सोमवार, 26 अगस्त 2024

साक्षात्कार: साहित्य सृजन के बिना समाज की कल्पना असंभव: संगीता बैनीवाल

बाल साहित्य, कविता, कहानी, लघुकथा, हाईकू तथा लेख जैसी विधाओं में साहित्य सृजन
         व्यक्तिगत परिचय 
नाम: संगीता बैनीवाल 
जन्मतिथि: 16 अक्टूबर 1966 
जन्म स्थान: गांव पारता जिला फतेहाबाद (हरियाणा)
शिक्षा: बी.ए., बी.एड, एम.ए.(हिंदी, अंग्रेजी व एजुकेशन)
संप्रत्ति: अध्यापिका एवं लेखिका 
संपर्क:1721, सेक्टर-21, पंचकूला(हरियाणा)। मोबा. 9417011424 
By- ओ.पी. पाल
भारतीय संस्कृति में समाजिक दृष्टि से घटित विषयों को लेकर लेखक एवं साहित्यकार विभिन्न विधाओं के माध्यम से सकारात्मक भूमिका निभाते आ रहे हैं, ताकि समाज अपनी संस्कृति, सभ्यता और रीति रिवाज की मूल जड़ो से जुड़ा रहे। हरियाणा की समृद्ध संस्कृति के संवर्धन की दिशा में महिला लेखकों और साहित्यकारों के योगदान को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता, जिन्होंने समाज को नई दिशा देने खासकर नारी विमर्श के विभिन्न पहलुओं को अपने लेखन के जरिए अपने साहित्य सृजन में उकेरा है। ऐसी ही महिला साहित्यकार संगीता बैनीवाल अपने रचना संसार में बाल मन से लेकर सामाजिक विषय, विचार, सोच, हर्ष तथा पीड़ा भाव को निहित करते हुए साहित्य साधना करने में जुटी हुई हैं। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान शिक्षिका और लेखिका संगीता बैनीवाल ने अपने साहित्यिक एवं लेखन के सफर को लेकर कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिसमें समाज में सकारात्मक विचारधाराओं का संचार करने में साहित्य की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
रियाणा की महिला साहित्यकार संगीता बैनीवाल का जन्म 16 अक्टूबर 1966 को जिला फतेहाबाद (हरियाणा) के गांव पारता में एक जमींदार परिवार में सज्जन सिंह नम्बरदार और श्रीमती चन्द्रो देवी के घर में हुआ। पिता सज्जन सिंह नम्बरदार ,माता श्रीमती चन्द्रो देवी हैं। परिवार में उनके माता पिता दोनों की शिक्षित थे। संगीता की प्राइमरी शिक्षा गांव के पांचवी कक्षा तक के स्कूल में हुई। इसलिए आगे की शिक्षा ग्रहण करने के लिए शहर में भेजा गया। उस समय गांव में वह पहली लड़की थी, जिसने ग्रेजुएशन तक की शिक्षा हासिल की। दरअसल उस समय आसपास के गांव में लड़कियों की शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता था और लड़कियों की छोटी उम्र में ही शादी कर दी जाती थी। उनके गांव और आसपास के गांव की उनके साथ पढ़ने वाली लड़कियों की पांचवीं पास करते ही शादियां हो चुकी थी। लेकिन उनका परिवार शिक्षित था इसलिए उसकी शादी 23 वर्ष की उम्र में कर दी गई। उनके पति धर्मपाल सिंह बैनीवाल रिटायर्ड चीफ इंजीनियर हैं। उनके दोनों बेटे दिव्यांक बैनीवाल और ध्वनित बैनीवाल भी इंजीनियर हैं। बकौल संगीता बैनीवाल शिक्षा अर्जित करने के लिए उन्हें परिवार से दूर रहना पड़ा उन्हें डायरी लिखने का शौक था। उनके लेखन कार्य की शुरुआत कालेज की वार्षिक पत्रिका से हुई, जिससे उनकी लेखनी को आत्मबल मिला। चूंकि उस समय फोन नहीं थे और अपने मन के भाव, सुख-दुख परिवार के साथ सांझा करने के लिए केवल पत्र ही एकमात्र जरिया था। यानी बाल मन में ही भावनाओं को शब्दों में पिरोने की कला के अंकुर पनपने लगे, जो उनके साहित्य सृजन की शुरुआत समझी जा सकती है। एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि जिंदगी में उतार चढ़ाव का होना भी स्वाभाविक है। इसलिए जब उनके पति का बहादुरगढ़ से सिरसा तबादला हुआ, तो घर का सामान पैक करने के दौरान उनकी दैनिक लेखन की डायरियां सामने आ गई। उन्हें एक शहर से दूसरे शहर में ढ़ोने के बजाए उन्होंने उन डायरियों को पुराने अखबार, पत्रिकाओं की रद्दी के सामान में रख दिया। उसी समय उनके पति की नजर उन डायरियों पर पड़ी तो वो उन डायरियों को अंदर उठा लाए और कहने लगे ये फेंकने की चीज नहीं है, इन्हें ले चलो सिरसा जा कर देखते हैं। सिरसा कुछ महीनों बाद पति ने साहित्यकारों से संपर्क किया कि उनकी पत्नी लेखन करती हैं। इन्हें पढ़कर बताएं पुस्तक छपवाने की विषयवस्तु है क्या?। इसके बाद मेरी रचनाएं पत्र पत्रिकाओं में छपने लगी और यहां उनकी दो पुस्तकें भी प्रकाशित हुई। इससे लेखन के प्रति बढ़े आत्मविश्वास के साथ उन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक विषयक सामग्री पर ज्यादा फोकस किया, लेकिन उनके बाल साहित्य में बाल मन व प्रकृति प्रेम की झलक भी उकेरी, तो हरियाणवी साहित्य में ग्रामीण आंचलिकता व मौलिकता पर जोर रहा। जबकि उन्होंने हिंदी कविताओं में नारी विमर्श के विभिन्न पहलुओं को छूआ है, तो वहीं कहानियों में सामाज में घटित विषय, विचार, सोच, हर्ष -पीड़ा भाव निहित करते हुए लेखन किया। उनके साहित्य सृजन को इतना प्रोत्साहन मिला कि साहित्यिक गतिविधियों में सक्रीय होने के कारण वे हिन्दी साहित्य प्रेरक संस्था जीन्द की अध्यक्ष भी रहते हुए संस्था के लिए जमीन उपलब्ध कराकर संस्था के भवन निर्माण में अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया। इसके अलावा वह हरियाणा लेखिका मंच सिरसा की उपाध्यक्ष और नवजागरण साहित्य संस्था नारनौंद में महासचिव के रूप में अपनी सेवा दे चुकी हैं। 
आधुनिक युग में बदली साहित्य की स्थिति 
आज के आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति को लेकर संगीता बैनीवाल का मानना है कि साहित्य की स्थिति पहले जैसी नहीं रही। नये युग में नए प्रयोग और निरंतरता के साथ परिवर्तित रुप भी नजर आता है। साहित्य समाज का नवसृजन करता है, समाज को नई दशा व दिशा देने वाला है इसलिए थोड़ा चिंता का भाव भी है कि कुछ विषयवस्तु में गिरावट भी देखने को मिलती है। यह भी कटु सत्य है कि साहित्य के पाठक कम हो रहे हैं। इसका कारण रातोरात लोकप्रिय होने के लिए साहित्यकार भी पढ़ते कम और लिखते ज्यादा हैं। वहीं युवा पीढ़ी की साहित्य पढ़ने में रुचि बिल्कुल नहीं है, जिसका कारण इंटरनेट पर शोर्ट विडियो,रील के जरिए मिलने वाला लुभाना खतरनाक ज्ञान है, जो आज के युवा की तेजी से बदलती मानसिक प्रवृत्ति चिंता का विषय भी है। इसलिए सामाजिक ढांचा और संस्कृति को संजोए रखने के लिए युवाओं को साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करने की आवश्यकता है। इस दिशा में माता-पिता ही नहीं, बल्कि लेखकों और साहित्यकारों को भी चाहिए कि वे युवाओं के लिए अच्छे साहित्य का लेखन कर उन्हें प्रोत्साहित करें। साहित्यिक संस्थाओं को समय समय पर कार्यशाला आयोजित कर युवा लेखकों को साहित्य की विभिन्न विधाओं से विषय वस्तुओं के प्रति सकारात्मक संदेश दें। 
साहित्य पर शोध कार्य 
प्रसिद्ध महिला साहित्यकार संगीता बैनीवाल की कृतियों पर शोध कार्य भी हो चुके हैं और ‘देखी तेरी गली बाबुल’ में लोक संस्कृति विषय पर (कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय विद्यालय में एमफिल के लिए विभिन्न युनिवर्सिटी से थिसिस लिखी जा चुकी हैं। वहीं संगीता बैनीवाल एवं उनका साहित्य कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय विद्यालय में पीएचडी के विषय में भी स्थान बना चुका है। इसके अलावा विनायका मिशन विश्वविद्यालय सेलम ,तामिलनाडु में शीर्षक ‘संगीता बैनीवाल: ‘व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ पर थिसिस लिखी जा चुकी है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
महिला साहित्यकार संगीता बैनीवाल हिंदी व हरयिाणवी लेखन में बाल साहित्य, कविता, कहानी, लघुकथा, हाईकू तथा लेख जैसी विधाओं में साहित्य सृजन कर रही है। उनकी अब तक कविता संग्रह ‘मेरे गाँव की लड़की’, ‘चक्षूफूल बिछाए हैं’, ‘स्मृति का धागा’ और ‘शब्दों की तलाश’ के अलावा बाल साहित्य ‘चॉकलेट का पेड़’, हरियाणवी काव्य संग्रह ‘देखी तेरी गली बाबुल’, हाईकू संग्रह ‘अहसास’ तथा लेख ‘सृष्टि अनुपम धरोहर’ जैसी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। अभी उनका एक कविता संग्रह और कहानी संग्रह ‘मेरु की बहू’ प्रकाशाधीन है।
पुरस्कार व सम्मान 
साहित्य सृजन में उत्कृष्ट योगदान देने के लिए प्रसिद्ध साहित्यकार संगीता बैनीवाल को अखिल भारतीय साहित्य परिषद् हरियाणा व अन्य साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। इनमें प्रमुख रुप से साहित्य सभा कैथल के श्री दयालचंद मदान स्मृति सम्मान, जागृति प्रकाश मलाड मुंबई से पूर्व पश्चिम काव्य गौरव सम्मान, हिंदी साहित्य प्रेरक संस्था जींद के शकुंतला देवी साहित्य-रत्न सम्मान शामिल हैं। हालांकि संगीता साहित्य क्षेत्र से जुड़ी हस्तियों को सम्मानित करने जैसी गतिविधियों में ज्यादा हिस्सेदार रही हैं। 26Aug-2024

मंगलवार, 20 अगस्त 2024

चौपाल: हरियाणवी संस्कृति और बोली के संवर्धन में जुटे लोक गायक सुनील बेरवाल

सामाजिक सरोकार के मुद्दों को हास्य व्यंग्य के जरिए उठाने से हुए लोकप्रिय 
                    व्यक्तिगत परिचय 
नाम: सुनील बेरवाल 
जन्मतिथि: 20 दिसम्बर 1987 
जन्मस्थान: गांव सीसर खरबला, हिसार (हरियाणा)
शिक्षा: पॉलिटेक्निक 
संप्रति: गायक, लेखक, 
सम्पर्क: गांव सीसर खरबला, हिसार (हरियाणा)
मोबा. 9812879328 ,8685995928, ई मेल-samundersingh328@gmail.com 
BY-ओ.पी. पाल 
रियाणवी लोककला और संस्कृति के लिए लोक कलाकार, लेखक, गीतकार, गायक अपनी कला के हुनर से सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर फोकस करके समाज में फैली कुरितियों का उन्मूलन करने में जुटे हुए हैं। ऐसे ही लोक कलाकार के रुप में सुनील बेरवाल ने विभिन्न विधाओं में गीत लेखन और गायकी के जरिए समाज को ऊर्जा देने की दिशा में हरियाणवी संस्कृति, सभ्यता और हरियाणवी बोली के संवर्धन में जुटे हुए हैं। खासतौर से हास्य व्यंग्य गीत लेखन और गायकी में लोकप्रिय हुए सुनील बेरवाल ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में अपने लोक कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में अपने सफर को लेकर कई ऐसे पहलुओं को भी उजागर किया, जिसमें समाज को अपनी संस्कृति और सभ्यता की मूल जड़ों से जुड़े रहने के संदेश देकर सामाजिक समरसता को जीवंत रखा जा सकता है। 
रियाणवी लोक संस्कृति को आगे बढ़ाते सुनील बेरवाल का जन्म 20 दिसम्बर 1987 हिसार जिले में गांव सीसर खरबला के एक किसान परिवार में शमशेर सिंह और रोशनी देवी के घर में हुआ। उनकी प्राइमरी शिक्षा गांव के सरकारी स्कूल में हुई। फिर गांव के ही स्कूल से साल 2004 में उन्होंने दसवीं कक्षा पास की, जिसके बाद उन्होंने राजकीय पॉलीटेक्निक हिसार में प्रवेश लिया और साल 2008 में पॉलीटेक्निक की शिक्षा पूरी की। लोक कलाकार सुनील बेरवाल के परिवार में कोई साहित्य या लोककला या संस्कृति का माहौल नहीं था, लेकिन परिवार में अपने ताऊ के बेटे को हरियाणवी नृत्य और एक्टिंग का शौंक हुआ। वहीं सुनील ने बचपन में अपनी माता को हरियाणवी गीत गुनगुनाते देखा, तो उसका प्रभाव इन पर होने लगा। यही वजह है कि गांव के सरकारी स्कूल मे प्राइमरी शिक्षा ग्रहण करते समय ही उनमें गाने के प्रति अभिरुचि होने लगी। हालांकि उनके परिवार में सुनील से पहले उनके ताऊ के बेटे वीरेंदर सिंह ने सबसे पहले हरियाणवी संस्कृति और नृत्य कला में हिस्सा लिया। परिवार में ऐसे माहौल को देख उनका शौंक भी कला और संस्कृति के क्षेत्र में बढ़ने लगा। जब वह महज 12 साल के थे तो उन्होंने अपनी लेखनी चलाई और पहली बार देशभक्ति का हरियाणवी गीत लिखा और फिर उस गीत को स्कूल में आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में सुनाया। उनके खुद के लिखे गीत को सुनकर उनके लेखन और गायकी सबको पसंद आई और खूब सराहा गया। इससे उनका लेखन व गायकी के प्रति आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था। इस बढ़ते मनोबल ने लोककला के क्षेत्र में उन्हें ऐसा प्रोत्साहन मिला कि उन्होंने इसके बाद लेखन और गायन को गति देना शुरु कर दिया। लोक कला व संस्कृति के क्षेत्र में उसके बाद उन्होंने बड़ी संख्या में हरियाणवी भजन और गीत लिखे और गांव के हर कार्यक्रम, कीर्तन और अन्य धार्मिक व सांस्कृतिक प्रोग्रामों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। बकौल सुनील बेरवाल उनकी आवाज को पसंद किया जाने लगा और वह देशभक्ति, सामाजिक, अध्यात्मिक तथा हास्य व्यंग्य गीतों का लेखन भी करने लगे। उनकी आवाज ने सभी कार्यक्रमों में दर्शकों व श्रोताओं को खूब लुभाया। अपनी स्कूली शिक्षा और तकनीकी शिक्षा के दौरान वह संस्थानों में आयोजित होने वाले वार्षिकोत्सव और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लगातार हिस्सा लेते रहे और अपनी कला को निखारते रहे। इस दौरान उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन और गायी के अवार्ड भी मिले। 
यहां से मिली मंजिल 
लोक गायक सुनील बेरवाल ने बताया कि साल 2012 में उन्होंने एक ब्रेक के बाद गीत लेखन और गायन शुरु करके उसे ऐसी गति दी कि उनके गीतों और गायकी से इस क्षेत्र में उन्हें लोकप्रियता मिलने लगी। खासतौर से उन्होंने लेखन व गायकी के विस्तार में हास्य व्यंग्य गीतों के साथ अभिनय से लोगों के मनो को जीतकर उन्हें खूब आकर्षित किया। इस दौरान उन्होंने एक हास्य यानी कॉमेडी फिल्म बनाई, जिसे टेली फिल्म के रुप में बहुत ही ज्यादा चर्चित रही। लोककला के क्षेत्र में यह उनकी पहली टेली हास्य फिल्म थी, जिसमें उनकी हंसने की कला को सर्वाधिक पसंद किया गया। यही नहीं उनकी इस हास्य फिल्म को बेस्ट अवार्ड मिला और अनेक सांस्कृतिक मंचों पर भी उन्होंने हास्य व्यंग्य की कला का प्रदर्शन किया। उन्होंने बताया कि यह कटु सत्य है कि किसी भी क्षेत्र में उतार चढ़ाव जिंदगी का हिस्सा होता है। ऐसा उनकी कला में भी आया। मसलन पॉलीटेक्निक की पढ़ाई पूरी करने के बाद साल 2009 में उनके हरियाणवी गीतों का एक एलबम आया, लेकिन उसका प्रतिसाद यानी प्रत्युत्तर अच्छा नहीं रहा। इसका कारण था कि संगीत निर्देशक और कैमरामैन ने स्वार्थवश अच्छा काम नहीं किया और उससे एलबम बनाने के नाम पर काफी धनराशि हड़प कर ली। एक किसान परिवार का बेटा होने के नाते उनका ऐसा मनोबल टूटा कि मानसिक रुप से परेशान होने की वजह से दो साल तक लोक कला के क्षेत्र में कोई काम नहीं किया। गायक सुनील ने बताया कि इसके बाद मित्रों और परिवार के बढ़ाये गये हौंसले के बाद उन्होंने साल 2012 में फिर से अपना गीत लेखन और गायन शुरु किया, तो उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और वह अभी भी हरियाणवी संस्कृति और हरियाणवी बोली को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। 
संगीत कला की स्थिति नाजुक 
आधुनिक युग मे लोक कला और संगीत के सामने चुनौतियों को लेकर सुनील बेरवाल का कहना है कि इस सोशल मीडिया और व्यस्त जीवन के दौर में संगीत व कला की स्थिति नाजुक दौर में है। खासकर युवा पीढ़ी की लोक कला और संस्कृति के प्रति अभिरुचि बेहद कम है, इसका कारण पाश्चत्य संस्कृति और मोबाइल में उलझने के साथ द्विअर्थी लोक संगीत या अभिनय के आकर्षण युवाओं को सामाजिक और अपनी संस्कृति से दूर ले जा रहा है। आजकल युवाओं को कला के छोटे और ऑनलाइन प्लेटफार्म के फेर में पड़ी युवा पीढ़ी का सीधा प्रभाव समाज और संस्कृति को हाशिए पर ले जा रहा है। इसलिए लोक कलाकारों को द्विअर्थी लेखन या गायन को त्यागकर युवाओं को अभिनय और लोककला संगीत के लिए प्रेरित करना बहुत आवश्यक है। इसके लिए गांव से लेकर स्कूल व कालेज स्तर पर बच्चों को अपनी संस्कृति और संस्कारों से जुड़े कार्यक्रमों के प्रति प्रेरित करना आवश्यक है, तभी हम समाज को सकारात्मक विचाराधारा से जोड़े रख सकते हैं। 
19Aug-2024

शुक्रवार, 16 अगस्त 2024

साक्षात्कार: काव्यात्क शैली के अनूठे साहित्यकार त्रिलोक चंद फतेहपुरी

सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर साहित्य सृजन कर बनाई पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: त्रिलोक चंद फतेहपुरी 
जन्म तिथि: 04 अक्टूबर 1959 
जन्म स्थान: गांव फतेहपुर, जिला महेंद्रगढ़ (हरियाणा)
शिक्षा: एम.ए., बी.एड., पीएचडी 
संप्रत्ति: सेवानिवृता हिंदी प्रवक्ता, शिक्षा विभाग हरियाणा 
संपर्क: वार्ड नं.-29, गली -2 ,म. नं.- 1913 राव चिरंजी लाल कालोनी, हजारीवास, रेवाड़ी , हरियाणा। मोबा.-9992381001, ईमेल-sentrilokchand@gmail.com
 BY--ओ.पी. पाल 
साहित्यिक क्षेत्र के मूर्घन्य विद्वानों की नजर में साहित्य जगत में साहित्यकारों की हरेक विधा किसी कला से कम नहीं है। खासतौर से काव्यात्मक शैली में समाज के समक्ष अभिव्यक्ति को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ऐसी ही अनूठी कला में माहिर वरिष्ठ साहित्यकार त्रिलोक चंद फतेहपुरी ने अपनी कविताओं में सामाजिक बुराइयों और विसंगतियों पर करारा प्रहार करते हुए समाज को सकारात्मक संदेश देने का प्रयास किया है। ऐसा उनके रचना संसार में सामाजिक सरोकार और सामयिक मुद्दों का समावेश में साफतौर से देखा जा सकता है। हिंदी और हरियाणवी बोली में गद्य और पद्य शैलियों में साहित्य सृजन करते आ रहे साहित्यकार एवं कवि त्रिलोक चंद फतेहपुरी ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान अपने साहित्यिक सफर को लेकर कई ऐसे पहलुओं को भी उजागर किया है, जिसमें उनकी काव्यात्मक शैली समाज को समर्पित रही हैं। 
रियाणा के वरिष्ठ साहित्यकार त्रिलोक चंद का जन्म 04 अक्टूबर 1959 को महेन्द्रगढ़ जिले के गांव फतेहपुर में नंद राम और श्रीमती केशर देवी के घर में हुआ। उनके परिवार में कोई साहित्यिक माहौल तो नहीं था, लेकिन उनके पिता महाशय जी को गाने बजाने का शौक था। पिता का उन्हें हमेशा आशीर्वाद मिलता रहा। साल 1991 में वे रा.क.उ.वि. बाछौद में शिक्षक के पद पर कार्यरत थे, तो उन्होंने गुड़गांव ग्रामीण बैंक के ‘वृक्षारोपण कार्यक्रम’ में स्वयं की लिखी एक 16 पंक्तियों की बाल कविता पहली बार सुनाई। इस कविता की चर्चा उन्होंन अपनी पहली पुस्तक ‘ऐसी बेटी बण जाऊं’ में भी की है। उसके बाद उनका लेखन कार्य जारी रहा और अपनी लिखी कविताएं स्कूल में बच्चों के कार्यक्रम में ही पढ़ने लगे। जब उन्होंने 200 से अधिक कविताएं लिख ली, तो वह उन्हें छपवाना चाहता था, लेकिन एक शिक्षा अधिकारी ने उन्हें यह कहकर मना कर दिया कि विभाग की अनुमति के बिना वह पुस्तक नहीं छपवा सकते। इसलिए वह सेवानिवृत्त होने तक कोई पुस्तक नहीं छपवा सका और न ही कविता सुनाने के लिए उन्हें कोई मंच नहीं मिला। इसके बाद उन्होंने ‘मुझे मंच पर आने दो’ शिर्षक से भी एक कविता लिख डाली। साल 2014 में इस कविता को उन्होंने अपने गुरुजी हास्य कवि हलचल हरियाणवी को सुनाई, जिससे वह प्रभावित हुए और उन्हें अपने साथ काव्य मंचों पर ले जाने लगे। उन्हीं के मार्ग दर्शन की वजह से वह एक मंचीय कवि बन गये। मसलन यहीं से उनका मंचों पर काव्य पाठ करने का सिलसिला आरंभ हुआ। इसके बाद अब तक देश के विभिन्न राज्यों व शहरों के अलावा उन्हें नेपाल के काठमांडू, विराटनगर और पोखरा में भी काव्य पाठ करने का मौका मिला है। उनके कविता लेखन और काव्य पाठ का फोकस बाल चरित्र निर्माण, सामाजिक समस्याएं, समाज सुधार, देशभक्ति, राष्ट्र प्रेम, महान व्यक्तित्व, प्रकृति चित्रण,तीज-त्यौहार और हास्य व्यंग्य पर रहा है। वहीं गुरु हलचल हरियाणवी के ही मार्ग दर्शन से उनकी पुस्तकें भी प्रकाशित होने लगी और अब तक उनकी पाठकों के समक्ष 16 पुस्तकें आ चुकी हैं। उनकी कविताएं देश के पत्र पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हो रही हैं। उन्हें आकाशवाणी व दूरदर्शन से काव्य पाठ तथा लघु कथा वाचन करने के भी मौके मिल रहे हैं। 
आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति चिंताजनक
आधुनिक युग में साहित्य सृजन की स्थिति को लेकर त्रिलोक चंद फतेहपुरी का कहना है कि अनेक विषयों को लेकर गद्य व पद्य दोनों विधाओं में खूब साहित्य लिखा जा रहा है और साहित्य सृजन आज उच्च पराकाष्ठा पर है। उनका कहना है कि कोरोना काल के बाद तो लेखकों और कवियों की बाढ़ सी आ गई। गद्य लेखन की बजाय पद्य विद्या में ज्यादा लेखन हो रहा है। इसके चलते नाटक, उपन्यास, निबंध, कहानी, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत आदि के लेखन की गति कम नजर आ रही है। उनके विचार से साहित्य के पाठक बहुत कम हो हुए हैं, खासकर युवा पीढ़ी पुस्तक पढ़ने में रुचि नहीं रही। इसका कारण अधिकतर लेखक युवाओं के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण अपना रहे हैं यानी ऐसे लेखक दोषों और कमियों को तो उजागर कर रहे हैं, लेकिन उनके गुणों का बखान करना भूलते जा रहे हैं। इस नकारात्मक लेखनी का असर युवाओं पर पड़ना स्वाभाविक है। आज के इस इंटरनेट युग में युवा पीढ़ी साहित्य पढ़ने की बजाय कंप्यूटर इंटरनेट व सोशल मीडिया पर व्यस्त रहने लगे हैं। इसी वजह से युवा पीढ़ी के निर्लज्ज, बेलगाम, अकर्मण्य, कर्तव्य पथ से विचलित और संस्कारहीन और दिशाहीन होने का समाज पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। जबकि समाज और अपनी संस्कृति को जीवंत रखने के लिए युवाओं को साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करने की ज्यादा जरुरत है। इसके लिए पुस्तकालय खोले जाएं जहां अच्छा साहित्य पढ़ने के लिए होना चाहिए। 
प्रकाशित पुस्तकें 
हरियाणा के साहित्यकार एवं कवि त्रिलोक चंद सेन की अभी तक 16 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें प्रमुख रुप से हरियाणवी बाल कविता संग्रह ऐसी बेटी बण जाऊं, बाल कविता संग्रह वाह! भारत की बेटियां, हरिवाणवी कविता संग्रह मुझे मंच पर आने दो, यो सै म्हारा हरियाणा, झलक हरियाणे की, डंडे की फटकार, दोहा संग्रह त्रिलोकी सतसई, हरियाणवी कहानी-किस्से घंटू के कारनामें व बदलू का ब्याह, कुंडलियां संग्रह खुली ढोल की पोल, यात्रा संस्मरण काठमांडू का आनंद तथा उत्कल दर्शन, चंपू संग्रह मांडू का सफ़र व कयामत का दौर, गद्य और पद्य महिमा लालदास की तथा हरियाणवी अनुवाद आधुनिक भारत निर्माण म्हॅं सतगुरु कबीर का योगदान शामिल हैं। इसके अलावा ये हीरे हिंदुस्तान के, गीत वतन के गाएं, रतनपुर की महामाया, घनाक्षरी छंद की छटा, मेरे मुक्तक, सैर सपाटा नेपाल का, महकता बचपन, हरियाणा के ठाठ बाट, अभागा घंटू और पड़ोसी नामा शीघ्र ही पाठकों के समक्ष आने को तैयार हैं। हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला से कोई पुरस्कार नहीं मिला है।
पुरस्कार एवं सम्मान 
साहित्यकार एवं कवि त्रिलोक चन्द फतेहपुरी को साहित्य सृजन में उत्कृष्ट योगदान के लिए अब तक सैकड़ो पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। उन्हें नेपाल भारत साहित्य महोत्सव काठमांडू के अंतर्राष्ट्रीय साहित्य सम्मान, राष्ट्रीय शिक्षा गौरव शिखर सम्मान, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान, लता मंगेशकर स्मृति सम्मान, स्वर साधना साहित्य सम्मान, हिंदी गौरव सम्मान, काव्य गौरव सम्मान, निराला सम्मान, हरियाणा स्मृति सम्मान, हरियाणवी काव्य साधक सम्मान, साहित्य सुमन एवं साहित्यश्री सम्मान, शब्द श्री सम्मान, कलमवीर सम्मान, निराला सम्मान, हस्तलिपि लिखावट सम्मान, राष्ट्र प्रेमी सम्मान, काव्य सुमन सम्मान, काव्य मेधा सम्मान, सूर्य साहित्य रत्न सम्मान, पर्यावरण संरक्षक सम्मान, ऋचा स्मृति सम्मान, भारत माता अभिनंदन सम्मान, शौर्य सम्मान, साहित्य गौरव सम्मान, भारतीय श्री सम्मान, हिंदी साहित्य शिरोमणि सम्मान प्रमुख रुप से शामिल हैं। इसके अलावा उन्हें साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा मंचों पर सम्मानित किया जा चुका है। 
12Aug-2024

सोमवार, 5 अगस्त 2024

चौपाल:हरियाणवी लोक संस्कृति के संवर्धन में जुटे गीतकार समुन्द्र सिंह

गीत, रागनी, भजन, गजल, कथा लेखन में भी बनाई पहचान 
        व्यक्तिगत परिचय 
नाम: समुन्द्र सिंह पंवार 
जन्मतिथि: 06 जुलाई 1976 
जन्मस्थान: गांव बहलबा, रोहतक (हरियाणा) 
शिक्षा: स्नातक, स्नातकोत्तर (हिन्दी) एवं आशुलिपि लेखक 
संप्रति: गीतकार, लेखक, सम्पादक, साहित्य-रचना इ पत्रिका 
सम्पर्क:गांव बहलबा, रोहतक (हरियाणा)। मोबा.9812879328/8685995928, ईमेल-samundersingh328@gmail.com 
By-ओ.पी. पाल 
रियाणा की लोक कला और संस्कृति को समृद्ध बनाए रखने के लिए लोक कलाकारों, गीतकारों, गायकों ने अपनी कला के हुनर से देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी डंका बजाया है। लोक कला के क्षेत्र में सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर ऐसे ही समर्पित गीतकार एवं लेखक समुन्द्र सिंह पवार ने हरियाणवी लोक संस्कृति के संवर्धन के लिए अपनी पहचान बनाई है। उन्होंने कलाकारों व गायकों के लिए समाज में फैली कुरीतियों के साथ ही किसान, जवान, मजदूर, और महिलाओं की समस्याओं को उजागर करने वाले गीत, रागनी, भजन, गजल और कथाओं जैसे लेखन से लोक कला के क्षेत्र में अहम योगदान दिया है। एक गीतकार एवं लेखक के रुप में लोक कला-साहित्य के सफर को लेकर समुन्द्र सिंह ने हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान कई ऐसे पहलुओं का जिक्र किया है, जिसमें उनका मकसद समाज को अपनी संस्कृति से जुड़े रहने के लिए सकारात्मक संदेश रहा है। ---- 
रियाणा लोक गीतकार और लेखक समुन्द्र सिंह पंवार का जन्म 06 जुलाई 1976 को रोहतक जिले के गांव बहलबा में जबर सिंह और श्रीमती राजबाला देवी के घर में हुआ। उनके साधारण एवं कृषक परिवार का गीत, संगीत, अभिनय और साहित्य जैसी लोक कलाओं से कोई भी नाता नहीं था। लेकिन समुन्द्र सिंह को बचपन से ही भजन और रागनी सुनने और लिखने का शौक रहा है। उनका यह शौंक परिजनों को रास नहीं आया और कहते थे कि यह लाइन अच्छे लोगों का काम नहीं और न ही हमें यह शोभा देता है, क्योंकि गाने बजाने का काम मिरासियों का काम होता है। परिजन उसे हमेशा पढ़ाई पर ध्यान देने की दुहाई देते रहे। समुन्द्र सिंह ने अपनी आरम्भिक शिक्षा अपने गांव के राजकीय विद्यालय से प्राप्त की और बाहरवीं जाट स्कूल रोहतक से उतीर्ण की। उन्होंने स्नातक की डिग्री राजकीय महाविद्यालय महम से हासिल की। लोककला व साहित्य के प्रति विशेष रुचि के चलते उन्होंने महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी रोहतक से हिंदी में स्नातकोत्तर किया। उन्होंने बताया कि 1996 में उनकी लिखी गई रागनियों की ‘ना जोबन बसका’ शीर्षक से पहली कैसेट रिलीज़ हुई, जिसे श्रोताओं ने बहुत ही पसंद किया। इसलिए उनका ऐसा आत्मविश्वास बढ़ा कि उन्होंने उसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनके ‘ताऊ देवीलाल की श्रद्धाजलि’ नामक कैसेट ने तो उन्हें लेखक और गीतकार के रुप में पूरे हरियाणा में लोकप्रिय कर दिया। उनके गीत व रागनी लेखन को भी बहुत पसंद किया गया। उनके गुरु कमल सिंह के प्रोत्साहन की वजह से अब तक उनके रचित गीतों के कैसेट के जमाने से लेकर सीडी, डीवीडी और अब यूट्यूब के युग में उन्हें लोक कला के क्षेत्र में बड़ी पहचान मिली है। यही नहीं लोक कला के क्षेत्र में उनके काव्य कोष, भजन माला, हरियाणवी ग़ज़ल संग्रह चांदना और रौनक, काव्य संग्रह बासन्ती अंदाज, काव्य पथ तथा काव्यवाणी पर साझा काव्य संग्रह, प्रेरणा, प्यारी मां, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, रामदूत हनुमान और शिव महिमा आदि भी पसंद किये गये। उनकी लेखनी हमेशा समाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर चली है। उनकी कविता, गजल, गीत, भजन, लेख, लघुकथा, कहानी आदि रचनाएं देश के विभिन्न पत्र व पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। वहीं उनके गीत और भजन अकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित हुए हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
हरियाणवी लोक कला के क्षेत्र में भजन, रागनी और गीत और गजल लेखन में उन्हें अनेक पुरस्कारों व सम्मान से नवाजा जा चुका है। इनमें प्रमुख रुप से उनहें सर्वश्रेष्ठ गीतकार, साहित्य रचना सम्मान, नव सृजन सम्मान, काव्य गौरव सम्मान तथा हिंदी सेवी सम्मान भी मिल चुका है। इसके अलावा साहित्यिक और सांस्कृतिक मंचों पर भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। 
दम तोड़ने के कगार पर लोककला 
आज के आधुनिक युग में लोक कलाओं के सामने चुनौतियों को लेकर समुन्द्र सिंह का कहना है कि इस युग में लोक कलाएं लगभग खत्म होने के कगार पर हैं, जिसकी वजह से कलाकार आर्थिक तंगी का सामना करने को भी मजबूर है। खासतौर से ग्रामीण क्षेत्रों के कलाकारों मान सम्मान तक नहीं मिल रहा है। इसका कारण युवाओं के लोक कलाओं से दूर होना है, जो इंटरनेट व सोशलमीडिया पर मनोरंजन के साधन खोज लेते हैं। ऐसा ही हाल साहित्य का भी है, जिसके लेखन में भी गिरावट आ रही है और अच्छा साहित्य पढ़ने में पाठक रुचि कम ले रहे हैं। हालांकि संगीत के क्षेत्र में रुचि रखने वाले युवाओं ने अच्छी पहचान भी बनाई है। आधुनिक युग में बदलते परिवेश में लोककला, अभिनय, रंगमंच में बदलाव हुए हैं, जिसमें गिरावट महसूस की जाती है। मसलन इस युग में गीतकार और संगीतकार वहीं परोस रहे है, तो श्रोता पसंद करते हैं। शायद यही कारण है कि उनके खुद तैयार किये गये गीत शिक्षाप्रद साबित हुए हैं, लेकिन श्रोताओं व पाठकों को पसंद नहीं आये। इसका कारण साफ है आज के इस युग में लोग शिक्षा नहीं, मनोरंजन ज्यादा पसंद कर रहे हैं। यही कारण है द्विअर्थी गीत संगीत से लेखक व गीतकार जल्द से जल्द लोकप्रिय होना चाहते हैं। लेकिन यह समाज को सकारात्मक संदेश न देकर उस पर कुप्रभाव साबित होता नजर आ रहा है। इसलिए लेखकों, गीतकारों और संगीतकारों का भी कर्तव्य है कि वे ऐसी कला का प्रदर्शन करे जिससे समाजिक, सांस्कृतिक और सभ्यता का संवर्धन करने में सहायक सिद्ध हो सके। 
05Aug-2024