सोमवार, 18 अगस्त 2025

साक्षात्कार: सामाजिक जीवन को सकारात्मक राह देता है साहित्य: डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’

साहित्य संवर्धन के साथ लोक कला के क्षेत्र में भी बनाई बड़ी पहचान 
           व्यक्तिगत परिचय 
नाम: डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’ 
जन्म तिथि: 24 अक्टूबर 1956 
जन्म स्थान: गांव निगाना, जिला रोहतक(हरियाणा) शिक्षा: इंटरमिडिएट, पीएचडी उपाधि 
संप्रत्ति: साहित्यकार, संगीतकार, गायक एवं समाजसेवी, जल आपूर्ति विभाग से सेवानिवृत्त। 
संपर्क: गांव निगाना, जिला रोहतक(हरियाणा), मोबा. 9992570491 
 BY---ओ.पी. पाल 
भारतीय संस्कृति में साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है। इसलिए सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर लेखन के जरिए साहित्य साधना कर रहे साहित्यकार संस्कृति और परंपराओं और सभ्यता के प्रति समाज को नई दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे लेखकों में डॉ.सत्यबीर सिंह ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होंने पद्य, दोहे, वर्णमाला, चौपाई, भजन, हरियाणवी भजन व बारह मास जैसी विधाओं में सामाजिक जीवन को सकारात्मक राह देने का प्रयास किया है। गद्य और पद्य दोनों प्रारुप को साहित्य संवर्धन का हिस्सा बनाकर उन्होंने हरियाणवी भाषा और संस्कृति को सर्वोपरि रखते हुए कला और संगीत की विधाओं में भी एक कलाकार व गायक और समाजसेवा की भाव के साथ सक्रीय होकर अपनी पहचान बनाई है। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’ ने समाज, खासतौर से युवा पीढ़ी को साहित्य और संस्कृति के प्रति प्रेरित करने पर बल दिया है। 
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रियाणा के  साहित्कार डॉ.सत्यवीर सिंह ‘निराला’ का जन्म 24 अक्टूबर 1956 को रोहतक जिले के गाँव निगाना में एक सामान्य कृषक परिवार में बनारसी दास नम्बरदार व श्रीमती सरबती देवी के घर में हुआ। परिवार में पारिवारिक पृष्ठभूमि में कोई साहित्यिक या सांस्कतिक माहौल नहीं था, लेकिन उन्हें बचपन से ही भजन और गीत गाने का बहुत शौंक था। हालांकि होश संभालने के बाद मध्यम वर्ग के परिवार होने की वजह उनके जीवन में भी आर्थिक और सामाजिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ा। दरअसल संगीत में गायन और साहित्य में गीत, भजन, रागनी लिखने में उनकी रुचि 1975-76 से ही हो गई थी। बचपन में अभिरुचि के कारण ही उन्होंने अल्पायु यानी 14 या 15 वर्ष की उम्र में ही लिखना शुरु कर दिया था। वक्त के साथ जब वह बड़े हुए तो उन्होंने अपनी पढाई के साथ में संगीत की शिक्षा ग्रहण करनी भी जारी रखी और जल्द ही वह बड़ी बड़ी स्टेजों पर बतौर गायक तथा हारमोनियम वादक के तौर पर कार्य करने लगा। समय के साथ ख्याति बढ़ती गई और उन्हें फिल्मों में नाटकों में गीत लिखने के लिए तथा बतौर संगीतकार के तौर पर कार्य करने के अवसर मिलते रहे, लेकिन कहीं न कहीं मन मे एक टीस बाकी थी कि उनकी रचनाएं किस प्रकार आने वाली पीढी को जागरुक करे। इसलिए उन्होंने साहित्य लेखन की तरफ अपने कदम बढ़ाने शुरु कर दिये। साहित्य सृजन करते हुए वह अब तक करीब 78 से ज्यादा पुस्तकें लिख चुके हैं। हालांकि दस पुस्तकें की प्रकाशित हो चुकी है और बाकि पुस्तकें प्रकाशनाधीन है। कवि धर्म संसद में सद्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी महाराज ने शुभ आशीष देते हुए उन्हें साल 1990 में ‘निराला’ उपाधि से नवाजा गया। हालांकि घर परिवार की जिम्मेदारियों को निभाने के लिए सरकारी नौकरी करने तथा साहित्य लेखन व संगीत के कार्य में सामंजस्य बैठाने में वास्तव मे उन्हें बेहद परेशानी का सामना करना पड़ा, लेकिन हरियाणा सरकार के जनस्वास्थ्य अभियांत्रिक, जल आपूर्ति विभाग से सेवानिवृत्ति के बाद खासतौर से साहित्यिक क्षेत्र की दृष्टि से उन्हें बड़ी राहत मिली। इसलिए अब वह लगातार दिन-रात साहित्य सृजन तथा साहित्यिक गतिविधियों में इतना व्यस्त रहने लगे और अब तक वह करीब 75 से ज्यादा पुस्तकें लिख चुके हैं। दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है और बाकि पुस्तकें प्रकाशनाधीन है। साहित्य और संगीत में पीएचडी की मानद उपाधि हासिल कर चुके डॉ.सत्यबीर सिंह, आमतौर पर उनके लेखन का फोकस हर विषय पर रहा है, लेकिन सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दो, आध्यात्म एवं जनजागृति पर आधारित रचनाओं पर ज्यादा कलम चलाई है। साहित्य सृजन के अलावा वह सामाजिक गतिविधियों में भी सक्रीय हैं और निराला चैरिटेबल ट्रस्ट के संस्थापक निदेशक के रुप में वह महिला सशक्तिकरण की दिशा में अब तक 150 महिलाओं एवं लड़कियों को निशुल्क रुप से एडवांस बेसिक कंप्यूटर कोर्स (6 महीने) और बेसिक कंप्यूटर कोर्स (3महीने) करवाया जा चुके है। वहीं वृक्षारोपण, रक्तदान आदि गतिविधियों तथा धर्म प्रचार-प्रसार कार्यों में अहम वह लगातार अपनी भूमिका निभा रहे हैं।
हरियाणवी भाषा को भी दी तरजीह 
डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’ ने बताया कि उनका जन्म हरियाणा की माटी में हुआ है, यह स्वाभाविक रुप से उनका कर्तव्य भी है कि वह अपनी मां बोली हरियाणवी भाषा को आगे बढ़ाने के प्रयास करें। इसलिए साहित्यिक सफर के दौरान वह अब तक हरियाणवी भाषा में लगभग 250 से ज्यादा गीत, कविताएं लिख चुके हैं, जिसमें उनकी एक पुस्तक ‘टूटता तारा’ हरियाणा भाषा मे प्रकाशित हो चुकी है, जबकि हरियाणवी भाषा में ’प्यार बड़ा हथियार सै’ अभी प्रकाशनाधीन है। साहित्य के अलावा उन्होंने संस्कृति संवर्धन के लिए भी बतौर संगीतकार, गीतकार, गायक एवं अदाकार के रुप मे कई हरियाणवी फिल्मों, टेलीफल्मिों तथा नाटकों मे कार्य किया, जिनमे से मुख्यतः हरियाणवी फिल्म हरियाणवी फिल्म छोरयां तै कम छोरी होगी और क्यूँ भरग्या माँग पिया, हरियाणवी नाटक-भोलू चल्या स्कूल, हरियाणवी एलबम बोरला, भोले तेरे भक्त निराले, गुरु महिमा, काँवड़िया, लव हरियाणे का, हरियाणे पै खतरा, हाय पड़ोसन, बाबा मोहनदास के अलावा उन्होंने टेलीफिल्म उपहार, अहसास और उज्ज्वला तथा प्राईवेट एलबम ’तनै जग सुखी बणाया सै, बोरला, नीली छतरी आलै, तेरा रूप गजब का, प्यारी-प्यारी बेटियों, तने कर दिया इसा कमाल, हक पै डाका और कुर्बानी नै याद करो आदि में भी कार्य किया है। इसके अलावा उनके यू-टयूब चैनल ’निराला डिवोशनल’ पर बहुत से हरियाणवी गीत उपलब्ध है, जिनमें उन्होंने गीतकार, संगीतकार तथा गायक के साथ अदाकार के तौर पर कार्य किया है। । 
प्रकाशित पुस्तकें 
प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’ ने अब तक आध्यात्म,सामाजिक,पारिवारिक,राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्या व समाधान पर आधारित हिंदी व हरियाणवी भाषा में 75 से ज्यादा पुस्तकें लिखी हैं। इनमें गद्य में और पद्य प्रारुप में 50 पुस्तकें और गद्य में 25 पुस्तकें शामिल हैं। प्रमुख रुप से प्रकाशित पुस्तकों में आइना-ए-निराला, सत्य की ओर, दरकते-रिश्ते, अदालत, प्यार का पैगाम,घटता आँचल, टूटता तारा (हरियाणवी), संत बाबा मेहरशाह (ग्रंथावली) शामिल हैं। इनके अलावा उनकी प्रकाशित साझा संग्रह पुस्तकों में ‘पौत्र प्रभाविकरण’, ‘तनै कर दिया इसा कमाल’, ‘गुरु कृपा’, ‘संस्कारों की क्यारी’, ‘प्यारा नंद लाला’, ‘भारत माता की जय’, ‘मेघा पुष्प’, ‘कविता कौमुदी’ के अलावा प्रकाशनाधीन साझा संग्रह पुस्तक ‘एकता’, ‘बेरहम’ और ‘महिलाओं की प्रधानता और नेतृत्व’ शामिल हैं। वहीं उन्होंने धराधाम इंटरनेशनल गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) के पीठाधीश्वर सौहार्द शिरोमणि प्रो.डा. सौरभ पाण्डेय के जीवन दर्शन पर लिखित पुस्तक ‘सौहार्द शिखर’ के अलावा डा. मधुकांत बंसल द्वारा लिखी हिंदी पुस्तक 'रक्तशाला' का हरियाणवी पुस्तक ‘खून खजाना’ का अनुवाद किया।
पुरस्कार व सम्मान 
उनके साहित्य सवंर्धन में उत्कृष्ट योगदान के लिए हरियाणा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी से ‘हरियाणवी भाषा के विकास की संभावनाए’ विषय पर प्रमाण पत्र से सम्मानित साहित्यकार डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’ को अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर सैकड़ो पुरस्कार एवं प्रशस्ति पत्रों से नवाजा जा चुका है। उनके प्रमुख रुप से राष्ट्रीय साहित्य रत्न सम्मान, राष्ट्रीय कबीर कोहिनूर सम्मान, 'बाल अधिकार साहित्य सम्मान, अटलश्री सम्मान, विधा भास्कर निराला सम्मान, कवि महेन्द्र सिंह नंबरदार स्मृति सम्मान, मिसरी-जुगलाल स्मृति साहित्य श्री सम्मान, निर्मला स्मृति हरियाणा गौरव साहित्य सम्मान, समाज सेवा सम्मान, प्रकृति गौरव सम्मान, संस्कृति प्रेमी सम्मान, सनातन धर्म और साहित्य सम्मान शामिल हैं। इसके अलावा उन्हें लाइफ टाइम एचीवमेंट पुरस्कार के साथ ही नेपाल के काठमांडू और लुंबनी में अंतरराष्ट्रीय भारत-नेपाल मैत्री सम्मान से भी अलंकृत किया जा चुका है। 
ये भी रही उपलब्धियां 
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’ ने साहित्य साधना के साथ संगीत के क्षेत्र में गायन, वादन, गीतकार, म्यूजिक कंपोजर एवं अभिनय के माध्यम से संस्कृति संवर्धन में भी अहम भूमिका निभाई है। उन्होंने भोजपुरी फिल्म माँ सी भौजाई, हरियाणवी फिल्म छोरयां तै कम छोरी होगी और क्यूँ भरग्या माँग पिया, हिंदी धारावाहिक जमाना दौड़ता है, टेलीफिल्म उपहार, अहसास, भोलू चला स्कूल और उज्ज्वला के अलावा हरियाणवी एलबम बोरला, भोले तेरे भक्त निराले, गुरु महिमा, काँवड़िया, लव हरियाणे का, हरियाणे पै खतरा, हाय पड़ोसन, बाबा मोहनदास के साथ प्राइवेट एलबम तेरा रूप गजब का, प्यारी-प्यारी बेटियों, तने कर दिया इसा कमाल, हक पै डाका और कुर्बानी नै याद करो आदि में भी कार्य किया है। 
साहित्य की जटिल व रोचक हुई स्थिति 
डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’ ने आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति को जटिल,लेकिन अत्यंत रोचक करार देते हुए कहा कि इस तकनीकी, सोशल मीडिया और डिजिटल माध्यमों के विस्तार ने साहित्य की प्रकृति, पहुंच और अभिव्यक्ति के तरीकों को पूरी तरह से बदल दिया है। पहले साहित्य मुख्यतः पुस्तकों, पत्रिकाओं और अखबारों तक सीमित था, लेकिन अब ब्लाग्स, ई-बुक्स, ऑडियोबुक्स, पॉस्टकास्ट और सोशल मीडिया के माध्यम से साहित्य का प्रसार हो रहा है। साहित्य अब केवल शब्दों का खेल नहीं रहा, वह मल्टीमीडिया अनुभव बनता जा रहा है। साहित्य पर अब पाठक टिप्पणियों, प्रतिक्रियाओं और विमर्श के माध्यम से लेखक से संवाद कर सकते हैं। इससे साहित्य अधिक जीवंत और सामाजिक रुप से उत्तरदायी बना है। यही कारण है कि विशेषकर उपन्यास, कविताएं, नाटक, आलोचना आदि जैसे साहित्य के पारंपरिक पाठक निश्चित रुप से कम हो रहे हैं। अब लोग बदलती जीवनशैली के कारण लंबे समय तक किसी गहरी रचना को पढ़ने की बजाए इंस्टाग्राम रील्स, यूटयूब र्शाटस और टवीट्स में ज्यादा समय बिता रहे हैं, जिसका समाज में संवेदनशीलता की कमी के कारण सामाजिक तानाबाना टूटता जा रहा है और युवा पीढ़ी अपनी साहित्य, संस्कृति और परंपराओं से दूर होकर पाश्चत्य संस्कृति का अनुसरण कर रहे हैं। इसलिए युवाओं को साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करना आज के समय की मांग है, क्योंकि साहित्य केवल शब्दों का संग्र्रह नहीं है, बल्कि संवदेनाओं, सोच, भाषा, संस्कृति और चरित्र निमार्ण का साधन है। वहीं साहित्यकारों को भी अपनी रचनाओं और लेखों को रोचक व प्रासंगिक बनाने के लिए विज्ञान, राजनीति, समाजशास्त्र के साथ साहित्य का संवाद स्थापित करना होगा। 
18Aug-2025

रविवार, 10 अगस्त 2025

चौपाल: समाज को संस्कृति से जोड़ने में लोक कला का अहम योगदान: केलापति राहीवाल

अभिनय के साथ गायन शैली में लेड़ी लखमीचंद के नाम से बनी पहचान 
               व्यक्तिगत परिचय 
नाम: केलापति राहिवाल (हरियाणवी कलाकार ) 
जन्मतिथि: 1 फरवरी 1962 
जन्म स्थान: सरसौद, जिला हिसार(हरियाणा) 
शिक्षा: एमए (हिंदी), डीएड, प्रभाकर, पीआरईपी (एन.एम.) 
संप्रत्ति: सेवानिवृत्त शिक्षक, रागनी गायक, अभिनय, 
संपर्क: आजाद नगर, राजगढ रोड, गली नं.-1, हिसार(हरियाणा), मोबा.9896254803 
By- ओ.पी. पाल 
रियाणवी लेखक, कलाकार अपनी अलग अलग विधाओं में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी कलाओं के हुनर बिखेरकर हरियाणवी संस्कृति को पहचान देते आ रहे हैं। ऐसी ही हरियाणवी कलाकार ने अपने हिंदी और हरियाणवी भाषा में गीतों, कविताओं और भजनों का लेखन करने के साथ अपनी गायन कला और अभिनय के माध्यम से बड़ी पहचान बनाई है। हरियाणा में उनकी गायन शैली की तुलना सूर्य कवि दादा लखमीचंद से की जा रही है। इसलिए उन्हें लेडी लखमीचंद के नाम से पहचाना जा रहा है। एक शिक्षका, समाजसेवी, अभिनेत्री और गायक कलाकार केलापति राहीवाल ने हरिभूमि संवाददाता से अपनी लोक कला के सफर को लेकर कई ऐसे पहलुओं को सामने रखा, जिसमें लोक कला का समाज को अपनी संस्कृति से जुड़े रहने के प्रति नई दिशा देने में अहम योगदान है। 
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रियाणवी लोक कलाकार केलापति राहीवाल का जन्म 01 फरवरी 1962 को हिसार जिले के गांव सरसौद में एक छोटे से किसान परिवार में फकर सिंह व श्रीमती रूकमण देवी के यहां हुआ। उनके पिता खेती-बाड़ी व पशुपालन का काम करते थे। उनके माता -पिता दोनों ही अथक जी-तोड़ मेहनत करने वाले थे। उनकी माता को संगीत व नृत्य के प्रति बहुत लगाव था। हमेशा वह सुबह जब सुबह हाथ वाली चक्की से आटा पीसती थी, तो सुंदर गीत और भजन गाती रहती थी। वहीं उस जमाने में गांवों में सभी मौहल्ले और आस पड़ोस की औरतें कुंए से पानी भरने के लिए जाती थी, तब भी उनकी माता गीत गाते हुए चलती थी और वह भी उनके पीछे कुएं पर पहुंच जाती थी, जिसका असर पड़ना स्वाभाविक था। मसलन उन्हें गीत संगीत की कला मां से विरासत में मिली, तो इसी कारण बचपन से ही उन्हें भी कला संगीत में अभिरुचि पैदा हुई और बचपन से ही उनकी कविता, गीत और भजन सुनने में अभिरुचि रही। यही कारण था कि उसने स्कूली शिक्षा के दौरान चौथी कक्षा से ही शनिवार की होने वाली बालसभा में कविता, गीत और भजन सुनाना भी शुरु कर दिया था। पढ़ाई में भी वह अव्वल रही हैं जिसके कारण शिक्षकगणों का आशीर्वाद मिला और वह भी अपने मन में अध्यापकों के प्रति बहुत मान सम्मान रखती थी। उनके परिवारिक पृष्ठभूमि में उस समय माली हालत ठीक नहीं थी और पिता ऐसे संकट और आर्थिक तंगी के बावजूद बच्चों की पढ़ाई लिखाई में बहुत ध्यान दे रहे थे, इसलिए उनकी पढ़ाई में कभी कोई बाधा नहीं आई। पिता ने दो बेटियों व एक भाई को शिक्षित करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी और तीनो भाई बहन पढ़ लिखकर सरकारी नौकरी पाने में सफल रहे और परिवार व रहन सहन में सुधार भी हुआ। बकौल केलापति, उन्होंने एमए(हिंदी) स्नातकोत्तर की उच्च शिक्षा हासिल करने के साथ डीएड, प्रभाकर और स्नातकोत्तर शिक्षा कार्यक्रम(पीआरईपी-एनएम) भी किया है। इसके बाद उनकी छह अप्रैल 1988 को हरयिाणा शिक्षा विभाग में एक शिक्षक के रुप में नौकरी शुरु की और करीब 32 साल तक अध्यापन कार्य करने के बाद 31 जनवरी 2020 में सेवानिवृत्त हुई। शिक्षिका की नौकरी करने के दौरान उन्होंने जहां अध्यापन प्रशिक्षण में मास्टर ट्रेनिंग जैसे शिक्षण कार्य की हरेक गतिविधि में बढ़चढ़कर अपने कर्तव्य का निर्वहन किया, वहीं उन्होंने जनहित और समाजहित के कार्यक्रमों पोलियो अभियान, जनगणना जैसे अभियानों में भी अपना योगदान दिया है। शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने लोक कला के क्षेत्र में विभिन्न विधाओं के साथ सक्रीय होकर अपनी भूमिका को आगे बढ़ाने का सिलसिला जारी रखा हुआ है। दूसरी ओर परिवार में केलापति की जिम्मेदारी बेहद अहम रही, क्योंकि वह अविवाहित हैं और अपने परिवार के साथ ही रहती हैं। उनका परिवार वर्तमान में आजाद नगर राजगढ रोड हिसार में रहता है। शहर में सबकुछ करने के बाद अभी उनके ऊपर अपने भतीजे व भतीजी को उच्च शिक्षा दिलाना, उनकी शादी करना, गांव में मकान बनाने की जिम्मेदारी भी है। उनकी कला का फोकस सामाजिक मुद्दों पर है और न्यायोचित दृष्टिकोण से तर्क संगत बात करने का रहा है। उनके कला क्षेत्र में भी रागनी, गीत या भजन के अलावा अभिनय के किरदार में भी अन्याय के खिलाफ समाजिक सरोकार के मुद्दे सर्वोपरि रहे हैं। उनका कला के माध्यम से समाज को सकारात्मक संदेश देने का प्रयास रहा है, ताकि समाज अपनी सभ्यता, परांपराओं, रीति रिवाज और अपनी संस्कृति से जुड़ा रहे। वह सामाजिक कार्यो खासतौर से नारी विमर्श और महिलाओं के हित में भी सक्रीय रहती हैं और महिला संगठन में भी बहुत काम किया है। उनका कहना है कि जीवन में उतार चढ़ाव का दौर हर इंसान के सामने आता है, लेकिन जहां तक उनकी कला के क्षेत्र में अभिनय में कोई खास परेशानी नहीं हुई और इस क्षेत्र से जुड़े लोगों से प्रोत्साहन व सम्मान मिलता रहा है। 
अभिनय के रुप में भी छोड़ी छाप
हरियाणवी महिला लोक कलाकार केलापति राहीवाल ने स्कूल और कालेज में शैक्षिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक मंचों पर भी गीत और भाषण तथा अभिनय के रुप में अपनी कला का प्रदर्शन किया, उन्होंने अधिकांश फिल्मों व वेबसीरीज में दादी का किरदार निभाया है। उनकी विभिन्न विधाओं में कला को हरियाणवी फिल्मों और वेबसीरीज में भी बेहद पसंद किया जाता है। उन्होंने हरियाणवी फिल्म घूंघट, हरियाणा, हरियाणा की बेटी, मां, हरियाणा केसरी, मुआवजा, काला कौन है जैसी फिल्मों में अभिनय के साथ गायन का किरदार भी निभाया। खुशमिजाज मजाकिया स्वाभाव की कलाकार होने के नाते शूटिंग और सैट पर पूरी टीम उन्हें भरपूर मान सम्मान देती है। वहीं उनके यूट्यूब चैनल पर खुद के लिखे और गाये गये गीत और भजन भी प्रचलित हैं, जिन्हें खूब पसंद किया जा रहा है। 
पुरस्कार व सम्मान 
महिला लोक कलाकार केलापति को हाइफा की प्रतियोगिताओं के गीत कॉम्पिटिशन में दो बार प्रथम, एक बार द्वितीय और हाल ही सात्वनां पुरस्कार हासिल किया है। फिल्म अभिनेता और निर्देशक यशपाल शर्मा ने उनकी गायन शैली से प्रभावित होकर उन्हें बहुत मान सम्मान के साथ लेडी लख्मीचंद के नाम दिया है। केलापति को अध्यापन कार्य के दौरान भी राज्य, जिला और खंड स्तर पर अनेक पुरस्कार व सम्मान मिले हैं। 
आधुनिक युग में चुनौती 
आज के आधुनिक युग में कला और संस्कृति को लेकर लोक कलाकार केलापति राहीवाल का कहना है कि आजकल पैसा प्रधान हो गया है और इंस्ट्रा व फेसबुक आदि सोशल मिडिया पर भौंडा अश्लील प्रदर्शन शर्मसार होने को मजबूर कर रहा है, जिस पर प्रतिबंध होना जरुरी है। वहीं आजकल की युवा पीढ़ी को हरियाणवी संस्कृति के प्रति प्रोत्साहन देने की जरूरत है, क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति का दुष्प्रभाव हमारी भारतीय संस्कृति को दूषित कर रहा है। युवा पीढ़ी को सरकारी स्तर और स्कूल व कालेज में सांस्कृतिक रुप से प्रोत्साहन देने की जरूरत है, ताकि उनके भविष्य को सुधारकर उन्हें अपनी संस्कृति और सभ्यता और परंपरा से जोड़ा जा सके। 
09Aug-2025

सोमवार, 4 अगस्त 2025

साक्षात्कार: साहित्य में यथार्थ की हकीकत को कथ्य में समाहित करना आवश्यक: डॉ. सुरेश वशिष्ठ

साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन के साथ एक रंगकर्मी के रुप में भी बनाई पहचान 
      व्यक्तिगत परिचय 
नाम: डॉ सुरेश वशिष्ठ 
जन्मतिथि: 14 मार्च 1956 
जन्म स्थान: बरवाला गाँव, दिल्ली 
शिक्षा: एम.ए (हिन्दी) बी.एड. पी-एच.डी. 
संप्रत्ति: साहित्यकार और रंगकर्मी, कथाकार, नाटककार और उपन्यासकार सेवानिवृत्त प्राचार्य 
संपर्क: एफ. 189, फेस-2, न्यू पालम विहार, सैक्टर- 112, गुरुग्राम (हरियाणा), ई-मेल: sureshvashisht@gmail.com मोबा.: 9654404416
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BY- ओ.पी. पाल 
साहित्य के क्षेत्र में हरियाणा के लेखकों ने विभिन्न विधाओं में साहित्य संवर्धन करके समाज को नई दिशा देने का प्रयास किया है। ऐसे ही साहित्यकारों में शुमार डॉ. सुरेश वशिष्ठ अपनी लेखनी के जरिए साहित्यिक और सांस्कृतिक साधना करने में जुटे हैं। उन्होंने एक रंगकर्मी, नाटककार, कथाकार और उन्यासकार के अलावा रंगकर्मी के रुप में सामाजिक सरोकारों के मुददों को उजागर करते हुए बच्चों से लेकर बुजुर्गो तक संस्कृति, सभ्यता, परंपराओं और अतीत से रुबरु कराने का प्रयास किया है। शिक्षाविद् और प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. सुरेश वशिष्ठ ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कई ऐसे अनछुए पहलुओं को भी उजागर किया है, जिसमें कोई भी लेखक और कलाकार यथार्थ की हकीकत को कथ्य में समाहित करके अपनी संस्कृति से विमुख होती युवा पीढ़ी को प्रेरित कर सकता है। 
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रिष्ठ साहित्यकार एवं लेखक डॉ. सुरेश वशिष्ठ का जन्म 14 मार्च 1956 को दिल्ली के बरवाला गाँव में पं. रघुवीर सिंह शर्मा व इन्द्रावती के घर में हुआ। उनके परिवार की पृष्ठभूमि में पीढ़ियों से धार्मिक और संस्कृति स्थापन की रही है। 1690 के दशक में मेरे पूर्वज श्री श्री 1008 श्री कृपाराम जी महाराज आमेर राज्य (राजस्थान) में स्थित (अब जयपुर) बालानंद मठ के मठाधीश रहे। 1692 में श्री श्री 1008 श्री बालानंद जी महाराज के संग कृपाराम जी वैष्णवों के चतुर्थ संप्रदाय के विशाल धार्मिक लश्कर और आमेर के राजकुमार जयसिंह के साथ औरंगजेब से अपनी धार्मिक शर्ते मनवाने आए और नजफगढ़ के निर्दयी सुलतान नजफ खां का संहार भी किया। उसके बाद पीढ़ियों की लम्बी परम्परा में मेरे पूर्वज ईश्वरीय भक्ति का निर्वहन और धार्मिक प्रवचन करते रहे। साल 1692 में ही दिल्ली के घने जंगल में प्रवास किया और वहीं आगे चलकर बरवाला गाँव बस गया। वशिष्ठ के पूर्वज ठाकुरद्वारे की पूजा-अर्चना में पुजारी रहे और वाचन भी करते थे। उनके पिताजी श्री पं.रघुवीर सिंह शर्मा दिल्ली के शिक्षा विभाग में शिक्षक, मुख्य शिक्षक और सहायक शिक्षा अधिकारी के पद पर कार्यरत रहे। वहीं धार्मिक पुस्तकों का लेखन भी करते रहे। वैष्णव धर्म एवं दर्शन, वैदिक धर्म एवं दर्शन, पूर्व पुरुष और सृष्टि विस्तार जैसी असंख्य पुस्तकों का लेखन उन्होंने किया। परिवार के ऐसे परिवेश ने उनका प्रेरित होना स्वाभाविक था, जिसके चलते उन्हं लिखने की प्रेरणा मिलती रही है। बकौल डॉ. सुरेश वशिष्ठ, उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव बरवाला में ही हुई। जबकि उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज महाविद्यालय से पूरी की। बाद में उन्होंने जामिया विश्वविद्यालयनई दिल्ली से 'हिन्दी नाटक और रंगमंच: बर्टोल्ट ब्रेख्त का प्रभाव' विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि हासिल की। उन्होंने दिल्ली सरकार के अधीनस्थ विद्यालयों में प्रवक्ता (हिन्दी) के पद पर अनेक वर्षों तक कार्य किया। इसके बाद साल 2006 में 'संघ लोक सेवा आयोग, दिल्ली' द्वारा उनकी प्रधानाचार्य पर नियुक्ति हुई और इसी पद से वे 31 मार्च-2018 को सेवानिवृत्त हुए। साहित्यिक अभिरुचि के चलते उन्होंने शुरू में व्रत कथाओं को लिखना शुरु किया। जब वे नौवीं कक्षा में थे, तो हरियाणा के सोनीपत के एक गाँव में उनके मामा उनके पिताजी को हरियाणा के किसी गाँव में हुई घटना सुना रहे थे, तो उन्होंने भी उसे सुना और अगले दिन उसे अपनी कलम से लिख डाला। इस पर उनके एक सहपाठी ने शिक्षक से उसके नोवल लिखने की शिकायत की। इस पर शिक्षक ने आँखें तरेरी और जो लिखा था, उसे दिखाने को कहा। उनके मन में था कि उसे डाँट पड़ेगी, लेकिन शिक्षक ने जब उनकी लिखी कहानी को पढ़ा और पूछा कि यह सब लिखने का ऑइडिया कैसे आया, बताने पर मुझे शाबाशी मिली और वह उनकी पहली कहानी थी। लेखन और साहित्यिक सफर में परेशानी को लेकर डा. वशिष्ठ का कहना है कि लिखना दिलचस्प भी है और दुखदाई भी। लेकिन यथार्थ में जो हो रहा है, उसे लेखन का विषय बनाया जाना चाहिए। उसके बाद उन्हें कथा-कहानी और शेरो-शायरी और फिर अभिनय का शौक चर्राया। उन दिनों, हरियाणा और दिल्ली के देहात में 'साँग' बहुत लोकप्रिय नाट्य था और उन्हें भी साँग में वर्णित किस्से बहुत दिलचस्प लगते थे। रामलीला और कृष्णलीला की मंडलियाँ भी दशहरा व जन्माष्टमी के आस-पास गाँव में होती थी, जिन्हें देखकर और कथा सुनकर उनका भी मन अभिनय करने को लुभाता था। उनका यह शौंक भी कक्षा नौ में पूरा हुआ, जब स्कूल के एक उत्सव में 'श्रवण कुमार' नामक नाटक में पहली बार अभिनय किया। उनके अभिनय को खूब सराहा गया। फिर उन्होंने कॉलेज में अभिनय के साथ नाट्य लेखन की शुरुआत की और उनका पहला और प्रसिद्ध नाटक 'पर्दा उठने दो!' इतना प्रसिद्ध हुआ कि उन दिनों उसके पूरे भारत में पाँच हजार से ज्यादा शो हुए। 'पर्दा उठने दो!' को नजीमाबाद दूरदर्शन, 'दृष्टि' बिजनौर, 'अभिनय' बीकानेर, 'इप्टा' जयपुर, 'राजस्थान संगीत अकादमी' जयपुर, 'दुर्गा नाट्य मंच' जम्मू, 'छवि नाट्य मंच' और 'शाकुतम नाटय मंच' दिल्ली, 'आर.आर. बाबा गर्ल्स कॉलेज' बटाला इत्यादि असंख्य संस्थाओं ने इस नाटक के बहुत से प्रदर्शन मंचों पर किए। उन्हीं दिनों उन्होंने एक हरियाणवी नाटक 'कातिल कौन' भी लिखा गया था, जो जाट कॉलेज सोनीपत में मनफूल सिंह ढांगी के निर्देशन में कई जगहों पर उसे खेला गया। वहीं नुक्कड़ों और चौराहों पर भी उनके लिखे नाटकों को लोगों ने खूब पसंद किया गया। उनके लिखे अन्य नाटकों में अभी हाल ही में 'एक अजेय योद्घा' और 'रंग बदलेगा जरूर!', सुनो दास्तान-1919 इत्यादि नाटकों का मंचन हो रहा है। उनकी कहानियों और लघु कथाओं को भी लोग बड़ी दिलचस्पी से पढ़ते हैं और प्रतिक्रिया भी देते रहे हैं। उन्होंने गजलें और कविताएँ बहुत कम लिखी, जबकि लम्बी कहानियाँ, लघु कहानियाँ, यात्रा-वृतांत, बाल उपन्यास और नाटक ही ज्यादा लिखे हैं। उनके लेखन के फोकस में यथार्थ को दिखाना रहा है, क्योंकि रचनाकार की नजर यथार्थ पर जरूर रहनी चाहिए। हालांकि प्रेम प्रसंग और युवा धड़कने भी कुछेक कहानियों में उकेरे गए हैं। वहीं लोक कहानियों और बाल कथाओं में नैतिक ज्ञान भी सर्वोपरि रहा है। हरियाणवी उनकी मात्रभाषा है लेकिन वह अपना लेखन हिन्दी में ही करते हैं, हालांकि उन्होंने बहुत पहले कुछेक हरियाणवी लोककथाएँ लिखी थी, जिनमें से कुछ लोककथाओं को लोरांद विश्वविद्यालय, बुद्धापेस्त (हंगरी) में भारोपीय भाषा परिवार में शामिल किया गया था, जहां उनके एक मित्र इम्रे बंगा ने भी इसकी पुष्टि की, जहां हिन्दी की एकमात्र प्रोफेसर डॉ. मारिया और उस वक्त प्रसिद्ध साहित्यकार असगर वजाहत भी हंगरी में ही पढ़ाया करते थे। उनकी कहानियां, लघुकथाएं, हिंदी के लोकनाट्य और कला रंग और लोक (आलोचना) जैसे आलेख और साक्षात्कार देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। 
शोध कार्य 
लेखक डॉ. सुरेश वशिष्ठ के साहित्य पर पीएचडी और एमफिल की उपाधि के लिए शोधकार्य भी हुए। इनमें कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में नाटककार: सुरेश वशिष्ठ विषय पर अश्वनी कुमार ने शोध कार्य पूरा किया, तो वहीं मुदरै कामराज विश्वविद्यालय, मुदरै में संदीप कुमार ने सुरेश वशिष्ठ के साहित्य में नारी और मनीषा ने सुरेश वशिष्ठ की कहानियों में लोक-संस्कृति पर शोध कार्य किया है। डा. सुरेश वशिष्ठ कला एवं साहित्य की अखिल भारतीय संस्था 'संस्कार भारती' में पिछले पच्चीस वर्षों से हरियाणा में, प्रांत उपाध्यक्ष, प्रांत नाट्य प्रमुख, प्रांत साहित्य प्रमुख जैसे विभिन्न दायित्वों का निर्वहन करते रहे हैं। वहीं वे तीन वर्ष तक केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार) में सदस्य रहे। इसके अलावा कला, रंग-कर्म और लेखन से संबंधित अनेक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी निभा रहे हैं। 
प्रकाशित पुस्तकें 
वरिष्ठ साहित्यकार डा. सुरेश वरिष्ठ ने करीब तीन दर्जन नाटक, करीब पाँच सौ कहानियाँ, दो दर्जन बाल पुस्तकें और पाँच उपन्यास लिखे हैं। उनके कहानी संग्रहो में प्रमुख रुप से खुरदरी जमीन, चली पिया के देश, सिपाही की रस्म, घेरती दीवारें, बहती धारा, लोकताल, श्रंगारण, नीर बहे, ताल मधुरम्, झीनी-झीनी रोशनी(भाग-एक), छलकते कलश(भाग-दो), भुला नहीं सका हूँ (खंड-एक) कहानियाँ, रक्तचरित्र (खंड-दो) कहानियाँ, अधूरी दास्तान(खंड-तीन) कहानियाँ, सफर कभी रुका नहीं (खंड-चार) कहानियाँ, निर्झर नीर (खंड-पांच) कहानिया, सरवर ताल (खंड-छह) कहानियाँ, लघु कहानियाँ-मुझे बोलने दो! अंधा संगीतज्ञ, रक्तबीज व हिन्दुत्व स्वाह!, लघुकथाएँ-लाल लकीरें, अंधेरे गलियारे, काले मेघ, सूखे डबरा व रंगे हुए सियार, बाल लघुकथाएं-आँगन में खिले फूल के अलावा तीन खंडों में आधी डगर सुर्खियों में हैं। इसके उनके उपन्यासों में नीलगगन का विज्ञान (बाल उपन्यास), नन्ही चिरैया (बाल उपन्यास), कलिकृत्त (बाल उपन्यास), रुद्रदेव के कारनामे (बाल उपन्यास) के अलावा लावा व मेव दंश शामिल हैं। उनके नाटक की 16 पुस्तकों में पर्दा उठने दो, रेत के ढेर पर, सैलाबगंज का नुक्कड, खुदा का घर, हुकूमत उनकी, बेला की पुकार,गलत फैसला, अंधे शहर में, सुनो दास्तान-1919, एक अजेय यौद्धा, नी हिन्द तेरी शान बदले, रंग बदलेगा जरूर!, नाटक संग्रह-अष्टरंग व नाट्य द्ववम् के अलावा लघुनाटक संग्रह बहते दरिया के साथ लघु नाटक और लघुकथाएँ बेरंग चेहरे शामिल हैं। उनके आधा दर्जन कविता संग्रह में पसर गई आवाज, तलाश जारी है, अंश अभी शेष है, रसधार, बरगद की छाँव और हुई सुहानी भोर है चर्चा में हैं। उनकी तीन पुस्तकें आलोचनात्मक भी प्रकाशित है, जिनमें हिन्दी नाटक और रंगमंच, हिन्दी के लोकनाट्य तथा कला रंग और लोक: दिशा एवं दृष्टि शामिल हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
वरिष्ठ कहानीकार और लेखक डा. सुरेश वशिष्ठ को साहित्य संवर्धन और शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए अनेक पुरस्कार एवं सम्मानों से अलंकृत किया गया है। प्रमुख पुरस्कारों में हिन्दी साहित्यकार गौरव सम्मान, साहित्यकार सम्मान, साहित्य आराधना सम्मान, साहित्य रत्न सम्मान, सारस्वत सम्मान, साहित्य सृजन से राष्ट्र अर्चन,प्रस्तुत आलेख सम्मान, सामाजिक गौरव पुरूस्कार, विमल शुभ स्मृति साहित्य रत्न सम्मान, शब्द शक्ति सम्मान, प्रतिष्ठा महोत्सव एवं विश्व-शान्ति सम्मान, डा.राधाकृष्णन सहस्त्राब्दि राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान, शिक्षक गौरव सम्मान, गौरक्षक एवं कला सम्मान के अलावा उनकी ‘पुस्तक पर्दा उठने दो’ को भी पुरस्कृत किया जा चुका है। 
आधुनिक युग में साहित्य 
वरिष्ठ साहित्यकार डा. सुरेश वशिष्ठ का आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति को लेकर कहना है कि साहित्य कभी मर नहीं सकता और बदलते परिवेश में सोशल मीडिया और टीवी ने पुस्तकों से ध्यान हटाया है, लेकिन इंटरनेट और सोशल मीडिया पर आज भी साहित्य खूब पढ़ा जा रहा है और पाठक प्रतिक्रिया भी खूब दे रहे हैं। आज इंटरनेट या सोशल साइट पर साहित्य का पाठक पहले से ज्यादा सक्रिय दिखलाई पड़ता है। उनका मानना है कि पुस्तकें पढ़ना कम हो सकता है, लेकिन साहित्य पढ़ा जाना आज भी जारी है। विगत की घटी घटनाओं को जानने और यथार्थ में हो रही घटनाओं पर से उसकी पैनी नजरें हटी नहीं हैं। जहाँ तक पुस्तकें पढ़ने के कम होने का सवाल है, उसके लिए बाजारीकरण और सरकारें दोषी हैं। साहित्य के प्रति बुजुर्ग हों या युवा वर्ग, वह आज भी उतना ही लालायित दिखता है, जितना पहले था। खासकर युवा पीढ़ी सटीक शब्दावली में वर्णित अच्छा साहित्य पढ़ने की इच्छुक रहती है। तब, कोरी कल्पना या ख्यालों की उड़ान से अलग यथार्थ की हकीकत को कथ्य में समाहित करना लेखक का दायित्व भी है। पाठकों को जागरुक और साहित्य के प्रति प्रेरित करने के लिए साहित्यकारों व लेखकों का दायित्व है कि वह अच्छा और रुचिकर लिखे, जिसमें यथार्थ नजर आए, क्योंकि पाठक तो सच जानना ही चाहता है। आज देखा जा रहा है कि चौतरफा कुकुरमुत्तों की तरह लेखक उग आए हैं,या उगाए जा रहे हैं। लिखने की सामर्थ्य जिनमें नहीं वे भी महान लेखक होने की ढ़ोंढी पीट रहे हैं। उनकी नजर में लेखक जन्मजात होते हैं, उन्हें जबरन इजाद नहीं किया जा सकता। लेखक बनाए जाते रहेंगे तो लेखन में गिरावट आना जारी रहेगा। ऐसा नहीं होना चाहिए। 
04Aug-2025