सोमवार, 26 मई 2025

साक्षात्कार: सामाजिक उत्थान का माध्यम है साहित्य सृजन: कृष्ण कुमार

कविता, गजल, लघुकथा, व्यंग्य जैसी विधाओं में लेखन से मिली पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: कृष्ण कुमार निर्माण 
जन्म तिथि: 15 जून 1975 
जन्म स्थान: गांव व पोस्ट बरोदा, गोहाना, जिला सोनीपत,(हरियाणा) 
शिक्षा: एमए (हिंदी),बीएड,एलएलबी, पत्रकारिता डिप्लोमा 
सम्प्रति:स्वतंत्र लेखन, कवि, एवं शिक्षा विभाग हरियाणा में अधिकारी
संपर्क:निर्माण सदन, शांति नगर,करनाल, मोबा-9034875740, ई मेल kknsec@gmail. com 
--BY-ओ.पी. पाल 
साहित्य जगत में लेखन केवल साहित्य संवर्धन ही नहीं है, बल्कि सामाजिक उत्थान में भी साहित्य की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसा साहित्य सृजन करते आ रहे मूर्धन्य विद्वानों का भी मत है कि साहित्य के बिना समाज की कल्पना करना असंभव है। समाज को नई दिशा देने के मकसद से ही साहित्यकार अपनी विभिन्न विधाओं में लेखन करने में जुटे हैं। ऐसे ही लेखकों में साहित्य साधाना में जुटे साहित्यकार कृष्ण कुमार निर्माण भी सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों को उजागर करके आलेख, कविताओं और सामयिक विषयों पर अपने रचना संसार को दिशा देने में जुटे हुए हैं। हिंदी और हरियाणवी भाषा में साहित्य संवर्धन करते आ रहे साहित्यकार कृष्ण कुमार निर्माण ने हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान कई ऐसे तथ्यों का जिक्र किया है, जिसमें वह कविता, ग़ज़ल, लघुकथा, व्यंग्य, समसामयिक विषयों पर लेखन करके समाज, खासतौर से युवा पीढ़ी को अपनी परंपराओं से जुड़े रहने का सकारात्मक संदेश दे रहे हैं। 
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साहित्यकार एवं लेखक कृष्ण कुमार निर्माण का जन्म 15 जून 1975 को हरियाणा के सोनीपत जिले में गोहाना तहसील के गांव बरोदा में भूप सिंह निनानिया और श्रीमती रतनी देहड़ान के घर में हुआ। उनके परिवार में कोई साहित्यिक माहौल तो नहीं रहा, लेकिन उनके बड़े ताया लेखन करके रागनी का गायन करते थे। जबकि पिता को भी पढ़ने और रागनी गाया करते थे। उनके पिता और अक्सर उन्हें सांग दिखाने भी ले जाया करते थे, शायद इसी से प्रभावित होकर उनमें भी साहित्यिक व सांस्कृतिक के प्रति कब रुझान बढ़ने लगा और उन्हें ठीक से याद भी नहीं है कि कब उनमें यह लिखने का गुण आ गये। उन्हें ऐसा लगता है कि मेरे ताया रघबीर सिंह की ही प्रेरणा है कि उन्हें विरासत में साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में लेखन मिला, इसका जिक्र उन्होंने अपनी पुस्तक 'बखत-बखत के बोल' में भी किया है। वहीं स्कूली शिक्षकों ने भी उनकी इस प्रतिभा को निखारने में सहयोग दिया। वह स्कूली शिक्षा के दौरान स्कूल में होने वाले हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेकर भाषण प्रतियोगिता, काव्य पाठ और अभिनय करते थे और इन सभी विधाओं में उसने पहला स्थान हासिल किया। उन्हें राज्य स्तर पर श्रेष्ठ अभिनेता और सर्वश्रेष्ठ कमण्टेटर का खिताब भी हासिल हुआ है। बकौल कृष्ण कुमार, बचपन से ही सांग देखकर और ताऊ जी को सुन-सुनकर उन्होंने जिस माहौल को महसूस किया, उसी की वजह से साहित्य सृजन के लिए उनके लेखन की शुरुआत हुई। हालांकि सबसे पहले तो हरियाणवी में रागनी लिखना शुरू किया। जब वह आठवीं कक्षा में थे तो उन्होंने अपनी पहली रचना लिखी, जिसे उनके ने कई आध्यात्मिक कार्यक्रमों में भी गाया और उन्होंने उसे स्वयं भी सुना। इसी बीच निरंकारी मिशन द्वारा एक गीत संग्रह 'हर का भजन करया कर' प्रकाशित हुआ, जो कि पहली बार सार्वजनिक भी हुआ और फिर अखबारों में प्रकाशित हुआ। अखबारों में उनकी रचनाएं छपने के क्रम से उनका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक भी था, जिसमें हिसार में उनके साहित्यिक गुरु मोहन स्नेही की प्रेरणा मिली। इसी प्रेरणा और बढ़ते रुझानों के चलते उन्हें राज्य कवि उदयभानु हंस के साथ भी मंच पर कविता पढ़ने का अवसर मिला और यहीं से हिंदी में भी साहितय लिखने का क्रम आगे बढ़ा ओर प्रकाशित भी हुआ। उन्होंने बताया कि उनके लेखन के क्रम ने गति पकड़ी और विभिन्न कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ भी करते रहे। वहीं उनके कई साझा संग्रह भी आए, लेकिन एक मित्र ने कहा कि आप इतने दिनों से लिख रहे हो, अपना खुद का संग्रह लिखकर भ छपवाओं। इसके बाद उन्होंने हरियाणवी लघु कविताओं का संग्रह लिख, जिसकी भूमिका सुविख्यात साहित्यकार सत्यवीर नाहड़िया ने लिखी है। जहां तक साहित्यिक सफर में परेशानियों का सवाल है उसके लिखे साहित्य के लेखन में कई बार आई, लेकिन ऐसी समस्याएं जल्द हल हो गई। एक ऐसा दिलचस्प किस्सा भी उस समय सामने आया, जब रेवाड़ी में वह अपना कविता पाठ करके मंच से नीचे उतर रहे थे तो युगदृष्टा बाबा हरदेव सिंह जी ने उनकी लिखी रचना को लिखित में मुझे मांगा, जिससे उनका उत्साह बढ़ना भी स्वाभाविक था। आज वह कविता, ग़ज़ल, लघुकथा, व्यंग्य, समसामयिक विषयों पर लेख लिख रहे हैं और कुंडली, लघुकविता, लघुकथा भी उनके साहित्यक साधना की विधाओं में शुमार हैं। उनके उनके साहित्य लेखन का फोकस जनपक्ष की व्यथा, जातिगत भेदभाव, किसानों की दुर्दशा और नारी अधिकार जैसे सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर ज्यादा रहा है। उनके आलेख, कविताएं और रचनाएं देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में भी अनवरतप्रकाशित होती रही है। वहीं हिसार दूरदर्शन से उनके काव्य की अनेक बार प्रस्तुतियां प्रसारित हो चुकी है। उन्होंने हरियाणावी साहित्य अकादमी बनाने के लिए आंदोलन भी चलाए और इसके लिए सरकार को पत्र भी लिखे हैं।
सोशल मीडिया से बड़ी चुनौती 
आधुनिक युग में भी निश्चित रूप से साहित्य की स्थिति सर्वोच्च बनी है, मगर सोशल मीडिया के दौर में थोड़ा चुनौती भी कहा जा सकता है। इस आभासी दुनिया में जहाँ सकारात्मकता है, वहीं काफी चीजें अनुचित भी हैं। ऐसा भी नहीं है कि साहित्य के पाठको में कमी आई है, बल्कि मुद्रित पुस्तकों के मुकाबले ऑनलाइन पाठ पठन कुछ ज्यादा हो गया है। वहीं इस बाजारीकरण के दौरे में अर व्यक्ति व्यस्त है और मोबाइल को ही अपने जीवन की प्रक्रियाओं का जरिया बना लिया है। साहित्य और संस्कृति से दूर होती युवा पीढ़ी को लेकर उनका कहना है 'भूखे पटे भजन होए न गोपाला' वाली कहावत ऐसे माहौल में सटीक भी है, जब युवाओं पर करियर को लेकर दबाब बढ़ रहा है। लेकिन ऐसे में युवाओं को साहित्य के लिए प्रेरित करने की ज्यादा आवश्यकता है, जो उन्हें नई राह देने के साथ उनके आत्मसम्बल भी बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकता है। युवाओं को साहित्य के प्रति प्रेरित करने के लिए उनके स्तर और बदलते युग के साहित्य लेखन की जरुरत है। लेकिन लेखक और साहित्यकारों द्वारा साहित्य तो ज्यादा लिखा जा रहा है, लेकिन उसमें गिरावट नजर आने लगी है और यह बहुत ही तकलीफदेह है कि आज साहित्य भी दो खांचों में बांटा जा रहा है। असल में साहित्य वही है जो कालजयी हो और आम जनमानस की पीड़ा को प्रभावी तरीके से व्यक्त करता हो। इसके लिए खासतौर से युवाओं को साहित्य से जोड़ने के लिए स्कूल और कॉलेजों स्तर पर में सहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यशालाओं को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्यकार कृष्ण कुमार निर्माण की प्रकाशित पुस्तकों में हरियाणवी लघुकविता संग्रह 'बखत बखत के बोल', हिंदी आलेख संग्रह 'प्रसंगवश', हिंदी काव्य संग्रह 'कविता के बहाने व शब्द बोलते हैं', हरियाणवी ग़ज़ल संग्रह 'बखत-बखत की बात', हरियाणवी लघुकविता संग्रह 'घणा बदलग्गा यार जमाना', व्यंग्य संग्रह 'हल्के-फुल्के व्यंग्य', हरियाणवी कुंडली संग्रह 'मन के जालै', आलेख संग्रह 'संयोगवश'(समय का दसतावेज) शामिल हैं। इसके आलवा उनके साझा संग्रह में हरयाणवी गीत संग्रह 'हर का भजन करया कर', करनाल के कवियों का संग्रह 'कविप्रिया', लघुकविता संग्रह 'हरियाणवी जिंदाबाद' हरियाणा के लघुकथाकार 'ख्यालों का चरागाँ' दूरदर्शन द्वारा प्रकाशित बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ-आवाज-ए हिंदुस्तान भी उनकी उपलब्धियां हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
हिंदी और हरियाणवी साहित्य में योगदान के लिए साहित्यकार कृष्ण कुमार को अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। उन्हें 'हिंदी श्री' सम्मान, श्रेष्ठ साहित्यकार सम्मान, हरियाणवी साहित्य गौरव अवार्ड, श्रेष्ठ शिक्षक सम्मान, साहित्य सभा कैथल व नेपाल की संस्था द्वारा पुरस्कारों से नवाजा गया है। वहीं कवि सम्मेलनों के मंचों पर भी उन्हें अनेक पुरस्कार मिले हैं। 
  26May-2025

सोमवार, 19 मई 2025

चौपाल: समाज व संस्कृति के संवर्धन में लोक कलाओं की अहम भूमिका: सोनिया

लोक नृत्य और शास्त्रीय नृत्य कथक से सांस्कृतिक का विकास करने में जुटी कलाकार 
           व्यक्तिगत परिचय 
नाम: सोनिया 
जन्मतिथि: 24 सितंबर 2001 
जन्म स्थान: गांव ससोली, जिला यमुनानगर 
शिक्षा: ग्रेज्युएट 
संप्रत्ति: लोक नृत्य, लोक कलाकार 
संपर्क: गांव ससोली, जिला यमुनानगर, मोबा: 8295083765 
BY--ओ.पी. पाल 
रियाण की समृद्ध लोक संस्कृति के संवर्धन में जुटे लोक कलाकारों ने विभिन्न विधाओं के माध्यम से अपनी कला में नई दिशा देने का प्रयास ही नहीं किया, बल्कि हरियाणवी कला, संस्कृति और परंपराओं की देश-विदेशों तक अलख जगाई है। ऐसे ही कलाकारों में प्रतिभावान सोनिया अपने लोक नृत्य की कला को ऐसी धार देने में जुटी हैं, जिसमें उनका लोक नृत्य, केवल मनोरंजन ही नहीं, बल्कि संस्कृति का वाहक बनकर धर्म, संस्कार और आत्म-चिंतन को जोड़ने का सबब बनता जा रहा है। लोक नृत्य के साथ वह भारतीय शास्त्रीय नृत्य कथक की विधा में अपने कदम बढ़ा रही हैं। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान युवा लोक कलाकार सोनिया ने अपनी लोक कला के सफर को लेकर कुछ ऐसे पहलुओं को भी उजागर किया है, जिसमें वह अपनी कला लोक परंपरा और शास्त्रीय साधना से एक ऐसा सांस्कृतिक पुल बनाया जा सकता है, जो नई पीढ़ी अपनी जड़ों से जोड़कर समाज को सकारात्मक विचारधारा के साथ नई दिशा देने में सक्षम है। 
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रियाणा की प्रतिभाशाली लोक कलाकार सोनिया का जन्म जन्म 24 सितंबर 2001 को यमुनानगर जिले के ससोली गाँव के एक मध्यमवर्गीय परिवार में सुरेंद्र कुमार और श्रीमति करनैलो देवी के घर में हुआ। उनके परिवार में कोई सांस्कृतिक या कला का माहौल नहीं था। सोनिया की प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही सरकारी स्कूल में हुई, उनके पिता कभी-कभी रिक्शा चलाकर भी परिवार का पालन पोषण करने का प्रयास करते थे, जबकि माता नगर पालिका में कच्ची कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं और आज भी उनका परिवार मां की आय पर आधारशिला हैं। इसका कारण यह था कि कोराना काल में घर में ब्रजपात हुआ और उनके पिता का दुर्भाग्यवश निधन हो गया, उस समय वह गुरु नानक गर्ल्स कॉलेज, यमुनानगर में स्नातक प्रथम वर्ष की पढ़ाई कर रही थी। पिताजी के निधन के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियाँ बढ़ने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ समय के लिए बाधित रही। लेकिन परिवार की जिम्मेदारी संभाल रही मां ने बेटे के अभाव में भी घर में तीन बेटियों का आत्मबल कभी कम नहीं होने दिया और आर्थिक चुनौतियों के बीच माँ के धैर्य और हमारी एकजुटता ने हमें आगे बढ़ने की शक्ति दी। बकौल सोनिया, उन्हें बचपन से ही नृत्य और अभिनय बेहद पसंद थे और खासतौर से नृत्य में अभिरुचि थी। जब भी कोई फिल्म देखती, तो उसके नृत्य को कॉपी करने की कोशिश करती और उसके संवादों की तरह अभिनय भी करती थी। कभी कमरे में अकेले, तो कभी किसी पारिवारिक आयोजन में जैसे ही संगीत बजता या कोई सीन मन को छूता, मेरा मन नृत्य और अभिनय की ओर खिंच जाता था। वह अभी अपने भविष्य से अनजान थी, लेकिन अहसास होता था कि उसकी राह राह कला की दुनिया से होकर ही जाती है और समय के साथ यह रुचि ही उनकी साधना बन गई और अब लोकनृत्य ही उसकी कला की पहचान बन चुकी है। उन्होंने बताया कि 12वीं की शिक्षा पूरी करने के बाद उसे गुरु नानक गर्ल्स कॉलेज में शिक्षा ग्रहण करते हुए कॉलेज के यूथ फेस्टिवल में उन्हें हरियाणवी लोक नृत्य के ग्रुप डांस में भाग लेने का अवसर मिला, जो दर्शकों के सामने उनकी पहली लोकनृत्य की प्रस्तुति थी, जहां उनकी कला को तालियों से मिली सराहना ने आत्मविश्वास को ऐसे बढ़ाया कि उनका मन पूरी तरह नृत्य में रच-बस गया। कॉलेज में ही उन्होंने हरियाणवी लोकनृत्य की बारीकियाँ सीखी थीं, जिसके बाद उन्होंने कई शूटिंग के दौरान बैकग्राउंड डांसर के रूप में काम करना शुरू किया। इसी दौरान उन्हें स्वर्गीय सिंगर राजू पंजाबी के साथ एक गाने में मुख्य भूमिका में भी काम करने का अवसर मिला। हालांकि इस क्षेत्र में मेहनत के मुकाबले पारिश्रमिक बहुत कम था और कार्यशैली असंगठित, विशेष रूप से बैकग्राउंड कलाकारों के लिए रही। इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि अपनी कला को एक सृजनात्मक, सम्मानजनक और स्थायी मंच पर ले जाएं। उनका कहना है उनकी कला यात्रा आसान नहीं रही, लेकिन हर मोड़ उनके लिए एक नई सीख लेकर आया। जब उन्होंने हरियाणवी लोकनृत्य और भारतीय शास्त्रीय नृत्य की दुनिया में कदम रखा, तब यह सिर्फ एक शौक नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार थी। गाँव की बेटी होने के नाते कई बार सामाजिक सीमाएं भी सामने आईं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल उठे, मंच पर खड़े होने को नजरों से तौला गया। परिवार और समाज के कुछ लोग शुरू में रोक-टोक करते थे, पर उन्होंने हार नहीं मानी। जब उनका नाम अखबारों में मंचों की तस्वीरें के साथ आने लगा तो धीरे-धीरे समाज की आवाजें खुद ही शांत होती चली गई और आज वही राह उसे पहचान और सम्मान दिला रही है। उनकी लोक कला की इस यात्रा में अभी मंज़िलें तो बहुत बाकी हैं। 
हरियाणवी संस्कृति सर्वोपरि 
हरियाणा की मिट्टी में जन्मी और उसी सांस्कृतिक धड़कनों में पली-बढ़ी सोनिया अपनी कला को केवल मंच की प्रस्तुति नहीं, बल्कि आत्मिक यात्रा मानती है। हरियाणवी लोक नृत्य में गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू, भाषा, लोकगीत, हंसी-मजाक और संघर्ष सब कुछ समाहित करते हुए हरियाणा संस्कृति को सर्वोपरि रखा है। अब सोनिया का झुकाव भारतीय शास्त्रीय नृत्य कथक की ओर भी है, जिसकी विद्या को पूरी श्रद्धा और लगन से सीख रही हैं, क्योंकि इसमें केवल ताल और गति नहीं, बल्कि गहराई से भाव, कथा और आत्मिक अनुशासन छिपा है। कथक की हर मुद्राएं, हर भाव-अभिनय मुझे भीतर तक छूते हैं और उनकी कला को एक नई दिशा प्रदान करते हैं। उनका कहना है कि अपनी कला में उनका लक्ष्य नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने का है, ताकि समाज को सकारात्मक विचारधारा के साथ नई दिशा मिल सके और उनकी कला मनोरंजन नहीं, बल्कि संस्कृति का वाहक बनकर धर्म, संस्कार और आत्म-चिंतन से जुड़ सके। 
लोक कलाओं के सामने चुनौतियां 
युवा लोक नृत्य कलाकार सोनिया का इस आधुनिक युग में लोक कला और संस्कृति की चुनौतियों को लेकर कहना है कि हमारी लोक नृत्य, संगीत, और रंगमंच जैसी पारंपरिक कलाओं को कहीं न कहीं संघर्ष करना पड़ रहा है, जिसका कारण डिजिटल माध्यमों ने मंचों को स्क्रीन में बदल दिया है। इसी कारण कभी समाज की आत्म रहीं लोक कलाएं अब सीमित मंचों और सीमित दर्शकों तक सिमटती जा रही हैं। हालांकि अभिनय और संगीत की विधाएं आज भी जीवित हैं, लेकिन व्यावसायिकता और दिखावे का प्रभाव पारंपरिकता, भावनात्मकता और सच्चे कलात्मक प्रयासों की पहचान को मुश्किल करता नजर आ रहा है। लेकिन आज समाज, खासतौर से युवा पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने की जरुरत है, ताकि इन कलाओं को केवल संग्रहालयों में ही नहीं, जीवंत मंचों पर भी जीवंत देखा जा सके। वहीं यह दुर्भाग्यपूर्ण सत्य है कि आज की युवा पीढ़ी की लोक कला, रंगमंच, अभिनय और साहित्य जैसी सांस्कृतिक विधाओं में रुचि कम होती जा रही है। इसका एक प्रमुख कारण है तेज़ी से बदलती जीवनशैली और सोशल मीडिया का प्रभुत्व, जिसने त्वरित मनोरंजन को प्राथमिकता बना दिया है। जबकि लोक कलाएं केवल प्रस्तुति नहीं होतीं, वह हमारे इतिहास, हमारी सभ्यता और हमारे मूल्य प्रणाली की जीवंत अभिव्यक्ति होती हैं। इसलिए हरियाणवी लोक नृत्य, रंगमंच और संगीत जैसे पाठ्यक्रमों को स्कूली स्तर पर लागू करके हर स्कूल में युवाओं को प्रेरित करने के लिए अनिवार्य करने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार को भी लोक कला और नृत्य को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष योजनाएं बनानी चाहिए, ताकि कलाकारों को आर्थिक और सामाजिक सहायता मिल सके, जिससे वे अपनी कला को सशक्त रूप से प्रस्तुत कर सकें। 
19May-2025

सोमवार, 12 मई 2025

साक्षात्कार: समाजहित में हिंदी साहित्य को जीवंत रखना आवश्यक: मीना चौधरी

कवियत्री के साथ सामाजिक कार्यकर्ता के रुप में भी बनाई पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: मीना चौधरी 
जन्मतिथि: 28 मार्च 1971 
जन्म स्थान: जमशेदपुर (झारखंड) 
शिक्षा: बीएससी, एमबीए 
संप्रत्ति: लेखिका, कवि, संपादक, उद्यमी और सामाजिक कार्यकर्ता 
संपर्क:3313, डीएलएफ, फेज-4, गुरुग्राम (हरियाणा), ईमेल-meena.choudhary7@gmail.com, मोबा.-8527722319 Ph-8527722319 
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--BY-ओ.पी. पाल 
साहित्य संवर्धन करने में जुटे साहित्यकार अलग अलग विधाओं में समाज को नई दिशा देने के मकसद से सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर अपनी लेखनी चलाते आ रहे हैं। ऐसे ही लेखकों में महिला साहित्यकार मीना चौधरी भी एक कवि के रुप में अपने रचना संसार को आगे बढ़ा रही है। साहित्य और सांस्कृतिक समृद्धि के लिए समर्पित लेखन करने के साथ वह कई साहित्यिक, सामाजिक, उद्यमी जैसी संस्थाओं के साथ जुड़ी हैं और एक सामाजिक कार्यकर्ता के रुप में भी अपनी भूमिका निभा रही हैं। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान साहित्यकार, कवि एवं लेखिका मीना चौधरी ने अपने साहित्यिक सफर को लेकर कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिसमें उनका मकसद गद्य और पद्य दोनों विधाओं में साहित्यिक व सांस्कृतिक मंचों पर सक्रिय रहकर हिंदी साहित्य को जीवंत और विकासशील बनाए रखना है, ताकि साहित्य और समाज में उनकी सार्थक भूमिका बनी रहे। 
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महिला साहित्यकार एवं लेखिका मीना चौधरी का जन्म 28 मार्च 1971 को जमशेदपुर(झारखंड) में एक मैथिल ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता जमशेदपुर स्थित टेल्को कंपनी में इंजीनियर थे और माता एक समर्पित गृहिणी रहीं। उनका बचपन जमशेदपुर में ही बीता और उनका और दो भाइयों का पालन-पोषण तथा शिक्षा भी जमशेदपुर में ही हुई। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लिटिल फ्लावर स्कूल(कॉन्वेंट स्कूल ) से हासिल की। उनके परिवार या घर में किसी प्रकार का साहित्यिक या सांस्कृतिक माहौल नहीं था। उन्होंने अपनी शिक्षा विज्ञान विषयों में की, लेकिन हिंदी भाषा के प्रति उनका एक विशेष लगाव रहा और इसी हिंदी प्रेम के चलते उनकी साहित्यिक रुचि विकसित हुई। स्कूल और कॉलेज के दिनों में कभी-कभार कुछ भावनात्मक लेखन करती थी और उसी दौरान आकाशवाणी से भी जुड़ने का अवसर मिला। हालांकि छात्र जीवन की व्यस्तता के कारण यह साहित्य की रुचि थोड़ा पीछे रही। इसके बाद गृहस्थी में आने के बाद जब बच्चे बड़े हो गये तो वहीं साहित्यिक लगाव फिर से मन में जागृत होने लगा और उन्होंने अपनी साहित्यिक पारी को गति देकर लेखन शुरु कर दिया। उनके लेखन किसी एक विशेश विषय तक ही सीमित नहीं है, बल्कि समाज के विभिन्न पहलुओं पर कविताएं और आलेख लिखती आ रही हैं। उन्होंने बीएससी की शिक्षा के दौरान अपनी पहली रचना लिखी, जो स्थानीय अखबारों में भी प्रकाशित हुई। इससे उनका लेखन के प्रति ऐसे में आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था, जब उनकी रचना रेडियो पर भी प्रसारित हुई। उनका पहला हिन्दी कविता संग्रह 'रस स्राविता' प्रकाशित हुए, जिसे भाषा सहोदरी हिन्दी के सहयोग से 2019 में प्रकाशित किया गया। जबकि उनका दूसरा काव्य संग्रह 'पैबंद पर सितारे' शीर्षक से पुस्तक के रुप में 2021 में पाठकों के सामने आया। जबकि तीसरा काव्य संग्रह शीघ्र ही प्रकाशित होगा। बकौल मीना चौधरी, वह हिंदी और अंग्रेज़ी भाषा के अलावा मैथिली में भी लेखन करती आ रही हैं। उन्होंने 'भाषा सहोदरी हिंदी' सहित कई संस्थाओं के साथ मिलकर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कार्य किया है, जिसके लिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली और उन्होंने मॉरीशस, दुबई और सिंगापुर जैसे देशों में हिंदी को मंच को साझा किया। उनका कहना है कि उनके साहित्य क्षेत्र के सफर में उनके पति, बेटियों और दामाद समेत परिजनों का निरंतर सहयोग और प्रोत्साहन मिला है, जो उनके लिए सबसे बड़ी प्रेरणा है। साहित्य क्षेत्र के अलावा वे सामाजिक सेवा में भी सक्रीय हैं और स्वच्छता जागरण समिति जैसी संस्थाओं से जुड़ी हैं। वहीं वे कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ी होने के साथ भाषा सहोदरी की मुख्य संयोजिका हैं और आगमन की राष्ट्रीय महासचिव एवं महिला काव्य मंच, गुरुग्राम की महासचिव भी रही हैं। वे खुद के संस्थान इंडसोल एंटरप्राइजेज की अध्यक्ष भी हैं यानी इंडसोल एंटरप्राइजेज में स्व-नियोजित, उद्यमशीलता की दुनिया में अपनी व्यावसायिक विशेषज्ञता उनके पास है। एक साहित्यकार के रुप में वह राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन दुबई और मॉरीशस में मुख्य प्रबंधक रही हैं एवं भाषा सहोदरी पत्रिका की सम्पादक भी हैं। वहीं उन्होंने अनेक साहित्यिक मंचों के अलावा कई टीवी चैनलों एवं आकाशवाणी के कार्यक्रम में भी भागीदारी की है। 
आधुनिक युग में साहित्य चुनौतीपूर्ण महिला साहित्यकार, कवियत्री एवं लेखिका मीना चौधरी का इस आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति को लेकर कहना है कि आज साहित्य अत्यंत रोचक, बहुआयामी और चुनौतीपूर्ण है। तकनीकी प्रगति, सोशल मीडिया और डिजिटल माध्यमों ने अभिव्यक्ति के नए रास्ते खोले हैं, जिससे साहित्य अब सिर्फ पुस्तकों तक सीमित नहीं रहा। ब्लॉग, ई-बुक्स, पॉडकास्ट और यूट्यूब जैसी डिजिटल माध्यमों ने नए लेखकों को मंच दिया है, और पाठकों को विविधता से भरा साहित्य उपलब्ध कराया है। हालांकि, इस डिजिटल बाढ़ में गंभीर साहित्य कहीं-कहीं हाशिये पर भी दिखता है, जिसका प्रभाव खासतौर से युवा पीढ़ी पर तेजी से हुआ है और युवा पीढ़ी की साहित्य में घटती रुचि के पीछे डिजिटल मनोरंजन का वर्चस्व, त्वरित जानकारी की आदत, और पाठ्यक्रम केंद्रित शिक्षा प्रणाली ने साहित्यिक संवेदनाओं को हाशिए पर डाल दिया है। तात्कालिकता, वायरल होने की लालसा और मनोरंजन की प्रधानता के चलते साहित्यिक गहराई और संवेदना के स्तर पर कभी-कभी समझौता होता है। इसके बावजूद साहित्य आज भी सामाजिक सरोकारों का दर्पण बना हुआ है और बदलते परिवेश में मानसिक स्वास्थ्य, लैंगिक समानता, पर्यावरण और राजनीतिक चेतना जैसे आधुनिक विषयों पर सशक्त लेखन हो रहा है। जहां तक साहित्य के पाठकों में कमी आने का कारण है उसमें तेजी से बदलती जीवनशैली और डिजिटल माध्यमों की बढ़ती निर्भरता है। इसलिए युवाओं को साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि साहित्य न केवल भाषा और अभिव्यक्ति को समृद्ध करने के साथ सोचने, समझने और महसूस करने की क्षमता भी बढ़ाता है। ऐसी प्रेरणा युवाओं को अपनी संस्कृति, समाज और मानवीय मूल्यों से जोड़ने में सहायक होगी। 
प्रकाशित पुस्तकें 
महिला लेखिका एवं कवि मीना चौधरी की प्रकाशित पुस्तकों में रस स्राविता, पैबंद पर सितारे और मेरी स्वरचित काव्य संग्रह हैं प्रमुख रुप से शामिल हैं। उनके हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषा में साँझा संकलन एवं पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, लघुकथा और लेख भी प्रकाशित हुए है। इसके अलावा वे गद्य और पद दोनों साहित्यिक विधाओं में आलेख और रचनाएं लिखती आ रही हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
साहित्यकार एवं लेखिका मीना चौधरी को साहित्यिक क्षेत्र में योगदान के लिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मंचो से अनेक सम्मान मिल चुके हैं। इनमें विश्व हिंदी सम्मान दुबई, 'सहोदरी रत्न' मॉरिशस, 'शब्द मनीषी सम्मान', विविधता में एकता राष्ट्रीय सम्मान, आगमन तेजस्विनी अवार्ड, रंग राची सम्मान, स्वर लहरी सम्मान, प्रेरणा पीढ़ी पुरस्कार, भाषा सहोदरी सम्मान प्रमुख रुप से शामिल रहे। इसके अलावा उन्हें अनेक साहित्यिक मंचों से भी विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। 
14May-2025

सोमवार, 5 मई 2025

चौपाल: समाज को संस्कृति से जोड़ने में कला का अहम योगदान: रवि मोहन

अभिनेता एवं रंगकर्मी के रुप में बॉलीवुड तक बनाई अपनी पहचान 
       व्यक्तिगत परिचय 
नाम: रवि मोहन 
जन्मतिथि: 11 मई 1975 
जन्म स्थान: कैथल 
शिक्षा: एम.फिल (आधुनिक इतिहास) कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय, (हरियाणा में 20वीं सदी में रंगमंच विकास) 
 संप्रत्ति: स्वतंत्र थिएटर निर्देशक, रंगकर्मी 
 संपर्क:वार्ड नं. 10, पंचमुखी हनुमान मंदिर, सफीदो, जिला जींद(हरियाणा), मोबा. 9215512300, ईमेल- rasravimohan@gmail.com  
 BY-ओ.पी. पाल 
रियाणा की समृद्ध लोक कला एवं संस्कृति की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में विभिन्न विधाओं में अपनी कला के हुनर से ऐसे कलाकारों की अहम भूमिका है, जो हरियाणवी भाषा, बोली, सभ्यता, संस्कृति और परंपराओं के संवर्धन में जुटे हुए हैं। ऐसे ही कलाकारों में अभिनेता एवं रंगमंच के कलाकार रवि मोहन भी शामिल है, जिन्होंने बॉलीवुड तक का सफर करने के बावजूद अपनी संस्कृति को सर्वोपरि रखते हुए समाज को सकारात्मक संदेश देने के मकसद से अपनी कला को बुलंदियों तक पहुंचाया है। साहित्यिक नाटकों, कहानियों के मंचन और सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर अपनी कला के संसार को दिशा देने का प्रयास किया है। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में अभिनेता, थिएटर निर्देशक और रंगकर्मी रवि मोहन ने अपनी कला के सफर को लेकर कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिससे समाज को अपनी संस्कृति से जोड़े रखने में कला महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। 
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रियाणा के लोक कलाकार रवि मोहन का जन्म 11 मई 1975 को रास बिहारी और श्रीमती अनीता भारद्वाज के घर में हुआ। उनके परिवार में किसी प्रकार का साहित्य या सांस्कृतिक माहौल तो नहीं था, लेकिन उनके पिता कभी अपनी शादी से पहले कैथल में रामलीला में कुछ न कुछ किरदार करते थे। लेकिन शादी के बाद उनके जन्म के बाद कभी मंच पर काम नहीं कर पाए। उनका परिवार 46 साल पहले कैथल सफीदों आ गया था। जहां उन्होंने ग्रॉसरी का बिजनेस शुरू किया, जिसमें काफी आर्थिक नुकसान हुआ और माता पिता ने इस बड़े ही कठिन दौर में तीन भाई बहन का किसी तरह से पालन पोषण किया। सफीदों आने के परिवार और उनके जीवन में काफी संघर्ष का सामना करना पड़ा। उनकी रवि मोहन की पत्नी गवर्नमेंट कॉलेज सफीदों में अंग्रेजी की शिक्षका है और लख्मीचंद से एनीमेशन और वीएफएक्स कोर्स कर रही है। बकौल रवि मोहन, उनकी प्राथमिक शिक्षा सरकारी स्कूल में हुई और साल 1990 में सरकारी स्कूल से ही दसवीं पास करने के बाद वह पिताजी के साथ उनके काम में हाथ बंटाने लगा, लेकिन तीन-चार साल के बाद उन्हें शुभचिंतकों ने पढ़ाई को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। साल 1993 में उन्होंने कालेज में दाखिला लिया, जहां उनके मित्र उससे तीन साल आगे थे। कॉलेज पास आउट करने के बाद उन्होंने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र में आधुनिक इतिहास में एमए की और उसके बाद अच्छे नम्बरों से एमफिल करने में कामयाब रहा। कला के क्षेत्र में अपनी अभिरुचि के बारे में रवि मोहन ने बताया कि बचपन में स्कूली शिक्षा के दौरान उन्हें कभी-कभी मंच पर ग्रुप सॉन्ग और छोटे-छोटे अभिन्य करने का सौभाग्य मिला, लेकिन रंगमंच जानने का मौका कभी नहीं मिला। कॉलेज के दौरान उन्हें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में मौका मिला और उनकी कला से उन्हें सम्मान मिला, क्योंकि वह कॉलेज में भी एनसीसी की क्विज कांटेस्ट, गेम सॉन्ग, फैंसी ड्रेस, नाटक, नृत्य और गाना बजाना जैसी गतिविधि में बढ़चढ़कर हिस्सा लेते रहे। इन सांस्कृतिक गतिविधियों में उनके साथ सभी सहपाठी लगभग गांव की पृष्ठभूमि से ही थे। विश्वविद्यालय में वे सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रीय रहते हुए लोक नृत्य और नाटकों में भागीदारी करते रहे। लोक कलाकार और थिएटर निर्देशक रवि मोहन ने बताया कि संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली और नेशनल स्कूल आफ ड्रामा फैकल्टी के विशेषज्ञों के सानिध्य में उन्होंने साल 2002 और 2003 में रंगमंच की कार्यशालाओं से प्रशिक्षण लिया और दो माह के अल्पकाल में उन्होंने रंगमच की बारीकियों को जाना, तो वह रंगमंच की तरफ आकर्षित होकर रंगकर्मी के रुप में अपना कला को आगे बढ़ाने लगा। पिछले करीब 28 वर्षों से रंगमंच से जुड़कर करीब 50 नाटकों का निर्देशन किया है, जबकि 15 नाटकों में अभिनय करने के अलावा कुछ वेब सीरीज और टीवी सीरियल्स में भी कोई न कोई किरदार किया। उन्हें हरियाणा की तरफ से राष्ट्रीय नाट्य प्रतियोगिता में बतौर निर्देशक के रुप में भी काम करने का मौका मिला। अंतर्राष्ट्रीय गीता जयंती समारोह और राष्ट्रीय विद्यालय नई दिल्ली की तरफ से आयोजित अंतर्राष्ट्रीय नाटय उत्सव भारत रंग महोत्सव में भी भाग लिया। उन्होंने 2003 में राज कला मंच नामक खुद की एक नाटक एनजीओ का पंजीकरण कराया और इस मंच से अब तक 14 राष्ट्रीय नाटक उत्सव चैनल थिएटर के नाम से आयोजित किए हैं, जिनमें सीमा विश्वास, टॉम अल्टर, राकेश बेदी, कुमुद मिश्रा, सुधीर पाण्डेय, पद्मश्री नीलम मान सिंह, सुरेश शर्मा, राजेश सिंह, चित्तरंजन त्रिपाठी, वामन केंन्द्रे जैसे कई बड़े थिएटर कलाकारों ने अपनी सहभागिता निभाई। साल 2007 से 2010 तक वह हरियाणा से मुंबई और मुंबई से हरियाणा आकर काम करता रहा। एक समय ऐसा आया, जब उन्हें यह निर्णय करना था कि उन्हें मुंबई में या अपने हरियाणा में काम करना है। इसके बाद उन्होंने हरियाणा में रंगमंच करने का फैसला लिया कि वह राज कला मंच के लिए पूरा समय देकर हरियाणा की संस्कृति के संवर्धन करने का काम करेंगे। रवि मोहन 'हरियाणा में रंगमंच की संभावनाएं और सरकार की भूमिका' के अलावा 'रामायण और महाभारत के संदर्भ में विश्व रंगमंच' शीर्षक पर वरिष्ठ फेलोशिप कर रहे हैं। उन्होंने एनजेडसीसी, डब्ल्यूजेडसीसी, एनसीजेडसीसी, एमएसीसी, एसएनए दिल्ली, सीएसएनए चंडीगढ़, संस्कृति मामले हरियाणा और हरियाणा कला परिषद जैसे सरकारी सांस्कृतिक संगठनों के साथ काम किया है और वर्तमान में वह एक निर्देशक के रूप में अपने नाटकों का मंचन कर रहे हैं।
कला व संस्कृति को प्रेरित करना आवश्यक 
रंगमंच के कलाकार रवि मोहन का कहना है कि इस आधुनिक युग में रंगमंच की स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। हरियाणा में किसी भी कॉलेज और विश्वविद्यालय में रंगमंच में शिक्षा नहीं दी जा रही है। इसलिए युवा पीढ़ी नाटकों के साथ जुड़कर रह जाती है। मसलन रंगमंच ऐसी मुश्किल विधा है, जिसके लिए संस्कार ग्रहरण करना भी बड़ी चुनौती है। आजकल सोशल मीडिया की वजह से युवा वर्ग अपनी संस्कृति और संस्कारों से दूर होता नजर आ रहा है। इसलिए इस बदलते परिवेश में युवाओं को लोक कला अभिनय संगीत व संस्कृति के लिए प्रेरित करने की आवश्यकता है। समाज और सरकार को उत्तम साहित्य, लोक कला और अन्य कला की विद्यायों, अच्छे नाटकों, अच्छी फिल्मों का सहयोग और परमोशन करना होगा। वहीं समाज और सरकार को कला का समर्थन करके कलाकारों को प्रोत्साहित करके सहयोग करने की जरुरत है। समाज और सरकार को उत्तम साहित्य, लोक कला और अन्य कला की विद्यायों, अच्छे नाटकों, अच्छी फिल्मों का सहयोग और परमोशन करना होगा। 
हरियाणा में संजोया अभिनय 
अभिनेता एवं रंगकर्मी रवि मोहन ने नेशनल चैनल डीडी-1 पर अक और कहानी, डीडी-हिसार के लिए सबरंग, सोनी टीवी पर क्राइम पेट्रोल एवं जिंदगी के क्रॉस रोड के अलावा एमएक्स प्लेयर पर कैंपस डायरी, स्टेज ऐप पर मेरे यार की शादी है और ब्रॉडलाइन एरोप्लान (फेदर फिल्म) में अपने अभिनय का किरदार निभाया है। उन्होंने दूसरा आदमी दूसरी औरत और एक शाम कहानियों के नाम, धीमा जहर, हरियाणा के क्रांतिवीर, मैकबेथ, नागमंडल, मारिया फरार, रेजांग-ला द लास्ट वार, अंधा युग, मैं कहानी हूं, कनुप्रिया, छाया के बिना आदमी के अलावा भारत के विभिन्न राज्यों में विभिन्न राष्ट्रीय रंगमंच समारोहों में अपनी कला से अहम योगदान दिया। इसके अलावा उन्होंने हरियाणा के जिलों के शिक्षण संस्थानों और विभिन्न ड्रामा स्कूलों में अभिनय और डिजाइनिंग के लिए विजिटिंग फैकल्टी के लिए भी अपनी कला का प्रदर्शन किया है। 
पुरस्कार एवं सम्मान 
अभिनेता एवं कलाकार रवि मोहन को वर्ष 2000 में राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ लोक नर्तक एवं सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला। वहीं इसी वर्ष के दौरान उन्हें कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा विश्वविद्यालय कलर से सम्मानित किया गया। जबकि वर्ष 2007 में राष्ट्रीय स्तर पर निर्देशन के लिए स्वर्ण पदक से नवाजा गया। इसके अलावा उन्हें हरियाणा में रंगमंच प्रोत्साहन के लिए राज्यपाल पुरस्कार, रंगमंच और सांस्कृतिक गतिविधियों में अनुकरणीय समर्पण के लिए रोटरी वोकेशनल पुरस्कार, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार जैसे सैकड़ो पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। 
05May-2025