेखन का फोकस ज्यादातर प्रेम, प्यार, विरहा, अध्यात्म, सेवा, संस्कारों पर रहा है। हालाकिं समाजिक सरोकार के मुद्दों पर भी कलम चलाई है, लेकिन राजनीति पर बहुत कम लिखा है। 
साहित्य की स्थिति बेहतर 
आधुनिक युग में साहित्य के सामने चुनौतियों को लेकर डा. संतोष गर्ग का कहना है कि वर्तमान में साहित्य की स्थिति बहुत अच्छी है। लिखना, पढ़ना, प्रकाशित होना और मीडिया द्वारा, गूगल पर सब काम अच्छा हो रहा है। हालांकि मोबाइल और इंटरनेट का इस्तेमाल ज्यादा हो रहा है। यदि हम पुरातन साहित्य से तुलना करेंगे, तो आज के दौरे में समय का अभाव है, इसलिए पहले की तरह मोटे ग्रंथ पढ़ना आसान नहीं, आज पाठक लघुता तलाश करते हैं। उनका कहना है कि साहित्य के पाठक कम नहीं, बल्कि ज्यादा बढ़ रहे हैं। सोशल मीडिया पर बहुत साहित्य लिखा जा रहा है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। उनका सवालिया निशान यहां भी कि यदि हम साहित्य के पाठकों को कम आंकते हैं, पुस्तक मेलों में पहले की अपेक्षा भीड़ क्यों बढ़ रही है? लेकिन यह भी भूल जाते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक की सारी पुस्तकें आपकी जेब के मोबाइल में कैद हैं। जहां तक युवा पीढ़ी में साहित्य के प्रति रुचि कम होने का सवाल है, ऐसा उन्हें नहीं लगता। बदलते परिवेश में परिवर्तन को देखते हुए रचनाओं को साहित्य के स्वरुप को भी बदलना जरुरी है। मसलन युवा पीढ़ी को साहित्य के प्रति आकर्षित करने के लिए लंबी रचनाओं के बजाए लघु और उनके अर्थ को समझने वाली सामग्री का इस्तेमाल करना चाहिए। जहां तक संस्कृति और संस्कार का सवाल है वह बचपन में बच्चों को मोबाइल पकड़ाने से नहीं आएंगे, उसके लिए शिक्षा संस्कार के लिए समय देना आवश्यक है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
वरिष्ठ महिला साहित्यकार संतोष गर्ग की प्रकाशित 19 पुस्तकों में चार काव्य संग्रह-दिल मुट्ठी में, सूख गए नैनन के आँसू, शब्दों को विश्राम कहाँ और बाल काव्य संग्रह 'कागज़ की नाव', एक बाल उपन्यास नानी, निक्की और कुंभ’ व बाल काव्य संकलन काव्य संकलन ' दुनिया गोल मटोल' के अलावा 'हर मन तिरंगा, पिता होते हैं पर्वत से, कोरोना काल कवियों के झरोखे, लघुकथाएं अपनी-अपनी सोच, लघुकथा संग्रह 'लघुता कुछ कहती है' सुर्खिंयों में हैं। वहीं उन्होंने अध्यात्म साहित्य पर 'यात्रा गुरू के गाँव की’, ‘मानस मोती’, ‘पंचामृत’, 'सहस्त्रमानक’, 'संवाद' और सनातन-वार्ता नामक पुस्तकें भी पाठकों के सामने दी हैं और पांच काव्य संकलनों का लेखन संपादन कार्य स्वयं किया है। 
सम्मान व पुरस्कार 
हरियाणा साहित्य अकादमी से आध्यात्म पुस्तक सनातन-वार्ता के लिए श्रेष्ठ कृति पुरस्कार के अलावा संतोष गर्ग 'तोषी' को महादेवी वर्मा कविता गौरव सम्मान, साहित्य सम्मेलन शताब्दी सम्मान, गुरु रविंद्र नाथ टैगोर सम्मान, लघुकथा स्वर्ण सम्मान, पावरफुल वूमेन आफ हरियाणा अवार्ड, वूमैन एम्पावरमैंटअवार्ड, कोरोना योद्धा सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। वहीं उन्हें जर्मनी में भारतीय प्रधान कौंसुलेट ऑफ फ्रैंकफर्ट और दुबई में भारतीय प्रधान कौंसुलेट जनरल द्वारा भी सम्मान पाने का गौरव हासिल हुआ है। इसके अलावा उन्हें विभिन्न साहित्यिक, सांस्कृतिक और विभिन्न समारोह में भी सम्मान मिला है। हरियाणा राज्य परिवहन की बसों में राज्य तथा राज्य से बाहर जीवन पर्यंत निःशुल्क यात्रा सुविधा (लाइफ टाइम फ्री ट्रैबलिंग) की सुविधा भी उन्हें दी गई है। 
17Mar-2025

सोमवार, 10 मार्च 2025

चौपाल: संस्कृति और संस्कार संवर्धन में कला की अहम भूमिका: प्रदीप जेलपुरिया

मिमिक्री कलाकार ने एंकरिंग, कविता लेखन और रागनी गायन गायन में भी बनाई पहचान 
     व्यक्तिगत परिचय 
नाम: प्रदीप जेलपुरिया 
जन्मतिथि: 29 दिसंबर 1983 
जन्म स्थान: बहादुरगढ़, जिला झज्जर(हरियाणा)
शिक्षा: एम हिंदी, बीकॉम 
संप्रत्ति: मिमिक्री, रागनी गायन, एंकरिंग, कविता लेखन एवं सिपाही (जेल) 
संपर्क: शक्तिनगर, झज्जर रोड, बहादुरगढ़ (हरियाणा) मोबा.9467687200 
By--ओ.पी. पाल 
रियाणा की समृद्ध संस्कृति को संजोए रखने के लिए लोक कलाकार अलग अलग विधाओं में अलख जगाते आ रहे सूबे के लोक कलाकारों और गीतकारों ने देश में ही नहीं, वरन् विदेशों में भी अपनी छाप छोड़ी है। ऐसे ही विख्यात कलाकर प्रदीप जेलपुरिया ने मिमिक्री और मंच संचालन के साथ अपने गीतों की बेहतरीन प्रस्तुतियों से लोकप्रियता हासिल की है, वहीं वह जेल विभाग में सेवा देते हुए कैदियों को भी संस्कृति और संस्कारों की सखी दे रहे हैं। मिमिक्री के साथ रागनी गायन, एंकरिंग, कविता लेखन के माध्यम से सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और खेल जैसे समारोह में एंकरिंग की भूमिका में बुलंदियां छू रहे कलाकार प्रदीप जेलपुरिया ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान अपनी कला के सफर में कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिसमें अपनी संस्कृति का संवर्धन करना उनकी कला की प्राथमिकता है।
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रियाणा के विख्यात मिमिक्री कलाकार प्रदीप जेलपुरिया का जन्म जिला झज्जर के शहर बहादुरगढ़ में 29 दिसंबर 1983 को दलीप सिंह और श्रीमती कृष्णा देवी के घर में हुआ। उनके पिता एक सरकारी स्कूल में अध्यापक और माता गृहणी के रुप में परिवार की जिम्मेदारी संभालते रहे हैं। परिवार में भले ही साहित्यिक या सांस्कृतिक माहौल न हो, लेकिन उनकी माता पड़ोसियों की जिस अंदाज में मिमिक्री करती थी, उसका प्रभाव बचपन में ही प्रदीप पर पड़ने लगा। इसी कारण उन्हें बचपन में ही अभिनय जैसी कला में अभिरुचि हो गई थी और वह एक्टरों की मिमिक्री करने लगे। प्रदीप की प्राथमिक शिक्षा सरकारी स्कूल एवं माध्यमिक शिक्षा जवाहर नवोदय विद्यालय रेवाडी से हुई। जबकि बीए दिल्ली विश्वविद्यालय के अंबेडकर कालेज और एमए महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक से उत्तीर्ण की। बकौल प्रदीप जेलपुरिया, वह स्कूली शिक्षा के दौरान नाटकों में मंचन और मिमिक्री करने लगे। कक्षा पांच में उनका चयन जवाहर नवोदय विद्यालय रेवाड़ी में हो गया। जब वह सातवीं कक्षा में थे तो उन्होंने पहली बार अपने प्रिंसिपल की मिमिक्री की, इस पर प्रिंसिपल ने उसे डांटने या पीटने के बजाय इस कला के लिए प्रोत्साहित किया। एक तरह से उनकी मिमिक्री कला की शुरुआत भी स्कूली शिक्षा के दौरान ही शुरु हुई। वह स्कूल के कार्यक्रमों में नाटकों में भी अभिनय मंचन और मिमिक्री करने लगे। उन्होंने बताया कि एमडीयू में एमए करने के दौरान एक आईपीएस अधिकारी ओपी नरवाल का सानिध्य मिला, जिनके प्रोत्साहन से पुलिस प्रशिक्षण केंद्र में आयोजित आल इंडिया पुलिस गेम(घुडसवारी) में उन्होंने बतौर एंकर की भूमिका निभाई। उनकी उपलब्धियों को देखकर ग्रैपलिंग गेम में कल्चरल अफेयर्स का निदेशक बनाया गया, जिसके तहत उन्होंने ग्रैपलिंग गेमों में कई वर्ष एंकरिंग की। इसके अलावा उन्होंने झज्जर बहादुरगढ़, रोहतक, रेवाडी, फरीदाबाद एवं नूहं के गीता महोत्सव में भी एंकरिंग की। वहीं 2019 में वह जैनेन्द्र जी के संपर्क में आया, जिन्होंने मंच पर बोलने का सलीके का ज्ञान दिया, जिन्हें उन्होंने अपना गुरु मानकर नए आयाम स्थापित किये। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वहीं डीआईपीआरओ दिनेश शर्मा ने पहली बार गीता महोत्सव झज्जर में एंकरिंग करने का अवसर दिया। रागनी के लोक कलाकार विकास पासोरिया से प्रभावित होकर उन्होंने विभिन्न मंचों पर एंकरिंग के साथ हरियाणवी संस्कृति संजोए रखने के लिए मुहिम छेड़ी और हरियाणा रागनी का मंचन भी किया और हरियाणवी गाने '70 का हरयिाणा' में भी भूमिका निभाई। गत वर्ष 2024 में विशाखापटनम, राजीवगांधी स्टेडियम दिल्ली, छत्रसाल स्टेडियम दिल्ली, एवं तालकटोरा स्टेडियम दिल्ली में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर एंकरिंग एवं हरियाणवी गानों से उन्होंने सबका मन मोहा है। हरियाणवी बोली और संस्कृति का राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाम रोशन करना उनकी प्राथमिकता है। जीवन में उतार चढ़ाव आते हैं, लेकिन उन्होंने उस हालातों में भी हौंसला नहीं खोया, जब कुछ साल पहले पैरालिसिस के कारण उनका चेहरा खराब होने लगा था। उनकी विभिन्न कलाओं का फोकस हरियाणवी संस्कृति और संस्कारों पर रहता है। उनकी पहली कविता बाबू मेरा भगवान है यू ट्यूब पर एक चैनल पर लोकप्रिय हुई। सरकार की तरफ से सुरजकुंड मेले आयोजित छोटी चौपाल में भी उन्होंने एंकरिंग की है। 
आज के आधुनिक युग में लोक कला और संस्कृति में गिरावट को लेकर प्रदीप जेलपुरिया का कहना है कि हरियाणवी कला और मां बोली का अपना अलग ही महत्व है। लेकिन आज की युवा पीढ़ी मोबाइल की वजह से भड़काऊ चलचित्रों की वजह से अपनी हरियाणवी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं, जिसका समाज पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। समाज और अपनी संस्कृति की भलाई के लिए कलाकारों और लेखकों को अपने गानों या लेखन में फूहड़ता परोसने के बजाय शिक्षाप्रद और ज्ञानवर्धक सामग्री प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति से जोड़े रखने के लिए स्कूल व कालेज स्तर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए प्रेरित करने की आवश्यकता है। वहीं म्हारी संस्कृति महारा स्वाभिमान जैसी संस्थाओं तथा नए कलाकारों को संस्कृति के प्रति सरकार को भी प्रेरित करके प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है, ताकि समाज को सकारात्मक संदेश देकर संस्कृति का संवर्धन किया जा सके। 
कैदियों को दे रहे हैं संस्कृति की सीख 
कलाकार प्रदीप जेलपुरिया का साल 2003 में जेल विभाग में सिपाही के पद पर चयन हुआ। जेल वार्डर (सिपाही) के पद पर नौकरी के बावजूद उनकी कलाकारी का जज्बा जीवित रहा। जेल के माहौल में रहकर उन्होंने कविता लिखना शुरू किया और जेल में कैदियों को संस्कृति और संस्कार देने का काम शुरु कर दिया। विभाग ने भी उनकी कला को देखते हुए उनकी ड्यूटी बतौर म्यूजिक इंचार्ज जेल रोहतक में कर दी। फिलहाल उनकी ड्यूटी मेवात म्यूजिक इंचार्ज जेल है। उन्होंने ड्यूटी के साथ अवकाश वाले दिन बहुत से कैदियों के अपने स्टूडियो में कार्यक्रम भी शुरु किये। वहीं विभाग के अधिकारियों की अनुमति से वह समाज को नई दिशा देने के मकसद से संस्कृति के लिए हरियाणवी में कार्यक्रम भी करते आ रहे हैं। पुलिस विभाग द्वारा 'शान मेवात प्रोग्राम' के तहत 5 जिलों में तिरंगा यात्रा आयोजित की गई, झज्जर, रेवाड़ी, रोहतक, भिवानी और नूह सभी जिलों के उपायुक्तों ने एप्रिसिएशन लेटर दिए, जिसके बाद आकाशवाणी हिसार में उनका साक्षात्कार प्रसारित किया गया।
पुरस्कार व सम्मान 
अभिनय, गीतों और लेखन के साथ मिमिक्री की कला में विख्यात होते कलाकार प्रदीप जेलपुरिया को कालेज शिक्षा के दौरान दिल्ली यूनिवर्सिटी आंबेडकर कॉलेज से सर्वश्रेष्ठ मिमिक्री अवार्ड से सम्मानित किया गया था। वहीं उन्हें हरियाणा गौरव पुरस्कार, झज्जर गौरव पुरस्कार के अलावा गृह विभाग के एसीएस विजय वर्धन और जेल महानिदेशक भी पुरस्कार से नवाज चुके हैं। इसके अलावा उन्हें विभिन्न मंचों से अनेक पुरस्कार व सम्मान मिले हैं। 
-10Mar-2025

बुधवार, 5 मार्च 2025

साक्षात्कार: साहित्य और संस्कृति से मिलती है समाज को नई दिशा: डा. कंवल नयन कपूर

साहित्य और संस्कृति क्षेत्र में हासिल की लोकप्रियता
     व्यक्तिगत परिचय 
नाम: डा. कंवल नयन कपूर 
जन्मतिथि: 09 अगस्त 1944 
जन्म स्थान: रावलपिंडी (पश्चिम पाकिस्तान) 
शिक्षा: बी.ए(ऑनर्स व संस्कृत), एमए(हिन्दी), पीएच.डी.
संप्रत्ति: सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष, एमएलएन महाविद्यालय यमुनानगर, लेखक, साहित्यकार 
सपंर्क/पता: 6, प्रोफेसर कालोनी, यमुनानगर, मोबा. 9896033903/01732-226333 
BY-ओ.पी. पाल 
साहित्य और संस्कृति में सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर बेबाक लेखन करने के मकसद से साहित्यकार अपनी विभिन्न विधाओं में साधना करके समाज में व्याप्त विसंगतियों को पाटने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे ही लेखकों में शुमार वरिष्ठ साहित्यकार डा. कंवल नयन कपूर अपने रचना संसार में साहित्य के साथ सांसकृतिक क्षेत्र में भी अपनी लेखनी चलाते आ रहे हैं। खासबात है कि शिक्षाविद् होने के बावजूद उन्होंने साहित्यिक कृति के शोध से ही पीएचडी की उपाधि हासिल की। उन्होंने गद्य और पद्य दोनों विधाओं में बाल मन से लेकर महिलाओं और बुजर्गो को अपने रचनाओं में समाहित करके कहानी, लघुकथा, नाटक, कविता और आध्यात्मिक कृतियों के साथ चित्रकारी को अंजाम देकर लोकप्रियता हासिल की है। अपने साहित्यिक और सांस्कृति क्षेत्र के सफर को लेकर वरिष्ठ साहित्यकार डा. कंवल नयन कपूर ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में ऐसे अनछुए पहलुओं का जिक्र किया है, जिसमें समाज साहित्य और संस्कृति से समाज को नई दिशा देना संभव है। 
रियाणा के साहित्य एवं सांस्कृतिक जगत में लोकप्रिय हुए वरिष्ठ साहित्यकार डा. कंवल नयन कपूर का जन्म 9 अगस्त 1944 को रावल पिंडी (पश्चिमी पाकिसतान) के गांव जंड में नाथूराम व श्रीमती मीराबाई के घर में हुआ। भारत विभाजन के बाद उनका पूरा परिवार संभवत: दिल्ली स्थांनांतरित हो गया था। विभाजन के दौरान हिंसाओं की त्रासदी की कहानियों की गूंज में उनका बचपन बीता और अमृतसर, लुधियाना, कुरुक्षेत्र के विस्थापित कैम्पों की हाय-तौबा की काली छाया ने उनके शिशु-मन को ऐसे छुआ कि अन्तर्मुखता, अकेलापन और एकान्त से स्थायी मित्रता हो गई। इसके बाद उनका पूरा परिवार संभवत: 1949 में दिल्ली स्थांनांतरित हो गया था, जहां उनके परिवार को स्थायी निवास मिला। दिल्ली में उन्होंने आई.ए.आर.आई. पूसा के सरकारी स्कूल से हायर सैकेण्डरी तक की शिक्षा ग्रहण की, गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज देवनगर और इवनिंग इन्स्टीट्यूट ऑफ हायर स्टज़िज, दिल्ली विश्व विद्यालय से हिन्दी में एम.ए. की शिक्षा ग्रहण की, लेकिन परिवार में आर्थिक अभाव निरंतर चलती रही। उन्होंने आगे की शिक्षा छोड़ यमुनानगर (हरियाणा) के एम.एल.एन. महाविद्यालय में प्राध्यापन कार्य आरंभ किया। उन्होंने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से 'नई कहानी' विषय में शोध स्वरूप पी.एच.डी. उपाधि प्राप्त की। अगस्त 2004 में इसी महाविद्यालय से विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्ति हुई। परिवारिक और शैक्षणिक संस्थाओं के माहौल ने उनमें साहित्यिक संस्कारों का बीजारोपण किया। जबकि घर में माता भगवान कृष्ण की भक्त होने के कारण भजन और गीत गुनगुनाती रहती थी, तो वहीं उनके बड़े भाई उन दिनों भजन और देवी की भेंटे लिखकर गाते थे। मसलन साहित्यिक रुझान उनका अपने घर परिवार से ही हुआ ओर वह भी बचपन से ही तुकबंदी करने लगे थे। उनका साहित्य एवं चित्र कला के प्रति शुरु से ही विशेष झुकाव रहा है। इसी कारण वह स्कूल-कॉलेज में मंचित कार्यक्रमों में गायन, नाटक आदि में निरन्तर प्रतिभागिता करते रहे। उच्च शिक्षा के दौरान वह पंजाबी के प्रख्यात कवि-चिन्तक डॉ. हरिभजन सिंह और डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल, डॉ. महीप सिंह, डॉ. दशरथ ओझा, डॉ. नरेन्द्र मोहन आदि विद्वान साहित्यकारों के संसर्ग से साहित्य लेखन करने लगे, जिनकी कविताएं-लेख आदि स्कूल कॉलेज पत्रिकाओं के अलावा बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ छपती रही। बकौल डा. कमल नयन, वह अपने आप को कवि और नाटककार मानते हैं, यद्यपि मूर्तिकला, स्थापत्य कला, पेंटिंग, वुडकार्विंग व क्ले माडलिंग, इंटीरियर डेकोरेशन जैसी विधाओं में भी उन्होंने काम किया है।
लोक कला क्षेत्र का भी हुनर 
डा. कपूर जब वह आठवीं कक्षा में थे तो उन्होंने अंग्रेजी ग्रामर की पुस्तक पर पहली कविता लिखी। सन् 1965 से 1967 तक संचेतन कहानी की ध्वज वाहक पत्रिका 'संचेतना' से सहायक सम्पादक के रूप में काम किया और दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'जाह्नवी' में उनका किशोर उपन्यास 'भारत सम्राट' धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ। सन् 1976 में पहला कविता संग्रह और 1978 में पहला 'लघु नाटक' संग्रह प्रकाशित हुआ। खासबात है कि इसी दौरान नाट्य मंचन, पेंटिंग, क्ले मॉडलिंग, स्थापत्य कला आदि में भी उन्होंने बहुत काम किया गया, जिसमें मंच संचालन, संगीत आदि में उनकी विशेष रुचि रही। नाटक, कहानी, कविता, समीक्षा, निबन्ध लेखन में निरन्तर प्रवृत रहे। उन्होंने बताया कि उनके द्वारा लिखित छोटे-बड़े नाटकों के चार सौ से अधिक मंचन हो चुके हैं, जिनमें पंजाबी, उर्दू आदि का अनुवादित रूप भी शामिल है। सन् 1994 से डॉ. कपूर हिन्दी की लम्बी कविताओं के मंचन में लगे हैं और लगभग बीस लम्बी कविताओं का 'रंगपाठ' मंचित कर चुके हैं। उनकी लम्बी कविता 'शिशु होकर' एवं 'धन्यवाद कान्हा' का मंचन साहित्य-जगत में विशेष चर्चित विषय रहा है। डा. कपूर विभिन्न शैक्षणिक, साहित्यिक, कला और सांस्कृतिक संस्थाओं में अलग अलग पदों पर रहे हैं। वे हरियाणा के अलावा अन्य राज्यों में विभिन्न साहित्यिक और सांस्कृतिक सम्मेलनों में भी भागीदारी करते रहे हैं। 
आधुनिक युग में साहित्य 
आज के आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति पर डा. कंवल नयन कपूर का कहना है कि यह सत्य है कि हर रचनाकार अपने रचनाकर्म में आजीवन संलग्न रहते हुए भी अपनी श्रेष्ठ रचना की प्रतीक्षा में ही प्रस्थान पा जाता है। लेकिन इस सोशल मीडिया और इंटरनेट के युग में बढ़ते बाजारीकरण ने हर क्षेत्र को प्रभावित किया है। लेखक भी बदलते परिवेश में अपनी रचनाओं में बदलाव करके लोकप्रियता हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन साहित्य और संस्कृति जगत में यह अच्छा संकेत नहीं है। खासकर आज की युवा पीढ़ी के साहित्य और संस्कृति के प्रति कम होती रुचि सामाजिक दृष्टि से चिंताजनक है, जिसका समाज पर प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए युवा पीढ़ी को साहित्य और संस्कृति से जोड़े रखने के लिए लेखकों, साहित्यकारों, कवियों और लोक कलाकारों को अपनी संस्कृति और सभ्यता को सर्वोपरि रखते हुए अपनी कलम चलाना आवश्यक है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
वरिष्ठ साहित्यकार एवं लेखक डा. कंवल नयन कपूर की प्रकाशित पुस्तकों में प्रमुख रुप से नाटक: यात्रा और यात्रा, कथा लंका दहन की, कथा लंका दहन की, जल घर, रक्त जीवी, आओ मेरे साथ,पंछी तीर्थम, शव पूजा, प्रकृति पर्व और छाया पुरुष जैसी कृतियां सुर्खियों में हैं। जबकि उपन्यास: भारत सम्राट, ठहरी हुई नदी, कविता संग्रह: बौणियां किरणां और उदास गुलमोहर, एक समन्दर मेरे अन्दर, किस्सा कमली दा,मूर्ख होने का सुख, शब्दों के पार, अजब कालखंड, संपत्ति और गीत-अगीत प्रकाशित हुई है। उनके अध्यात्मिक पुस्तकों में इदं शरीरं, श्री दुर्गा, उपनिषद् श्री भी शामिल है, जिनका काव्य रुपांतरण, संपादन के साथ हिंदी, अंग्रेजी और पंजाबी में अनुवाद भी किया है। इसके अलावा एकांकी यात्रा-दो, हम (पंजाबी के प्रतिनिधि) एकांकी तथा हम (उड़िया के प्रतिनिधि) एकांकी के अलावा दर्शन चला हंस शून्य की ओर भी उनकी कृतियों का हिस्सा है। 
पुरस्कार व सम्मान 
साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए डा. कंवल नयन कपूर को उनकी कृति 'जल घर' के लिए हरियाणा साहित्य अकादमी का सम्मान भी मिला है। वहीं उन्हें राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्त्राब्दी सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। वहीं साल 1995 में तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने भी सम्मान से अलंकृत किया। इसके अलावा हरियाणा के भाषा विभाग, हिंदी साहित्य सम्मेलन, इंडियन ऑर्टस चंडीगढ़ तथा अनेक साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं से अनेक सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। 
03Mar-2025

सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

चौपाल: हास्य कला में भी छिपे हैं समाजोत्थान के संदेश: रेणू दूहन

अभिनय और हास्य व्यंग्य कला में हासिल की लोकप्रियता 
    व्यक्तिगत परिचय 
नाम: रेणू दूहन 
जन्मतिथि: 17 अक्टूबर 1995 
जन्म स्थान: गांव पेटवाड़, जिला हिसार 
शिक्षा:बीए. एमए(हिंदी), डीईपीएड 
संप्रत्ति: हास्य कलाकार एवं मिमिक्री आर्टिस्ट 
संपर्क: रोहतक रोड़, जींद(हरियाणा), मोबा.-8396968657
 BY--ओ.पी. पाल 
 हरियाणा की लोक कला एवं संस्कृति को जीवंत रखने की दिशा में लेखक, लोक कलाकार, गीतकार अलग अलग विधाओं में अपनी कलाओं की अलख अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जगाने में जुटे हुए हैं। ऐसे ही कलाकारों में युवा महिला कलाकार रेणू दूहन ने सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों और संस्कृति के साथ सामयिक घटनाओं पर आधारित लेखन तथा लोक कला के प्रदर्शन से खासकर युवा पीढ़ी को नई दिशा देने का प्रयास करती आ रही है। कविता, निबंध लेखन के साथ अभिनय, हास्य व्यंग्य तथा मिमिक्री कलाओं से पहचान बनाने वाली कलाकार रेणू दूहन ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कुछ ऐसे पहलुओं का जिक्र किया है, जिसमें उन्होंने समाज कल्याण और संस्कृति के संवर्धन में कलाकारों की अहम भूमिका निभाने का संदेश दिया है। 
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हरियाणवी लोक कलाकार रेणू दूहन का जन्म 17 अक्टूबर 1995 को हिसार जिले के गांव पेटवाड़ में रमेश दूहन और श्रीमती वीना दूहन के घर में हुआ। जब वह पांच साल की थी, तो उनका परिवार जींद आकर रहने लगा। उनके घर में किसी प्रकार की साहित्य या सांस्कृतिक माहौल नहीं था। उनके पिता और भाई व्यापार करते हैं। जबकि उनका भाई पिछले नौ साल से दिल्ली में रहते हैं। परिवार में माता पिता ने तीन भाई बहनो में उसका भी एक लड़के की तरह पालन पोषण किया। किसी बात में या कुछ भी करने से पहले उसे कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वह एक लड़की है। उनके परिवार में कभी किसी तरह का साहित्य या सांस्कृतिक माहौल नहीं रहा और वह अकेली ही लोक कला के क्षेत्र में काम करने लगी। उन्हें बचपन से ही लोक कला के क्षेत्र में एक्टिंग में अभिरुचि रही, लेकिन उनके परिवार वालों को उनका कला के क्षेत्र में भागीदारी करना अच्छा नहीं लगा। हालांकि उनकी माता उन्हें प्रोत्साहित करती रही और इसके बाद भाई ने भी उनका कला के क्षेत्र में उसका सहयोग करना शुरु कर दिया। बकौल रेणू दूहन, बचपन से ही उन्हें मंच का बहुत शौंक था कि वह मंच पर आए और कुछ सुनाए। स्कूली शिक्षा में हर शनिवार को होने वाली बाल सभा में होने वाले कार्यक्रम में उन्हें एंकर बनाया जाता था। उन्होंने कई बार कविता, निबंध लेखन, नाटक, नृत्य आदि में भागीदारी की। स्कूल समय में एक निबंध लेखन प्रतियोगिता में राज्य स्तर पर उसे प्रथम स्थान मिला। जब वह कालेज में बीए कर रही थी तो उनकी कला को देखकर कई शिक्षिकाओं ने उन्हें इस दिशा में प्रोत्साहित करके मदद की। जब वह ग्रेजुएशन कर रही थी, तो रत्नावली फैस्टिवल में अपने कॉलेज से से वही जाती थी और अपनी लिखी कविता प्रतियोगिता भी होती थी। उसने भी कविता लिखने का मन बनाया और अपने चाचा की मदद से कविता लिखी, जो राज्य स्तर पर द्वितीय स्थान पर रही। इससे उनका लोक साहित्य के प्रति आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था। इसी से प्रेरित होकर साल 2015 से उसने थोडा थोड़ा लिखना शुरु किया। इसके बाद से उसकी माता और परिजन भी खुश हुए और उसे प्रोत्साहित करना शुरु कर दिया। रेणू दूहन हास्य व्यंग्य और कविताएं भी लिखती हैं तो उनके इस हास्य में भी समाज के लिए कुछ न कुछ ऐसे संदेश छिपे होते हैं जो नशे की तरफ जाते आज के युवाओं को जागरुक करके उन्हें सही राहत दिखाने का काम कर सकते हैं। उनके लेखन, अभिनय या फिर हास्य व्यंग्य का फोकस समाज को सकारात्मक ऊर्जा देने की दिशा में ही रहा है, ताकि खासकर युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति की मूल जड़ो से जुड़ी रहे। इस आधुनिक युग में लोक कला और संस्कृति के सामने आ रही चुनौतियों को लेकर उनका कहना है कि यदि हम समाज के लिए अच्छा नहीं कर रहे या लिख रहे हैं तो हमारी लेखनी का कोई फायदा नहीं। उनका मानना है कि हमे अपने समाज के लिए अच्छा लिखना चाहिए, चाहे हम कोई वीडियो बना रहे हो या कोई नाटक कर रहे हों, वह ऐसा है जिसे एक बच्चा भी देख पाए ओर जवान व बुजुर्ग भी। हमारा कंटेंट ऐसा होना चाहिए जो हम एक नहीं, बल्कि पूरा परिवार एक साथ मिलकर देख सके। कई बार आज का युवा लोकप्रिय होने के लिए कुछ भी करने को तैयार है तो कि बहुत गलत है।
ऐसे मिली करियर को मंजिल 
हास्य कलाकार रेणू दूहन ने बताया कि अभिनय के क्षेत्र में वह पहले से ही अभिरुचि रखती थी। उनकी पहली यूट्रयूब वीडियो बहन भाई का प्यार रक्षा बंधन को लेकर थी, जिसमें उसने बहन का किरदार निभाया। ऐसे वीडियो में वह लगातार बहन की ही भूमिका में अभिनय कर रही हैं। जैसे जैसे वह कुरुक्षेत्र के रत्नावली, नुक्कड नाटक आदि में हिस्सा लेती रही तो उनकी इस क्षेत्र में पहचान बनने लगी। जब उनका पहला स्टेंडअप कॉमेडी शो था, तो स्टेज एप ओटीटी के लिए तो वो मुझे जिंदगी में याद रहेगा। दरअसल गर्मी का समय में इस शो की शूटिंग में 16 घंटे लगे। हम लोग निरंतर शो में लगे रहे तो वह संभव हो पाया। सौभाग्य से यह शो उनके ही घर हुआ तो माता पिता भी प्रसन्न हुए। यह मेहनत रंग लाई और शो बहुत अच्छा गया। उनका जब वह शो रिलीज हुआ तो 3-4 दिन में ही उसे लाखों लोगों ने देखा। ऐसे में इससे बढ़कर खुशी का कोई ठिकाना नहीं हो सकता था, क्योंकि चौतरफा रेणू दूहन की लोकप्रिता बढ़ने से महसूस हुआ कि उनकी मेहनत रंग ले आई है। फिर बस चलते चले गये और इस कला को आगे बढ़ाने के लिए पीछे मुड़कर नहीं देखा। 
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आस्ट्रेलिया में किया प्रदर्शन 
हास्य कलाकार एवं अभिनेत्री के रुप में रेणू दूहन ने साल 2019 में आस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में भी अपनी कला का प्रदर्शन करके हरियाणवी संस्कृति की अलख जगाई है। वहीं उन्होंने जहां हरियाणवी फिल्म बहु काले में बहन का किरदार निभाया है। तो उन्होंने वेबसीरिज फिल्मों डिजिटल ताई, गौंरू ऑफ हंसीपुर के अलावा उन्होंने स्टेज एप पर करीब एक दर्शन स्टेंडअप कॉमेडी शो किये और वह पिछले छह साल से यूट्यूब चैनल पर काम कर रही हैं। पिछले पांच साल से वे अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव कुरुक्षेत्र में भी अपनी कला के रंग बिखेर रही हैं। थिएटर कार्यशाला के अलावा उन्होंने यूथ फेस्टिवल हिस्सेदारी करती रही हैं और कालेज में कार्यशाला आयोजित करके नई प्रतिभाओं को भी लोक कला व संस्कृति के प्रति उन्हें प्रशिक्षण देने का काम किया है। 
पुरस्कार 
रेणू दूहन को उनकी कला की विधाओं के लिए स्कूल व कालेज की शिक्षा के दौरान से ही कविता व चुटकले आदि लिखने और नुक्कड नाटक करने, रंगमंच के लिए राज्य स्तर पर दो बार चुटकलों के लिए प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अभिनय के क्षेत्र में रत्नावली फैस्टिवल में राज्य स्तर पर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार से नवाजा गया। निबंध प्रतियोगिता में राज्य स्तर पर प्रथम पुरस्कार और कविता लेखन में द्वितीय व तृतीय पुरस्कार भी हासिल किये हैं। 
24Feb-2025

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

साक्षात्कार:सामाजिक विसंगतियों को दूर करने का माध्यम साहित्य: प्रो. शामलाल कौशल

हास्य व्यंग्य, काव्य और लघु कथाओं से समाज को दे रहे सकारात्मक संदेश 
      व्यक्तिगत परिचय 
नाम: प्रो. शामलाल कौशल 
जन्मतिथि: 9 दिसंबर 1943 
जन्म स्थान: डेरा ग़ाज़ी खान(पाकिस्तान) 
शिक्षा: एम.ए. (अर्थशास्त्र, अंग्रेज़ी तथाराजनीति शास्त्र) 
संप्रत्ति: सेवानिवृत्त प्रोफेसर( अध्यक्ष, अर्थशास्त्र), राजकीय महाविद्यालय, गोहाना सोनीपत( हरियाणा)। 
सम्पर्कः मकान न.975-बी/20, राजीव निवास, शक्ति नगर, ग्रीन रोड, रोहतक। मोबा-मे. 09416359045 
BY-ओ.पी. पाल 
साहित्य जगत में समाज को नई दिशा देने के मकसद से ही लेखक साहित्य साधना करते आ रहे हैं। मूर्घन्य विद्वानों ने साहित्य को समाज का दर्पण माना है। इसलिए लेखक और साहित्यकार अपनी विभिन्न विधाओं में समाजिक सरोकार के मुद्दों पर साहित्य साधना करके समाज को अपनी संस्कृति और सभ्यता के प्रति सकारात्मक संदेश देते आ रहे हैं। हरियाणा की समृद्ध संस्कृति के संवर्धन में जुटे शिक्षाविद् एवं लेखक शामलाल कौशल भी सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर आलेख, काव्य, हास्य व्यंग्य और लघु कथओं जैसी विधाओं से अपने रचना संसार को बढ़ाकर साहित्य और समाज को एक दूसरे के पूरक होने की सार्थकता को सिद्ध करने में जुटे हैं। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. शामलाल कौशल ने अपने साहित्यिक सफर को लेकर कई ऐसे पहलुओं को उजागर किया, जिसमें आजकल सामाजिक विसंगतियों के कारण दूर होती सभ्यता, संस्कृति, नैतिकता और बड़ों के प्रति आदर जैसी परंपराओं को जीवंत करने में साहित्य एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का माध्यम है। 
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हरियाणा में रोहतक के वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. शामलाल कौशल का जन्म 9 दिसंबर 1943 को पाकिस्तान के डेरा ग़ाज़ी खान में एक साधारण परिवार में तोताराम तथा श्रीमती यशोदा बाई के घर में हुआ था। जब वह बहुत छोटे थे तो भारत के विभाजन के समय शोर शराबा होने लगा था और अलग से पाकिस्तान बनने पर हिंदू परिवार दंगाईयों के भय से अलग अलग स्थानों से होते हुए हिंदुस्तान की तरफ पलायन करने लगे। जहां उन्हें याद है वे पाकिस्तान से अपने माता पिता और भाई बहन और अन्य लोगों के साथ रेलगाड़ी की छत पर सवारी करके हिंदुस्तान पहुंचे। आखिरकार हमारा परिवार रेलगाड़ी से पंजाब मे संगरूर शहर में उतरा, जहां रेलवे स्टेशन के बार लगे एक हैंडपंप का पानी पीकर कई दिन के बाद अपनी प्यास बुझाई। उनके परिवार के अन्य सदस्य तथा रिश्तेदार भी वहां पहुंच गए, तो उन्हें दो-तीन कैंपो में बारी-बारी कुछ दिन के लिए रखा गया और बाद में हमें संगरूर की सलीम खान की कोठी में रहने के लिए जगह दी गई, 40- या 50 परिवारों ने शरण ली। हालांकि शरणार्थियों की जिस तरह देखभाल की जा सकती थी वह यथासंभव की गई। मसलन हिंदुस्तान आने के बाद प्रारंभिक दिन बहुत कठिन और संघर्ष के बीच बीते। लोगों ने कोई न कोई काम करके बड़ी मेहनत की और हिंदुस्तान आकर अपने आपको सभी परिवारों ने पैरों पर खड़े होकर पालन पोषण किया। इसी संघर्षशील जिंदगी के बीच साल 1953 में पिता के निधन के कारण पढ़ाई करना बहुत मुश्किल था, लेकिन फिर भी उन्होंने किसी तरह संगरूर के राज हाई स्कूल से मैट्रिक पास की। गवर्नमेंट रणबीर कॉलेज से बीए पास किया, जहां उन्हें अर्थशास्त्र पढ़ाने वाले शिक्षक तथा समाजसेवी प्रोफेसर मुंशी राम वर्मा ने उनके लिए एक अभिभावक की भूमिका निभाई और हरसंभव सभी तरह की सहायता करके मार्गदर्शन किया। प्रोफेसर मुंशीराम वर्मा की वजह से ही वह इस मुकाम पर हैं। बाद में उन्होंने पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला से एमए (अर्थशास्त्र) उत्तीर्ण की। प्रो. वर्मा के लिए उनका एहसान वह सारी उम्र नहीं भूल सकते, जिसके बाद 1966 में हरियाणा में गोहाना में हरियाणा वार हीरोज मेमोरियल कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर के तौर पर उनकी नौकरी लगी। 1981 में यही कॉलेज सरकारी कॉलेज बन गया और यही से करीब 36 साल अध्यापन करने के बाद 2001 में वह सेवानिवृत्ति हुए, कॉलेज के विभिन्न प्राचार्यों, प्रोफेसरों तथा विद्यार्थियों से खूब मान सम्मान मिला। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि जीवन की इस यात्रा में जब कभी भी उन्हें किसी कठिनाई का सामना करना पड़ा, तो परमात्मा ने किसी न किसी को अपना प्रतिनिधि भेज कर उनकी मुश्किल आसान कराई। बकौल शामलाल कौशल, हमारे परिवार में किसी की भी साहित्य में रुचि नहीं रही है। परिवार में शायद वह अकेले सदस्य थे, जिन्हें बचपन से ही अखबार पढ़ने की रुचि रही है। वह अपने कॉलेज की पत्रिका का संस्कृत खंड का स्टूडेंट एडिटर थे और जब वह प्रोफेसर बने, तो अपने कॉलेज की पत्रिका में भी उनके लेख भी नियमित तौर पर लेख प्रकाशित होते रहते थे। बचपन से ही उनका व्यवहार हंसी मजाक का रहा है। इसलए छात्र जीवन में वह साथियों को चुटकुले सुना कर पहले उनका ध्यान आकर्षित करता था और फिर पढ़ता था। मसलन मन में जो आता है वह लिख लेते थे और इसी कारण अब लिखने की आदत बन गई है। बेशक वह कविताएं, कहानियाँ तथा लघु कथाएं लिखते हैं, लेकिन उनका फोकस लेख तथा हास्य व्यंग्य लिखने में रहता है, जिसमें वह सामयिक तथा सामाजिक विषयों को तरजीह सर्वोपरि रखते हैं। हास्य व्यंग्य लिखने में उनका मकसद किसी का व्यक्तिगत उपवास करना नहीं,बल्कि किसी विषय विशेष को लेकर वह हंसी-हंसी में भ्रष्टाचार, पुरस्कारों का मिलना, सामाजिक रिश्ते, राजनेताओं का व्यवहार जैसी समस्याओं का विश्लेषण करके समाज को सकारात्मक संदेश दने का प्रयास करते हैं। 
ऐसे बने साहित्यकार 
प्रो. शामलाल ने बताया कि सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने लेखन कार्य शुरु किया, जिसके लिए उन्हें डॉ. श्याम शाखा शाम, प्रख्यात साहित्यकार, समाजसेवी, शिक्षक डॉ मधुकांत जैसे कई ऐसे मूर्घन्य विद्वान और साहित्यकारों की प्रेरणा और मार्गदर्शन में साहित्य संवर्धन में कई विधाओं उन्होंने अपने रचना संसार को लगातार दिशा दी। इसमें उन्होंने सबसे पहले एक हास्य व्यंग्य लिखा, जिसके बाद लघु कथाएं लिखनी शुरू की। लेकिन साहित्य के क्षेत्र में उन्हें बड़े बड़े साहित्यकारों से परिचय करवाने का बहुमूल्य कार्य प्रख्यात साहित्यकार डॉ. मधु कांत ने करवाया, जिनसे आज तक बहुत मान सम्मान मिल रहा है। जो उन्हें लिखी गई रचनाएं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित कराने के लिए भेजने के लिए प्रोत्साहित करते आ रहे हैं। खास बात ये भी है कि सेवानिवृत्ति के बाद साहित्य लेखन से ही उनका समय बहुत आसानी से गुजर जाता है और वरिष्ठ साहित्यकारों से मुलाकात और कार्यक्रमों में हिस्सेदारी से उनके ज्ञान में वृद्धि तथा सम्मान मिल रहा है। 
आधुनिक युग में अच्छे साहित्य का अभाव 
वरिष्ठ साहित्यकार प्रोफेसर शामलाल कौशल का इस आधुनिक युग में साहित्य के सामने आई चुनौतियों को लेकर कहना है। साहित्य समाज का दर्पण है, अगर समाज में अच्छे संस्कार होंगे, तो संस्कृति होगी। मसलन साहित्य का प्रभाव समाज पर पड़ता है और समाज भी साहित्य को प्रभावित करता है। लेकिन आज के समय में अच्छे साहित्य का अभाव इसलिए पनपा है कि हमारा समाज भी आजकल सभ्यता, संस्कृति, नैतिकता और बड़ों के प्रति आदर व ईमानदारी से दूर होते जा रहे हैं। हालांकि जिन्हें साहित्य का जुनून है वह अभी साहित्य साधना में जुटे हैं, लेकिन भौतिकतावाद के इस युग में साहित्य के प्रति पाठकों की रुचि पहले के मुकाबले में बहुत कम हो रही हैं। युवा पीढ़ी में साहित्य के प्रति रूझान न होने का कारण वह अपने करियर को लेकर इंटरनेट का ज्यादा सहारा ले रहे हैं। समाज के ताने बाने को संस्कृति के अनुरुप संजोने के लिए युवा पीढ़ी को साहित्य के लिए प्रेरित करने की बहुत जरुरत है। इसके लिए शिक्षण संस्थानों में साहित्य से संबंधित सामग्री पाठ्यक्रमों में शामिल करके शिक्षक साहित्य की विभिन्न विधाओं के बारे में छात्रों को संस्कारी बना सकते है। युवाओं को साहित्य संबन्धित प्रतियोगिताओं में शामिल करके उन्हें प्रोत्साहित किया जा सकता है। वहीं साहित्य में आई गिरावट का कारण शॉर्टकट के रास्ते लोकप्रियता हासिल करने के प्रयास में लेखकों को भी बदलते सामाजिक परिवेश के अनुसार साहित्य संवर्धन करने की आवश्यकता है, तभी समाज और संस्कृति को जीवंत रखने की क्ल्पना की जा सकती है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. शामलाल कौशल की प्रकाशित 15 पुस्तकों में लेख संग्रह-जीना एक कला है तथा खुश कैसे रहें, काव्य संग्रह-यही तो जिंदगी है, हास्य व्यंग्य संग्रह-यह दुनिया पागलखाना, कुवारों का संडे बाजार व आज्ञाकारी पति होने के फायदे, लघुकथा संग्रह-अगर मां होती, हास्य व्यंग्य-ऐ बेशर्मी? तेरी सदा ही जय हो, लघु कविता संग्रह- जिनकी नहीं होती मां, अभी तो मैं जवान हूं और मेरे हीरो मेरे मां बाप, कहानी संग्रह-पिंजरे के पंछी सुर्खियों में हैं। वहीं संयुक्त लेखक डा. मधुकांत के साथ काव्य संग्रह- ऐ! जिन्दगी! तथा लेख संग्रह- तनाव ही तनाव भी उनकी कृतियों में शामिल है। 
पुरस्कार व सम्मान 
शिक्षाविद् एवं साहित्यकार प्रो. शामलाल कौशल को साहित्य साधना के लिए अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। हरियाणा साहित्य अकादमी ने उन्हें हास्य व्यंग्य संग्रह 'आज्ञाकारी पति होने के फायदे' को सर्वश्रेष्ठ कृति सम्मान से अलंकृत किया। वहीं लाल बहादुर शास्त्री 'साहित्य रत्न' पुरस्कार, निर्मला स्मृति आजीवन हिंदी साहित्य साधना सम्मान के अलवा दिल्ली, हरियाणा, यूपी आदि विभिन्न राज्यों की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा अनेक बार सम्मान देकर पुरस्कृत कर चुकी हैं। 
17Feb-2025