सोमवार, 5 अगस्त 2024

चौपाल:हरियाणवी लोक संस्कृति के संवर्धन में जुटे गीतकार समुन्द्र सिंह

गीत, रागनी, भजन, गजल, कथा लेखन में भी बनाई पहचान 
        व्यक्तिगत परिचय 
नाम: समुन्द्र सिंह पंवार 
जन्मतिथि: 06 जुलाई 1976 
जन्मस्थान: गांव बहलबा, रोहतक (हरियाणा) 
शिक्षा: स्नातक, स्नातकोत्तर (हिन्दी) एवं आशुलिपि लेखक 
संप्रति: गीतकार, लेखक, सम्पादक, साहित्य-रचना इ पत्रिका 
सम्पर्क:गांव बहलबा, रोहतक (हरियाणा)। मोबा.9812879328/8685995928, ईमेल-samundersingh328@gmail.com 
By-ओ.पी. पाल 
रियाणा की लोक कला और संस्कृति को समृद्ध बनाए रखने के लिए लोक कलाकारों, गीतकारों, गायकों ने अपनी कला के हुनर से देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी डंका बजाया है। लोक कला के क्षेत्र में सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर ऐसे ही समर्पित गीतकार एवं लेखक समुन्द्र सिंह पवार ने हरियाणवी लोक संस्कृति के संवर्धन के लिए अपनी पहचान बनाई है। उन्होंने कलाकारों व गायकों के लिए समाज में फैली कुरीतियों के साथ ही किसान, जवान, मजदूर, और महिलाओं की समस्याओं को उजागर करने वाले गीत, रागनी, भजन, गजल और कथाओं जैसे लेखन से लोक कला के क्षेत्र में अहम योगदान दिया है। एक गीतकार एवं लेखक के रुप में लोक कला-साहित्य के सफर को लेकर समुन्द्र सिंह ने हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान कई ऐसे पहलुओं का जिक्र किया है, जिसमें उनका मकसद समाज को अपनी संस्कृति से जुड़े रहने के लिए सकारात्मक संदेश रहा है। ---- 
रियाणा लोक गीतकार और लेखक समुन्द्र सिंह पंवार का जन्म 06 जुलाई 1976 को रोहतक जिले के गांव बहलबा में जबर सिंह और श्रीमती राजबाला देवी के घर में हुआ। उनके साधारण एवं कृषक परिवार का गीत, संगीत, अभिनय और साहित्य जैसी लोक कलाओं से कोई भी नाता नहीं था। लेकिन समुन्द्र सिंह को बचपन से ही भजन और रागनी सुनने और लिखने का शौक रहा है। उनका यह शौंक परिजनों को रास नहीं आया और कहते थे कि यह लाइन अच्छे लोगों का काम नहीं और न ही हमें यह शोभा देता है, क्योंकि गाने बजाने का काम मिरासियों का काम होता है। परिजन उसे हमेशा पढ़ाई पर ध्यान देने की दुहाई देते रहे। समुन्द्र सिंह ने अपनी आरम्भिक शिक्षा अपने गांव के राजकीय विद्यालय से प्राप्त की और बाहरवीं जाट स्कूल रोहतक से उतीर्ण की। उन्होंने स्नातक की डिग्री राजकीय महाविद्यालय महम से हासिल की। लोककला व साहित्य के प्रति विशेष रुचि के चलते उन्होंने महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी रोहतक से हिंदी में स्नातकोत्तर किया। उन्होंने बताया कि 1996 में उनकी लिखी गई रागनियों की ‘ना जोबन बसका’ शीर्षक से पहली कैसेट रिलीज़ हुई, जिसे श्रोताओं ने बहुत ही पसंद किया। इसलिए उनका ऐसा आत्मविश्वास बढ़ा कि उन्होंने उसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनके ‘ताऊ देवीलाल की श्रद्धाजलि’ नामक कैसेट ने तो उन्हें लेखक और गीतकार के रुप में पूरे हरियाणा में लोकप्रिय कर दिया। उनके गीत व रागनी लेखन को भी बहुत पसंद किया गया। उनके गुरु कमल सिंह के प्रोत्साहन की वजह से अब तक उनके रचित गीतों के कैसेट के जमाने से लेकर सीडी, डीवीडी और अब यूट्यूब के युग में उन्हें लोक कला के क्षेत्र में बड़ी पहचान मिली है। यही नहीं लोक कला के क्षेत्र में उनके काव्य कोष, भजन माला, हरियाणवी ग़ज़ल संग्रह चांदना और रौनक, काव्य संग्रह बासन्ती अंदाज, काव्य पथ तथा काव्यवाणी पर साझा काव्य संग्रह, प्रेरणा, प्यारी मां, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, रामदूत हनुमान और शिव महिमा आदि भी पसंद किये गये। उनकी लेखनी हमेशा समाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर चली है। उनकी कविता, गजल, गीत, भजन, लेख, लघुकथा, कहानी आदि रचनाएं देश के विभिन्न पत्र व पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। वहीं उनके गीत और भजन अकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित हुए हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
हरियाणवी लोक कला के क्षेत्र में भजन, रागनी और गीत और गजल लेखन में उन्हें अनेक पुरस्कारों व सम्मान से नवाजा जा चुका है। इनमें प्रमुख रुप से उनहें सर्वश्रेष्ठ गीतकार, साहित्य रचना सम्मान, नव सृजन सम्मान, काव्य गौरव सम्मान तथा हिंदी सेवी सम्मान भी मिल चुका है। इसके अलावा साहित्यिक और सांस्कृतिक मंचों पर भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। 
दम तोड़ने के कगार पर लोककला 
आज के आधुनिक युग में लोक कलाओं के सामने चुनौतियों को लेकर समुन्द्र सिंह का कहना है कि इस युग में लोक कलाएं लगभग खत्म होने के कगार पर हैं, जिसकी वजह से कलाकार आर्थिक तंगी का सामना करने को भी मजबूर है। खासतौर से ग्रामीण क्षेत्रों के कलाकारों मान सम्मान तक नहीं मिल रहा है। इसका कारण युवाओं के लोक कलाओं से दूर होना है, जो इंटरनेट व सोशलमीडिया पर मनोरंजन के साधन खोज लेते हैं। ऐसा ही हाल साहित्य का भी है, जिसके लेखन में भी गिरावट आ रही है और अच्छा साहित्य पढ़ने में पाठक रुचि कम ले रहे हैं। हालांकि संगीत के क्षेत्र में रुचि रखने वाले युवाओं ने अच्छी पहचान भी बनाई है। आधुनिक युग में बदलते परिवेश में लोककला, अभिनय, रंगमंच में बदलाव हुए हैं, जिसमें गिरावट महसूस की जाती है। मसलन इस युग में गीतकार और संगीतकार वहीं परोस रहे है, तो श्रोता पसंद करते हैं। शायद यही कारण है कि उनके खुद तैयार किये गये गीत शिक्षाप्रद साबित हुए हैं, लेकिन श्रोताओं व पाठकों को पसंद नहीं आये। इसका कारण साफ है आज के इस युग में लोग शिक्षा नहीं, मनोरंजन ज्यादा पसंद कर रहे हैं। यही कारण है द्विअर्थी गीत संगीत से लेखक व गीतकार जल्द से जल्द लोकप्रिय होना चाहते हैं। लेकिन यह समाज को सकारात्मक संदेश न देकर उस पर कुप्रभाव साबित होता नजर आ रहा है। इसलिए लेखकों, गीतकारों और संगीतकारों का भी कर्तव्य है कि वे ऐसी कला का प्रदर्शन करे जिससे समाजिक, सांस्कृतिक और सभ्यता का संवर्धन करने में सहायक सिद्ध हो सके। 
05Aug-2024

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