सोमवार, 30 दिसंबर 2024

साक्षात्कार: सर्वजन हिताय में साहित्य से समाज का निर्माण संभव: जयभगवान सैनी

वरिष्ठ लेखकों की रचनाओं को हरियाणवी में अनुवाद ने दी पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
 नाम: जयभगवान सैनी 
जन्मतिथि: 14 जनवरी 1959 
जन्म स्थान: भिवानी (हरियाणा) 
शिक्षा: एम.ए.(लोक प्रशासन), एमबीए, एलएलबी, डिप्लोमा सिविल इंजीनियरिंग, एमएमसी(पत्रकारिता)। 
संप्रत्ति: संप्रत्ति: सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य(आईटीआई) एवं स्वतंत्र साहित्य लेखन 
संपर्क: 496सी/120सी, ढाणी बड़वाली, हिसार(हरियाणा), मो. 7988338502

BY-ओ.पी. पाल 
साहित्य जगत के मूर्धन्य विद्वानों का भी ऐसा मत रहा है कि जब सामाजिक और अपनी संस्कृति का संवर्धन करने के मकसद से लेखन का जुनून सिर चढ़कर बोलता है, तो समर्पित साहित्य साधना से उसके लक्ष्य को मंजिल मिल ही जाती है। ऐसे ही हिंदी और हरियाणवी भाषा में लेखन करने वाले जयभगवान सैनी ने एक वरिष्ठ साहित्यकार के रुप में लोकप्रियता हासिल की है। उन्होंने गद्य व पद्य दोनों विद्या में जिस प्रकार से अपने साहित्यिक रचना संसार को गति दी है, उसमें उन्होंने अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों की पुस्तकों का हरियाणवी भाषा में अनुवाद करके साहित्यिक जगत में लेखकों की फेहरिस्त में अपना नाम दर्ज कराया। अपने साहित्यिक सफर को लेकर हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कई ऐसे पहलुओं को उजागर किया, जिसमें उन्होंने सामाजिक सभ्यता और संस्कृति को सामयिक तथ्यों के साथ सर्वजन हिताय में साहित्य की सार्थकता को चरितार्थ किया है। --- 
साहित्यकार जयभगवान सैनी का जन्म भिवानी जिले में 14 जनवरी 1959 को किशनलाल सैनी व श्रीमती तुलसी देवी के घर में हुआ था। उनका परिवार की पृष्ठभूमि में गरीबी से जूझते हुए एक कृषक मजदूर की रही है। उनके परिवार व कुटूम्ब में कोई भी ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था। परिवार में मैट्रिक पास करने वाले जयभगवान ही पहले सदस्य रहे, जिन्होंने व्यक्तिगत परीक्षा देकर मैट्रिक की शिक्षा हासिल की। इसलिए उसके परिवार में साहित्य या कला जैसा माहौल होने का का काई सवाल ही पैदा नहीं होता। उनका परिवार भिवानी से हिसार आकर बस गया था, तो जयभगवान की शिक्षा दीक्षा हिसार में ही हुई। उन्हें बचपन से ही पढ़ने-लिखने के शौक था, जिसके कारण उन्होंने उच्च शिक्षा में मास्टर डिग्री और एलएलबी के अलावा इंजीनियरिंग का डिप्लोमा भी किया। परिजनों ने उनकी शिक्षा के लिए सहयोग व प्रोत्साहन भी दिया। औद्योगिक प्रशिक्षण विभाग(आईटीआई) में प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत्ति के बाद वे निरंतर साहित्य साधना में जुटे हुए हैं। हालांकि साहित्य के प्रति उनका स्कूल व कालेज में शिक्षारत रहते ही बेहद रुझान रहा और इसी कारण वह साहित्यकार भी बन गये। बकौल जयभगवान सैनी, उनकी साहित्य लेखन के प्रति रूचि गद्य विद्या में थी और शायद उनकी लिखी हुई पहली रचना के रुप में कहानी ‘तबादला’ हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा में 1999 में छपी। उन्होंने बताया कि 26 जनवरी 2001 को जब गुजरात में भूकंप आया था, तब वह गाँधी धाम की सेवा में गये थे, जहां उनके मित्र वीरेन्द्र कौशल ने उन्हें पद्य में भी लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके बाद वह पद्य विद्या में भी लिखने लगे और उनकी कविताएं राष्ट्रीय अखबारों में भी छपने लगी, तो उनका गद्य और पद्य दोंनों विधाओं में लेखन के लिए आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था। हालांकि साहित्यिक सफर के दौरान उन्हें कई खट्टे मीठे अनुभवों से भी गुजरना पड़ा। मसलन जब वह इस क्षेत्र में मार्गदर्शन के कुछ ऐसे साहित्यकारों से मिले, जो अपने आपको उच्च कोटि के साहित्यकार मानते थे, लेकिन प्रोत्साहित करने के बजाए उन्होंने उसे दुतकार कर भगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन उन्हें लिए प्रो. रूप देवगुणजी, डा. मधुकांत, डा. जयभगवान सिंगला, डा.ओमप्रकाश कादयान,डा. अशोककुमार ‘मंगलेश’, आनन्दप्रकाश ‘आर्टिस्ट’ आदि अच्छे साहित्यकारों का सानिध्य मिला, जिन्होंने दुतकारने वाले साहित्यकारों को मुहंतोड़ जवाब देकर उनका मार्गदर्शन करते हुए बेहद प्रोत्साहित किया, जिनके मार्ग दर्शन से आज वह एक साहित्यकार के रुप में लोकप्रिय हैं। उनके साहित्यिक सफर में यह भी खासबात यह भी रही कि उन्होंने ऐसे प्रसिद्ध और वरिष्ठ साहित्यकारों की कृतियों का हरियाणवी भाषा में अनुवाद करके अपनी साहित्यिक प्रतिभा का लोहा मनवाया। उनकी साहित्यिक रचनाओं का फोकस सामाजिक जीवन और सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दे रहे हैं, जिनमें पढ़ना-लिखना, खाना-पीना, फल-सब्जियाँ, पहनना-ओढ़ना, चलना-फिरना, सोना-उठना, पेड़-पौधे, गाँव-शहर, प्रकृति के अलावा देश विदेश की सामयिक घटनाओं संबन्धित विषय शामिल हैं। वे देश के विभिन्न राज्यों के धार्मिक स्थलों की यात्रा करके उनका अवलोकन कर चुके हैं। 
आधुनिक युग में लड़खड़ाया साहित्य 
वरिष्ठ साहित्यकार एवं अनुवादक जयभगवान सैनी का कहना है कि आज के इस आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति इतनी दयनीय है कि वह लड़खड़ा रहा है। साहित्य के पाठक कम होने का प्रमुख कारण भी यही है। हालांकि आज के दौर में मोबाइल में व्यस्त खासकर युवा पीढ़ी को समय के अभाव में माता पिता का पहले जैसे समय की तरह मार्ग दर्शन और संस्कार नहीं मिल पा रहे हैं और न ही दादा दादी से पढ़ने-लिखने, बोलने-चालने के संस्कार न मिलना भी साहित्य को प्रभावित कर रहे हैं, जिसका सीधा कुप्रभाव समाज पर पड़ रहा है।उनका कहना है कि युवाओं को साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करने के लिए स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रमों में साहित्य को अधिक से अधिक शामिल करने की आवश्यकता है, जिसकी पुस्तकालयों में उपलब्धता और उसक प्रचार प्रसार पर अधिक ध्यान देना जरुरी है। वहीं साहित्य में आ रही गिरावट के लिए ऐसे लेखक और साहित्यकार भी जिम्मेदार हैं, जो सस्ती और जल्दी लोकप्रियता हासिल करने के लिए पाश्चत्य संस्कृति परोस रहे हैं, जो युवाओं के लिए ही नहीं, बल्कि आने वाले समय में समाज के लिए भी घातक है। इसलिए साहित्यकारों की भी जिम्मेदारी है कि वे समाज में सकारात्मक विचारधारा का संदेश देने वाले साहित्य का सृजन करें। 
प्रकाशित पुस्तकें 
वरिष्ठ साहित्यकार जयभगवान सैनी की प्रकाशित तीन दर्जन से ज्यादा पुस्तकों में पांच यात्रा संस्मरण-श्री अमरनाथ यात्रा एवं गंगा मैया, डगर-डगर-नगर-नगर, रास्तों में रास्ते, वे सुनहरे पल व चलें धामों की ओर, तीन बाल साहित्य-कलरव करते पक्षी, पक्षियों का संसार, चुन्नू-मुन्नू, पांच कविता संग्रह-उम्मीदें, फलो का फल, सब्जीनामा, धरोहर की पाती व धरती मां(हरियाणवी अनुवादित), दस लघु कविता संग्रह-लुप्त-विलुप्त, मन की गंगोत्री, अतीत के झरोखें, दिवस में दिवस, मैने पूछा, विभूतियों की महिमा, प्रो. रुप देवगुण:अतीत की झलकियां, एक पै अगराई मैं, अन्न पै अधिकार सभी का के अलावा कहानी संग्रह-घटना-दुर्घटना प्रमुख रुप से शामिल हैं। इसके अलावा उमडती हरियाणवी यादें शीर्षक से उनकी आत्मकथा भी सुर्खियों में हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
हरियाणवी भाषा में अनुवादक एवं साहित्य जगत में उत्कृष्ट योगदान के लिए जयभगवान सैनी को देश और प्रदेशों में सामाजिक और साहित्यिक संस्थाओं द्वारा अनेक बार सम्मानित किया गया है। उन्हें प्रमुख रुप से साहित्य गौरव सम्मान, लघु कविता सेवी सम्मान, लघु कविता सृजन सम्मान, लघु कविता रत्न सम्मान, जयलाल दास स्मृति सम्मान जैसे पुरस्कारों से नवाजा गया है। वहीं देश के विभिन्न राज्यों के राज्यपालों द्वारा उन्हें प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया जा चुका है और उन्हें कई उपाधियों व पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका हैं। 
30Dec-2024

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

चौपाल: सामाजिक संस्कृति का संवर्धन करने में जुटे फिल्म अभिनेता हरिओम कौशिक

फिल्मों में अभिनय के साथ निर्माता-निर्देशक के रुप में बनाई पहचान 
      व्यक्तिगत परिचय 
नाम: हरिओम कौशिक 
जन्मतिथि: 7 जून 1989 
जन्म स्थान: गांव जाँट (महेंद्रगढ़) 
शिक्षा: एमए (कुरुक्षेंत्र विश्वविद्याल कुरुक्षेत्र), पासआउट सुपवा रोहतक। फिल्म अभिनय में ग्रेजुएशन
संप्रत्ति: निर्माता, निर्देशक, अभिनेता । 
संपर्क: गाँव जाँट, जिला महेंद्रगढ़ (हरियाणा) 
BY--ओ.पी. पाल 
देश-विदेशों तक हरियाणा की लोक कला, संस्कृति और सभ्यता को पहचान दिलाने के लिए सूबे के कलाकारों का अहम योगदान रहा है। ऐसे ही कलाकारों में रंगमंच, थिएटर और बॉलीवुड तक एक अभिनेता के रुप में लोकप्रियता हासिल करने वाले हरिओम कौशिक भी शुमार हैं। खासबात है कि सामाजिक और परिवारिक फिल्मों और उनमें अभिनय को तरजीह देना प्रमुख लक्ष्य रखा। उन्होंने सामाजिक और संस्कृति के संवर्धन की दिशा में कहानियां लिखने के साथ फिल्म निर्माता और निर्देशक के रुप में भी सिनेमा को नया आयाम देने में जुटे हैं। एक फिल्म अभिनेता हरिओम कौशिक ने अपने फिल्मी और अभिनय के सफर को लेकर हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कई ऐसे अनछुए पहलुओं को भी उजागर किया, जिसमें उनका मानना है कि फिल्मों के माध्यम से सामाजिक संस्कृति का संवर्धन संभव है और इसके लिए वे युवा पीढ़ी को सिनेमा के गुर सिखाकर उन्हें अपनी संस्कृति से जोड़ने की मुहिम चलाने में जुटे हैं। 
फिल्म निर्माता, निर्देशक एवं अभिनेता हरिओम कौशिक का जन्म 7 जून 1989 को हरियाणा के महेंद्रगढ़ शहर में कैलाश कौशिक और श्रीमती सुमन देवी के घर में हुआ उनके पिता का महेंद्रगढ़ में एकका निजी स्कूल है, जिसमें उनकी माता जी सुमन देवी भी उनके सहयोग करती है। हरिओम की धर्मपत्नी हेमंत कौशिक शिक्षा विभाग में सरकारी पद पर कार्यरत है। उनके परिवार में किसी प्रकार का सिनेमा या रंगमंच का कोई साहित्यिक व सांस्कृतिक माहौल नहीं था। हरिओम की शिक्षा पिता के अपने स्कूल में ही हुई, जहां होमवर्क न करने पर अन्य बच्चों से ज्यादा उनकी पिटाई होती थी। स्कूल में सुबह की प्रार्थना से शुरुआत होती थी और बालसभा के मंच से चुटकुले सुना कर उनकी रंगमंच की शुरुआत हुई। उन्होंने बाद में कॉलेज में यूथ फेस्टिवल से नाटक मंचन से अपनी कला का प्रदर्शन किया। बचपन में उन्होंने आरएसएस से वर्ग में नाटक बहुत किए और ज्यादातर भागीदारी रहती थी । फिर एनएसएस में खूब मंच की प्रस्तुति दी। बकौल हरिओम कौशिक, हरेक क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए उतार चढ़ाव आता है। ऐसे ही मोड़ उनके फिल्मी एवं अभिनय के सफर में भी आए हैं। मसलन पोस्टर बॉयज़ फ़िल्म में हीरो के दोस्त के किरदार फाइनल हुआ और वर्कशॉप भी हुई, लेकिन शूट से एक दिन पहले उन्हें फ़िल्म से निकाल दिया गया। लेकिन उन्होंने हौंसले के साथ पीछे मुड़ना सही नहीं समझा। इसके बाद उन्होंने जोगी कास्टिंग में कास्टिंग असिस्टेंट के रुप में काम किया और स्टार्स के ऑडिशन लिये और जोगी जी उन्हें अपने सानिध्य में जाते से मुंबई घर लगने लगा। जहां तक फिल्मों में काम करने के विषयों का सवाल है, उन्होंने पारिवारिक फिल्म्स लिखना और बनाना ही प्रमुख लक्ष्य रखा है यानी समाज को साफ़ सुथरा सिनेमा देना ही उनके जीवन का लक्ष्य रहा है। कौशक ने बताया कि पिछले दिनों उनकी दो फ़िल्में 1600 मीटर और बहु काले की पारिवारिक कहानियों पर आधारित रही, जिन्होंने खूब नाम और पैसा दोनों कमाया है। फिल्म उद्योग में लोकप्रिय हुए हरिओम कौशिक सीबीएफसी दिल्ली के सदस्य होने के साथ आईएफएफआई 2022 की पूर्वावलोकन समिति के सदस्य तथा स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ परफॉर्मिंग एंड विजुअल आर्ट्स के आईक्यूएसी के सदस्य भी हैं। ओम कौशिक फिल्मस के प्रेसिडेंट के रुप में हरिओम कौशिक मुंबई में ‘धर्मा प्रोडक्शन’, ‘राजमौली प्रोडक्शन’ तथा ‘सुजीत सरकार’ के साथ भी काम कर चुके हैं। हाल ही में उन्होंने ओम कौशिक फिल्म्स की ओर से हिसार के गुरु गोरखनाथ राजकीय महाविद्यालय के जनसंचार विभाग के विद्यार्थियों को सिनेमा के क्षेत्र में ट्रेनिंग, इंटर्नशिप और संयुक्त प्रोजेक्ट (लघु-फिल्म, वृत्तचित्र, सेमिनार, वर्कशॉप) आदि की सुविधा प्रदान करने के मकसद से हिसार के गुरु गोरखनाथ राजकीय महाविद्यालय के जनसंचार विभाग एवं ओम कौशिक फिल्म्स महेंद्रगढ़ के मध्य मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए गए, ताकि विद्यार्थी प्री-प्रोडक्शन से लेकर पोस्ट-प्रोडक्शन तक की सारी बारीकियों को सीख पाएंगे। 
आधुनिक युग में बढ़ी पाश्चात्य संस्कृति 
इस आधुनिक युग यानी रील बनाने के प्रचलन से कला के क्षेत्र में विकट समय कहा जा सकता है, जहां युवा बहुत जल्दबादी में थिएटर या सिनेमा तक पहुंचने का प्रयास करते देखे जा रहे हैं। ऐसे में हम जैसे लेखकों और निर्देशकों की जिम्मेदारी ज्यादा बढ़ जाती है, कि युवाओं को प्रेरित करने के लिए परिपक्वता के साथ फिल्म या नाटक लिखना आवश्यक है। दूसरा बड़ा कारण यह भी है कि सोशल मिडिया पर वीडियो बना रहे लोग गंदे कंटेंट ज़्यादा परोस रहे हैं, जो आने वाली युवा पीढ़ी के लिए भयावह है और वहीं सामाजिक विसंगतियां पनपने के ज्यादा आसार है। समाज में अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति जागरुकता बढ़ाने के लिए युवाओं को स्कूल की पढ़ाई के साथ थिएटर को जोड़ने से इस क्षेत्र में सुधार की गुंजाइश है। रंगमच पर नाटकों का मंचन संस्कारी, सभ्य, सामाजिक व्यवहारिक के रुप में होता है, जिससे हर कोई प्रभावित हो सकता है। आज लोककला, संगीत, अभिनय, रंगमंच जैसी सांस्कृतिक कलाओं में गिरावट आ रही है। बाजारीकरण के इस दौर में फिल्म्स में अभी मिलावट हो रही और फूहड़ता परोसी जा रही है। इस तरह के कंटेट स्थायीत्व नहीं दे सकते। इसलिए लोक कला या अभिनय अथवा रंगमंच में प्रसिद्धी हासिल करने के लिए सिद्धी करने की ज्यादा आवश्यकता है। तभी हम समाज में सभ्यता और अपनी संस्कृति को जीवंत रख सकते हैं। 
ऐसे मिली लोकप्रियता 
फिल्म निर्देशक एवं अभिनेता हरिओम कौशिक की यह किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है, कि उनका दो साल के लिए केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड, दिल्ली क्षेत्र के सलाहकार के रूप में चयन हुआ है। यह उनकी फिल्म जगत में बढ़ती लोकप्रियता का ही परिणाम है, जो भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में अभिनेता, निर्देशक, निर्माता और कहानी लेखक भी हैं। उन्होंने अपनी फिल्म निर्माण कंपनी 'ओम कौशिक फिल्म्स' की स्थापना भी की और अपनी पहली पहली फिल्म '1600 मीटर' का निर्माण किया। इसके अलावा हिंदी फिचर फिल्म 'तोता' को भी निर्देशित कर चुके हैं। इससे पहले उन्होने मुंबई फिल्म जगत की प्रसिद्ध जोगी फिल्म कास्टिंग में कई महत्त्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स पर काम किया। हरिओम ने हाल ही में रिलीज हुई फिचर फिल्म हरियाणा में अहम किरदार निभाया है और वर्तमान में मेवात, पहरा, फौजा और स्कैम जैसे प्रोजैक्ट्स पर काम कर रहे हैं। 
इन फिल्मों का किया निर्देशन 
फिल्म अभिनेता एवं निर्देशक हरिओम कौशिक ने जहां 1600 मीटर, वेब सीरीज बहू काले का निर्देशन किया, वहीं निर्देशन के साथ राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म फौजा के क्रिएटिव डायरेक्टर की भी भूमिका निभाई। उन्होंने फिल्म मेवात, बुरे लड़के भिवानी, टोटा, चिड़िया, वनवास जैसी वेबसीरीज फिल्मों का निर्माण किया। उन्होंने गंभीर आदमी, काठमांडू, हरियाणा, फौजा, बुरे लड़के, बहू काले की, ग्रुप डी, स्कैम और टोटा जैसी फिल्मों में एक अभिनेता के रुप में काम किया है। जबकि उधम सिंह, विक्रम बत्रा, गुलाबो सिताबो, गुंजन सक्सैना और आरआरआर में कास्टिंग सहायक की जिम्मेदारी का निर्वहन किया है। 
23Dec-2024

सोमवार, 9 दिसंबर 2024

चौपाल: सामाजिक कल्याण में फिल्मों की अहम भूमिका: हितेश शर्मा

हरियाणवी फिल्म ‘दादा लखमी’ से अभिनेता के रुप में मिली पहचान 
          व्यक्तिगत परिचय 
नाम: हितेश शर्मा 
जन्म तिथि: 19/11/1989 
जन्म स्थान: फ़रीदाबाद (हरियाणा) 
शिक्षा: ग्रेजुएट, एक्टिंग कोर्स डिप्लोमा 
संप्रत्ति: अभिनय, लोक कलाकार 
संपर्क: मोबा. 9076251115, ईमेल: Hiteshssharma119@gmail.com 
BY-ओ.पी. पाल 
रियाणवी संस्कृति, सभ्यता, भाषा, रिति-रिवाज और तमाम सामाजिक तानाबाना समायोजित करने की दिशा में लोक कलाकारों ने अपनी अलग विधाओं में हरियाणा को नई पहचान दी है। इसमें हरियाणा के सूर्य कवि ‘पंडित लखमी चंद’ के जीवन पर आधारित फिल्म ‘दादा लखमी’ जहां हरियाणवी सिनेमा को जीवंत करने का सबब बनी, वहीं इस फिल्म ने कई कलाकारों को उनकी मंजिल दी है। ऐसे ही कलाकारों में दादा लखमी के युवा रुप का किरदार निभाने वाले कलाकार हितेश शर्मा रहे हैं, जिन्होंने अपने दमदार अभिनय से एक अभिनेता के रुप में लोकप्रियता हासिल की है। अपने अभिनय की कला के सफर को लेकर अभिनेता हितेश शर्मा ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिनमें समाज को सकारात्मक विचाराधारा का संदेश देने में लोक कला या फिल्मों का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। उनका मानना है कि कलाकारों को अपनी संस्कृति को संजोएं रखने की दिशा में अपनी कला में ऐसा किरदार करना चाहिए, जिसमें समाजिक कल्याण निहीत हो। 
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रियाणवी फिल्म दादा लखमी में में पंडित लखमी चंद का अभिनय करने वाले हितेश शर्मा का जन्म 19 नवंबर 1989 को फरीदाबाद के सिकरोना गांव में सुखराम शर्मा व श्रीमती कुसुम शर्मा के घर में हुआ। उनके मध्यवर्गीय परिवार में पिता शिक्षा विभाग में सरकारी नौकरी करते थे और माता घर संभालती रही। हितेश तीन भाई बहनों में सबसे छोटे हैं। उनके परिवार में साहित्य या किसी कला या संस्कृति का कोई माहौल नहीं था, लेकिन उन्हें बचपन से ही अभिनय के क्षेत्र में रुचि रही, इसके लिए उनके परिवार ने उन्हें प्रोत्साहित करते हुए पूरा सहयोग दिया, जिसकी बदौलत आज वह अभिनय के क्षेत्र में लोकप्रिय कलाकार हैं। बकौल हितेश शर्मा जब व पांच साल के थे तो उनका परिवार दिल्ली आ गया और उनकी शिक्षा दीक्षा दिल्ली में हुई है। स्नातक तक की शिक्षा ग्रहण करने वाले हितेश शर्मा ने सात साल की उम्र में ही रामलीला में भगवान राम व सीता माता और हनुमान के किरदार ने उसे बहुत प्रभावित किया और वह घर आकर उनकी तरह नाचने के साथ उछल कूद करके डॉयलाग दोहराते थे। इसी अभिरुचि के चलते बचपन में ही उन्होंने एक अभिनेता बनने का लक्ष्य तय कर लिया था। यही कारण रहा कि उन्होंने आसपास के स्कूलों में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में रंगमंच पर नाटकों में हिस्सा लेना शुरु कर दिया। स्नातक की शिक्षा पूरी होते ही उन्होंने साल 2010 में मारवाह स्टूडियों एशिएन एकेडमी और नोएडा के फिल्म टेलीविजन एएएफटी नामक संस्थान में एक साल का अभिनय(एक्टिंग) का कोर्स किया। इसी दौरान उनकी मुलाक़ात उनके गुरु श्रीरामजी बाली, आदिल राणा और सतीश आनंद हुई और उ नके साथ थिएटर करना शुरू कर दिया। वहीं उन्होंने गुरु मां रीना शुक्ला से गाना सीखना शुरू किया, जिससे अभिनय करने में ज्यादा मदद मिलने लगी। लेकिन सिनेमा तक आने में समय लगा और उन्हें 2017 सबसे पहले क्राइम पैट्रॉल में एक डायलॉग करने को मिला। इसके बाद साल 2018 में उन्हें ज़िंदगी का ऐसा मौका मिला, जिसने उसे रातोरात टीवी का चमकता सितारा बना दिया। मसलन सोनी टीवी का शो ‘ये उन दिनों की बात है’। फिर एक स्टूडियों के मालिक रविन्द्र राजावत ने उनकी मुलाकात साल 2019 में फिल्म निर्देशक यशपाल शर्मा से कराई, जो फिल्म दादा लखमी बनाने जा रहे थे। उन्होंने इस फिल्म में काम करने की उत्सुकता दिखाई और क़रीब 8 महीने तक उन्होंने निर्देशक को अपनी प्रोफाइल के साथ्ज्ञ अपना डांस और अभिनय के वीडियो बनाकर भेजता रहा, लेकिन कोई ख़ास रिस्पांस नहीं था। फिर भी वह लगे रहे और बामुश्किल महीनों बाद उन्होंने मुझे फिल्म दादा लखमी का हिस्सा बनाया। असल में यही से उनका फिल्म में अभिनय करने पहला मौका मिला और वह अपने किरदार से एक अभिनेता के रुप में जगह बनाने में कामयाब रहा। इसी फिल्म में अभिनय के बाद उनकी एक्टिंग में बेहतर सुधार भी आया। हालांकि परिजनो, पडोसियों व रिश्तेदारों ने मजाक भी बनाया, लेकिन वह अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता रहा। यह वास्तविकता भी है कि फिल्म स्टार बनने के लिए संघर्ष कम नहीं है, जो मुंबई में रहते हुए पैसों की तंगी के साथ कई संघर्ष को झेला भी है। मसलन जहां भी कोई बता देता वहीं ऑडिशन पर ऑडिशन दिये। लेकिन उनके ऊपर तो अभिनेता बनने का भूत सवार था, इसलिए कोई परवाह किये बिना अपने आत्मविश्वास के साथ वह अपनी मंजिल की ओर बढ़ते चले गये। इसी संघर्ष का नतीजा है कि वह आज एक अभिनेता के रुप में पहचाने जाते हैं। 
यहां से मिली मंजिल 
हरियाणा के सूर्यकवि पंडित लखमी चंद के जीवन पर यशपाल शर्मा द्वारा निर्देशिक फिल्म ‘दादा लखमी’ में हितेश शर्मा ने दादा लखमी के युवा रुप का अभिनय किया है। जिसमें बाल रुप में योगेश वत्स और बड़े रुप में खुद यशपाल शर्मा ने किरदार निभाया। हिरयाणा की यह ऐसी फिल्म रही, जिसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार के साथ 103 पुरस्कार मिल चुके हैं। उन्होंने हरियाणवी वेब सीरीज अग्निवीर और बीवी मायके कब जाएगी में भी अभिनेता के रुप में शानदार किरदार निभाया है। वहीं दर्शकों के सामने जल्द आने वाली 1857 ए हिडन स्टोरी में हितेश ने तात्या टोपे की भूमिका निभाई है। इसके अलावा एमएमबीडी, लघु फिल्म इप्सा, 48 कोस-2 में भी अपनी कला का प्रदर्शन किया है। फिल्म अभिनेता हितेश शर्मा को दादा लखमी के अभिनय के लिए दो पुरस्कार, इप्सा के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिलने वाला था, लेकिन एक मत से रह गया और दक्षिण के सुपर स्टार सूर्य को यह पुरस्कार मिला। 
आधुनिक युग में बदलाव की जरुरत 
अभिनेता हितेश शर्मा का कहना है कि उनका सिर्फ ऐसी फिल्मों में काम करने पर फोकस रहा है, जिसमें समाज कल्याण या संस्कृति को बढ़ावा मिलता हो। इसलिए उन्होंने पिछले तीन साल में अच्छी रकम की ऑफर के बावजूद पांच फिल्में छोड़ी है, जिनमें काम करने से समाज में गलत संदेश जाना तय था। आज के इस आधुनिक और सोशल मीडिया के युग में ज्यादातर फिल्में फूहड़पना परोस रहे हैं, जिसके कारण समाज व संस्कृति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और खासकर युवा पीढ़ी का भविष्य अंधकारमय हो रहा है। इसलिए उन्हें लगता है कि सिनेमा में बदलाव होना चाहिए और फिल्म निर्देशकों व कलाकारों को जल्द लोकप्रियता पाने और धन कमाने के बजाए अच्छे कंटेट पर ध्यान देकर खासतौर से युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति के प्रति प्रेरित करने के लिए ऐसी फिल्मों का निर्माण करने की आवश्यकता है, ताकि दूषित होते समाज में सकारात्मक संदेश से सामाजिक विसंगतियों को समाप्त किया जा सके। ऐसा भी नहीं है कि बॉलीवुड ने ऐसी हज़ारो अच्छी फ़िल्में दी है, जिसमें कंटेट सामाजिक जिम्मेदारी रही है। 
09Dec-2024

सोमवार, 2 दिसंबर 2024

साक्षात्कार: समाज और संस्कृति को जीवंत रखता है साहित्य: लाजपत राय गर्ग

लघुकथाओं, कहानियों व उपन्यास लेखन में हासिल की लोकप्रियता 
       व्यक्तिगत परिचय 
नाम: लाजपत राय गर्ग 
जन्मतिथि: 14 फरवरी 1952 
जन्म स्थान: सिरसा (हरियाणा) 
शिक्षा: प्रभाकर, बी.ए.(ऑनर्स), एम.ए.(अंग्रेज़ी व हिन्दी), डिप्लोमा इन ट्रांसलेशन। 
संप्रत्ति: सेवानिवृत्त अतिरिक्त आयुक्त आबकारी एवं कराधान, हरियाणा, स्वतंत्र लेखन 
संपर्क: 150, सेक्टर 15, पंचकूला (हरियाणा), मो. 9216446527, ईमेल : blesslrg@gmail.com 
By--ओ.पी. पाल 
भारतीय संस्कृति में साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है। साहित्य क्षेत्र में लेखक, साहित्यकार, कवि, गजलकार, उपन्यासकार, कहानीकार समाज को सकारात्मक ऊर्जा के साथ दिशा देने के लिए साहित्य सर्जन करते आ रहे हैं। ऐसे ही वरिष्ठ साहित्यकार लाजपत राय गर्ग ने भारतीय सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत, सामाजिक विसंगतियों, पारिवारिक रिश्तों, सभ्यता, परंपराओं, कन्या भ्रूण हत्या, नारी शिक्षा जैसे सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर बेबाक लेखन करके समाज को नई दिशा देने का प्रयास किया है। उनके लेखन में सकारात्मक संदेश के माध्यम से पर्यावरण प्रदूषण, गौ-सेवा, नेत्रदान, रक्तदान, देहदान, जैविक खेती, गुरु-शिष्य परम्परा, मित्रता की पावन भावना जैसे समसामयिक विषयों का फोकस भी समाज को सकारात्मक संदेश समाहित है। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में अपने साहित्यिक सफर को लेकर वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार लाजपत राय गर्ग ने कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिनमें आज के बदलते इस परिवेश में भी समाज, संस्कृति एवं सभ्यताओं को जीवंत रखने के लिए साहित्य की अहम भूमिका है। 
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साहित्य के क्षेत्र में लोकप्रिय वरिष्ठ साहित्यकार लाजपत राय गर्ग का जन्म 14 फरवरी 1952 को हरियाणा के सिरसा में वजीर चन्द और श्रीमती शीला देवी के घर में हुआ था। दरअसल उनका परिवार विभाजन के समय बहावलपुर रियासत के एक छोटे से क़स्बे से विस्थापित होकर सिरसा आकर बस गया था। विभाजन से पूर्व और बाद में उनके परिवार की परवरिश एक दुकान से होती रही। विस्थापन से पूर्व परिवार की समृद्धि का उल्लेख दादा-दादी के मुख से बहुत बार सुना, लेकिन विभाजन की त्रासदी स्वरूप परिवार को लम्बे समय तक अभावों का सामना करना पड़ा। दादा जी पाँच भाई थे, जिनमें दो दादा-भाई विभाजन से पूर्व और बाद में इकट्ठे ही रहे। छोटे दादा जी नि:संतान थे, उनका तथा छोटी दादी का मुझे भरपूर प्यार मिला। प्रत्यक्ष रूप से तो परिवार में साहित्यिक माहौल जैसा कुछ नहीं था, किन्तु छोटी दादी सोने से पहले मुझे तरह-तरह की कहानियाँ सुनाया करती थीं और छोटे दादा जी मुझे हमेशा अपने साथ रखते थे। वे मुझे सुबह की सैर कराने के साथ हर रविवार को गुरुद्वारा कीर्तन सुनने के लिए लेकर जाते थे। वह स्वयं भी श्रीगुरु ग्रंथ साहिब का पाठ किया करते थे। स्कूल में प्रवेश से पूर्व ही दुकान पर रहते हुए उन्होंने मुझे हिन्दी, अंग्रेज़ी, पंजाबी के बहुत से शब्दों का ज्ञान करवा दिया था। उन्होंने ही भ्रमण के लिए प्रोत्साहित किया। उनें ताया बचपन से सूरदास थे, जिनकी स्कूल समय से ही सेवा करने का उन्हें अवसर मिला। लाजपत राय की पाँचवीं से आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई आर्य स्कूल में हुई, जहां एक अध्यापक ने महापुरुषों की जीवनियां पढ़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने पुस्तकें पढ़ने के लिए छठी कक्षा में सार्वजनिक पुस्तकालय की वार्षिक सदस्यता ग्रहण की। यहीं से महापुरुषों की जीवनियों के साथ रामायण, महाभारत, सिक्ख इतिहास और प्रेमचन्द को पढ़ने का शुरु हुआ सिलसिला आज तक जारी है। बकौल लाजपत राय गर्ग, जब वह दसवीं कक्षा में पढ़ रहे थे, तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की सिरसा इकाई ने स्वामी विवेकानंद पर स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए एक लेख प्रतियोगिता आयोजित की, जिसमें उनके लेख को पुरस्कार तो नहीं मिला, किन्तु वह लेख जालन्धर से प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचार पत्र ‘जन प्रदीप’ में प्रकाशित हुआ। इस तरह से उस लेख को प्रथम रचना कहा जा सकता है। दसवीं परीक्षा के दौरान ही लिखी एक छोटी सी कहानी ‘चूड़ियाँ’ लिखी, जो कॉलेज की पत्रिका में प्रकाशित हुई। उस समय ‘लघुकथा’ विधा का तो कोई ज्ञान था नहीं, लेकिन 2019 में यही रचना लघुकथा के साझा संकलन ‘लघुकथा मँजूषा’ में सम्मिलित हुई। उनकी रुचि मुख्यत: कथा लेखन में है, लेकिन उपन्यास उनकी प्रिय विधा है। उन्होंने कॉलेज पत्रिका का एक साल हिन्दी विभाग का और एक साल अंग्रेज़ी विभाग का संपादन भी किया। वहीं उन्होंने करुणा (वार्षिक) बारह वर्ष, गौ माँ का ज्ञान (त्रैमासिक) तीन वर्ष, लघुकथा मँजूषा के सह-संपादन की भी भूमिका निभाई। दरअसल साल 1978 में राजकीय सेवा में नियुक्ति के उपरान्त लेखन अवरुद्ध हो गया, लेकिन साहित्य की लगभग हर विधा को पढ़ने का क्रम निरन्तर बना रहा। मसलन उनके सक्रिय साहित्य लेखन का सिलसिला सेवानिवृत्ति के पाँच छह वर्ष बाद साल 2016 में पहले उपन्यास ‘कौन दिलों की जाने’ से शुरू हुआ उसके बाद सात उपन्यास लिखे गये। गर्ग की रचनाओं के फोकस में पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर विचार-विमर्श रहा है। भारतीय सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत, पारिवारिक रिश्तों की महत्ता, समसामयिक विषयों यथा कन्या भ्रूण हत्या, नारी शिक्षा, पुस्तकों का हमारे जीवन में महत्त्व, पर्यावरण प्रदूषण, गौ-सेवा का महत्त्व, नेत्रदान, रक्तदान, देहदान, जैविक खेती की उपादेयता, गुरु-शिष्य परम्परा का सम्मान, मित्रता की पावन भावना को अक्षुण्ण बनाए रखना आदि मुद्दों पर उनके लेखन में सार्थक चर्चा रहती है। उनकी कृति ‘कौन दिलों की जाने’ पर हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के शोधार्थियों द्वारा लघु शोध-प्रबंध के लिए शोध कार्य किया गया। वहीं बाबा मस्तनाथ विश्वविद्यालय, रोहतक तथा ओम ग्लोबल स्टर्लिंग विश्वविद्यालय हिसार से एक-एक शोधार्थी उनके उपन्यासों पर पीएचडी कर रहे हैं। इसके अलावा साहित्य लेखन के साथ लाजपत राय गर्ग गौ-सेवा में भी सक्रीय रहे और बनूड़-अम्बाला रोड पर बन रहे ‘मात-पिता गौधाम’ का वह एक पैटर्न भी हैं। 
आधुनिक युग में साहित्य 
वरिष्ठ साहित्यकार लाजपत राय ने आज के आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति को लेकर कहा कि साहित्य समाज का दर्पण होता है, जिसका हर युग में सृजन होना स्वाभाविक है। इसका कारण है कि संवेदनशील व सृजन की क्षमता रखने वाला कोई भी व्यक्ति इन प्रभावों को अभिव्यक्त किए बिना नहीं रह सकता। जहां तक साहित्य के पाठकों में कमी का सवाल है, उसके पीछे हमारी शिक्षा नीति है। इस युग में एक गरीब परिवार भी सरकारी स्कूलों के बजाए अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजना पसंद करते हैं, जहां शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। यही कारण है कि अब बचपन में चन्दा मामा, नंदन जैसी पत्रिकाएँ बच्चों को पढ़ने के लिए मिलती थीं, बल्कि आज अंग्रेज़ी के कॉमिक्स अवश्य मिलती है। वहीं आज सोशल नेटवर्किंग ने भी साहित्य पठन-पाठन को प्रभावित किया है। पुस्तकों की बजाय पाठक डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर पढ़ना अधिक पसन्द करते हैं। ऐसे में हिंदी ज्ञान की कमी के साथ शिक्षा के व्यावसायीकरण के कारण युवा पीढ़ी पैसा कमाने की यांत्रिक मशीन बनकर रह गई है। आज के युवाओं में धैर्य और सहनशक्ति की कमी से समाज और संस्कृति पर नकारात्मक प्रभाव ने आज के युवाओं में धैर्य और सहनशक्ति की कमी बढ़ती जा रही है। समाज और संस्कृति के प्रति सकारात्मक संदेश देने का माध्य साहित्य ही है, इसलिए युवा पीढ़ी को स्कूल व कालेजों या अन्यत्र पुस्तकालयों में साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करने की अत्यंत आवश्यकता है। वहीं बदलते परिवेश में लेखकों व साहित्यकारों को भी अपनी अच्छी रचनाओं को डिजिटल प्लेटफ़ॉर्मों पर अपलोड करनी चाहिए। 
प्रकाशित पुस्तकें 
वरिष्ठ साहित्यकार लाजपत राय गर्ग की प्रकाशित पुस्तकों में साझा संकलन ‘66 लघु कथाकारों की 66 लघुकथाएं और उनकी पड़ताल (खंड -30), लघुकथा मँजूषा, लघुकथा में किसान, ओस की बूँद, सार्थक लघुकथाएँ, विभाजन त्रासदी की लघुकथाएं, समसामयिक लघुकथाएँ, लघुकथाएँ: इक्कीसवीं सदी के दो दशक, तपती पगडंडियों के पथिक, अदहन क आखर(अवधी) तथा ‘रिश्तों की महक’(साझा कहानी संकलन) शामिल है। वहीं उनके सात उपन्यासों में ‘कौन दिलों की जाने’, पल जो यूँ गुज़रे, पूर्णता की चाहत, प्यार के इन्द्रधुनष, अनूठी पहल, अमावस्या में खिला चाँद व प्रेम के स्याह रंग सुर्खियों में हैं। उन्होंने कई लेखकों की पुस्तकों का पंजाबी में अनुवाद भी किया। 
सम्मान व पुरस्कार 
वरिष्ठ साहित्यकार को हरियाणा साहित्य अकादमी ‘मुंशी प्रेमचंद श्रेष्ठ कृति पुरस्कार’ से नवाजा जा चुका है। वहीं उन्हें लघुकथाओं के लिए श्रद्धा पुरस्कार, स्मृति पुरस्कार व सामाजिक आक्रोश पुरस्कार, उपन्यास के लिए अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कार, डॉ. मधुकांत साहित्य गौरव सम्मान, कथा रत्न सम्मान, कोशी साहित्य शौर्य सम्मान(स्वर्ण सम्मान), ‘राष्ट्रीय पंकस अकादमी अवार्ड, ‘मुंशी प्रेमचंद सारस्वत सम्मान, निर्मला स्मृति हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान, डॉ. महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान, जयपुर सर्वोत्कृष्ट कृति सम्मान, स्व. सुगमचंद स्मृति पुरस्कार, ‘लोक साहित्यकार श्री जयलाल दास श्रेष्ठ कृति सम्मान भी मिल चुके हैं। वहीं उन्हें केशवदेव गिनिया देवी बजाज स्मृति सम्मान, ‘उदयकरण सुमन स्मृति साहित्य गौरव सारस्वत सम्मान, जयलाल दास स्मृति साहित्य गौरव सम्मान व डॉ. अनवर सीवनी साहित्य सम्मान जैसे सैकड़ो पुरस्कार मिल चुके हैं। हरियाणा उपन्यास प्रतियोगिता में इसी साल द्वितीय पुरस्कार पाने वाले लेखक को स्नातकोत्तर शिक्षा विभिन्न निबन्ध प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान भी मिल चुका है। 
02Dec-2024

सोमवार, 25 नवंबर 2024

चौपाल: लोक कला व संस्कृति के संवर्धन में जुटे कलाकार बलराज सिंह

गीत लेखन, गायन, अभिनय और नृत्य की कला से मिली पहचान 
         व्यक्तिगत परिचय 
नाम: बलराज सिंह 
जन्म तिथि: 16 अक्टूबर 1989 
जन्म स्थान: गांव भाणा, जिला कैथल (हरियाणा)
शिक्षा: स्नातक 
संप्रत्ति: अभिनय, गायक व लोक नृत्य  
BY--ओ.पी. पाल 
भारतीय संस्कृति में हरियाणवी संस्कृति और सभ्यता की पहचान देश में ही नहीं विदेशों में भी लोकप्रिय होती जा रही है। इसके लिए हरियाणावी लोक कलाकारों के योगदान को का कभी भुलाया नहीं जा सकता, जो हरियाणवी लोक कला एवं संस्कृति के संवर्धन के लिए अपनी अलग विधाओं में समाज को भी नई दिशा देने में जुटे हैं। ऐसे ही लोक कलाकारों में बलराज सिंह पांचाल ने सामाजिक, अध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से गीत लेखन, गायन, अभिनय ओर नृत्य जैसी विधाओं में जिस प्रकार से निपुणता हासिल की है। वह अपनी इन कलाओं के अनुभवों से युवा पीढ़ी के साथ साझा करके उन्हें अपनी संस्कृति से जुड़े रहने की प्रेरणा दे रहे हैं। लोक कला व संस्कृति के सफर को लेकर हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान कलाकार बलराज सिंह ने अपने अनुभवों को साझा किये। उनका मानना है कि समाज में सकारात्मक विचारधारा का संचार करने के लिए लोक कलाकारों को लुप्त होती लोक कलाएं, सभ्यता और संस्कृति को आगे बढ़ाना आवश्यक है। 
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लोक कला के क्षेत्र के कलाकार बलराज सिंह का जन्म 16 अक्टूबर 1989 को हरियाणा के कैथल जिले के गांव भाणा में दलबीर सिंह व श्रीमती संतोष देवी के घर में हुआ। एक संयुक्त एवं साधारण परिवार में उनके पिता दो भाई हैं, जिसमें अपने घर में दो भाईयों में बलराज अपने पिता के छोटे बेटे हैं। जब उनका जन्म हुआ। उनके पिता पिता और चाचा गांव में होने वाली रामलीला में पात्रों के रुप में अभिनय करते थे। दरअसल उनके पिता को साल 1995 में गांव की रामलीला हुई तो उनके पिता को दिल्ली में होने वाली रामलीला में अभिनय करने के लिए आमंत्रित किया गया, लेकिन पिता ने गांव से बाहर जाने से मना कर दिया। पिता से मिली प्रेरणा से उन्होंने भी अभिनय के क्षेत्र में एक कलाकार की जिंदगी जीने का मन बनाया। इसके लिए उनके पिता व चाचा ने उसे प्रोत्साहत किया और अभिनय व गायन के गुर सिखाते हुए कहा कि एक कलाकार के रुप में वह गांव से बाहर अपनी कला का प्रदर्शन करेगा, तो उसका लोक कला के क्षेत्र में अच्छा नाम होगा। इसके लिए उन्होंने गांव की रामलीला के मंच पर पहली बार लक्ष्मण के किरदार से अभिनय की शुरुआत की। यहां से हुई अभिनय की शुरुआत के बाद जब वह चौथी कक्षा में थे तो स्वतंत्रता दिवस के मौके पर स्कूल में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम में नाटक में उन्होंने एक अनपढ़ परिवार के मुखिया का किरदार किया। इसके किरदार के लिए गांव के सरपंच से इनाम भी मिला। ऐसे में लोक कला के क्षेत्र में आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था। उन्होंने लोक कलाकार के रुप में हर साल गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर मंच पर कोई न कोई किरदार निभाना शुरु कर दिया। उनके गांव के ही प्रमोद कुमार ने उन्हें बनाई गई एक नाटक मंडली में शामिल करके काम करने के लिए मौका दिया। उनकी नाटक मंडली को लोक संपर्क विभाग में दो साल नाटक का कंट्रेक्ट मिला। इसके तहत पंचकूला में रंगमंच कार्यशाला में करीब 400 कलाकार आए, जिसके लिए चयनित हुए दस कलाकारों में वह भी शामिल रहे। इस दौरान उन्होंने हरियाणा के दस जिलों में रक्तदान भी किया और नाटक मंचन के जरिए एड्स के प्रति लोगों को जागृत किया। इस दौरान उनकी मुलाकात नृत्य गुरु सुभाष शर्मा से हुई, तो उनसे नृत्य सीखा और उनके प्रोत्साहन से वह अभिनय व गायन के साथ नृत्य विधा में निपुण हो गये। इस कला का उन्होंने पहली बार यूथ फेस्टिवल के लिए एकल व सामूहिक नृत्य का प्रदर्शन किया। इसका नतीजा ये रहा कि हरियाणवी, जंगली, डांस, हरियाणवी प्ले जैसी गतिविधियों में उनकी टीम विजेता रही, जिसकी ज्यूरी में प्रसिद्ध कलाकार महावीर गुड्डु भी थे। उन्होंने अपने साथ भी उनसे कार्यक्रम कराए, जिनकी टीम में वह पहली बार वह 26 जनवरी के प्रोग्राम के लिए बीकानेर और उसके बाद यूपी के इलाहाबाद कुंभ मेला, कुरुक्षेत्र के गीता महोत्सव, के अलावा ओडिशा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, महाराष्ट्र कोलकाता, दमनद्वीप, असम, मणिपुर, मिजोरम आदि राज्यों में होने वाले सांस्कृतिक महोत्सव में उसने अपनी अलग अलग विधाओं का प्रदर्शन किया। बकौल बलराज सिंह, इस दौरान उनके चार जागरण करते थे तो उनका रुझान गायन में भी रहा और हरियाणवी वेशभूषा में गायन की तरफ चला गया। उनकी रंगमंच, गायन और लोक नृत्य में एक कलाकार के रुप में ऐसी पहचान बनी कि उनके गुरु उसे नृत्य और रंगमच सिखाने के लिए स्कूल व कॉलेजों में भेजने लगे। वह हरियाणा के एक दर्जन से भी ज्यादा शिक्षण संस्थानों में लोक कला में रुचि रखने वालें बच्चों को गायन, नृत्य और नाटक के लिए अभिनय सीखा चुके हैं और युवा पीढ़ी के लिए उन्होंने राज्य के कई शहरों के स्कूलों में कार्यक्रम भी कराए हैं। उनका कहना है कि आज के आधुनिक युग में समाजिक विसंगतियां बढ़ने के पीछे लुप्त होती लोक कलाएं, सभ्यता और संस्कृति है। इसके लिए लोक गायकों और कलाकारों को समाज को सकारात्मक संदेश देने वाली कलाओं को आगे बढ़ाना होगा। इसके लिए युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति के प्रति जागरुक करने की आवश्यकता है। 
ऐसे मिली मंजिल 
कलाकार बलराज सिंह का कहना है कि पंचकूला में हुई कार्यशाला में एक मुलाकात के बाद सुमेर शर्मा ने उन्हें गीता जयंती महोत्सव में दो बार नकुल का किरदार करने का मौका दिया। वहीं यूथ फेस्टिवल के दौरान उनकी मुलाकात हरियाणा कला परिषद के निदेशक नागेन्द्र शर्मा से हुई, जिन्होंने उसका परिषद में पंजीकरण कराया। इसके बाद उन्हें गीता जयंती के अलावा विभिन्न तीर्थों के कार्यक्रमों के अलावा हरियाणा कला परिषद की नृत्य कार्यशाला में भी अपनी कला का प्रदर्शन करने का मौका मिला। उन्हें हरियाणा कला परिषद की बैठक में उनके समेत ऐसे कलाकारों को भी बुलाया गया, जो लुप्त होती कलाओं को बचाने के लिए 10-15 साल से कार्य कर रहे हैं। इसी सफर के दौरान उन्हें सूर्य कवि दादा लखमी के शिष्य और गांव के महंत बाबा विद्यापुरी से हुई मुलाकात ने उन्हें गायन के प्रति भी जिम्मेदार बनाया। 
सम्मान व पुरस्कार 
लोक कलाकार के रुप में कलाकार बलराज सिंह हरियाणा के अलावा अन्य राज्यों में आयोजित कार्यक्रमों में सम्मानित किया गया। रंगमंच, नाटक, अभिनय, गायन और नृत्य की अलग अलग विधाओं में उन्हें अनेक पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया है। अंबाला कैंट में एक कार्यक्रम में सेना से सम्मान पाने का भी सौभाग्य मिला। देशभर में विभिन्न कार्यक्रमों में वह नाटक और गीत भी लिखने लगे, जिसमें नाटक और हरियाणवी गीत के रुप में प्रस्तुति करने पर उनकी टीम को राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित स्कूलों की प्रतिायोगिता में पहला स्थान मिला। 
25Nov-2024

सोमवार, 18 नवंबर 2024

साक्षात्कार: सामाजिक विसंगतियों को दूर करने का माध्यम साहित्य: ब्रह्म दत्त शर्मा

कहानीकार और उपन्यासकार के रुप में हासिल की लोकप्रियता 
      व्यक्तिगत परिचय 
नाम: ब्रह्म दत्त शर्मा 
जन्म-तिथि: 8 जून, 1973 
जन्म-स्थान: झींवरहेड़ी, जिला- यमुनानगर (हरियाणा)
शिक्षा: एम.ए.(अंग्रेजी) बी.एड.(कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय)
सम्प्रति: अध्यापन, कहानीकार व उपन्यासकार लेखक
संपर्क: मकान नं. 82,सेक्टर 18, हुड्डा जगाधरी (यमुनानगर)हरियाणा,मो.नं:-08295400476 09416955476, Email:brahamduttsharma8@gmail.com 
BY--ओ.पी. पाल 
साहित्य जगत एवं लोक कला के माध्यम से लेखकों, साहित्यकारों, कवियों, गजलकारों, कलाकारों, गीतकारों, रंगकर्मियों ने विभिन्न विधाओं में हरियाणा की संस्कृति और परंपराओं को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान देने में अहम भूमिका निभाई है। साहित्य के क्षेत्र में भी लेखकों का मकसद यही है कि समाज को नई दिशा देकर उनमें सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो। ऐसे ही साहित्यकार ब्रह्म दत्त शर्मा ने कहानीकार और उपन्यासकार के रुप में लोकप्रियता हासिल की है, जिसमें उन्होंने भारतीय संस्कृति और परंपराओं के संवर्धन की दिशा में सामाजिक सरोकार से जुड़े सामयिक मुद्दों को समायोजित किया है। एक शिक्षाविद् एवं साहित्यकार के रुप में हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान ब्रह्म दत्त शर्मा ने अपने साहित्यिक सफर को लेकर कुछ ऐसे अनुछुए पहलुओं को भी उजागर किया है, जिसमें साहित्य के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों और कुरीतियों को दूर करना संभव ही नहीं, बल्कि मुमकिन भी है। 
साहित्य के क्षेत्र में कहानीकार और उपन्यासकार के रुप में लोकप्रिय हुए साहित्यकार ब्रह्म दत्त शर्मा का जन्म 8 जून, 1973 को हरियाणा में यमुनानगर जिले के गांव झींवरहेड़ी में रणधीर सिंह व श्रीमती धनवंती देवी के घर में हुआ। उनके मध्यवर्गीय परिवार में खेती बाड़ी का काम था। शिक्षित पिता एक छोटे किसान थे और घर परिवार में कोई भी साहित्यिक माहौल नहीं था। ब्रह्म दत्त शर्मा ने बताया कि उनके साहित्य की शुरुआत बड़े अजीबोगरीब ढंग से हुई। या यूं कहे कि उनके लेखन की शुरुआत आमतौर पर दूसरे लेखकों से थोड़ी अलग रही है। दरअसल उन्हें बचपन से ही ही अखबार और किताबें पढ़ने का खूब शौक रहा है। यही कारण था कि कॉलेज के दौर में दोस्तों से उधार लेकर भी किताबें पढ़ते थे और उससे उनके मन में लिखने की लालसा जागृत हुई। वे कभी कविता, कभी कहानी और कभी-कभी सीधा उपन्यास लिखना शुरु करने लगे, लेकिन बात न बनती देखकर फाड़कर फेंक देते थे। यहां उनको अहसास हुआ कि लिखना कितना दुष्कर का है। इसलिए कई सालों तक उन्होंने कुछ नहीं लिखा। फिर नए साल के प्रण के तौर पर लेखन का निर्णय किया और एक वर्ष पूरी तरह लेखन को ही समर्पित कर दिया जाएगा। शिक्षा विभाग हरियाणा के अंतर्गत राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय पाबनी कलां (यमुनानगर) में एस.एस. मास्टर के पद पर कार्यरत ब्रह्म दत्त शर्मा के लेखन की शुरुआत एक जनवरी 2009 से एक कहानी लिखने से हुई। जब उनका कहानी संग्रह लिखकर तैयार हुआ, तो उसे प्रकाशित करवाने की समस्या उनके सामने थी, क्योंकि उनके जिले में उस समय एक भी कहानीकार नहीं था। इसका कारण यह भी था कि उन्हें इस पुस्तक प्रकाशन बारे में कुछ भी मालूम नहीं था। इस समस्या का समाधान उस समय हुआ, जब वह एक परिचित के कहने पर वह कुरुक्षेत्र में कहानीकार ओम सिंह अशफाक से मिले, जिनके सुझाव पर उन्होंने अपनी पहली कहानी हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा को भेजी, जो जुलाई 2009 में प्रकाशित हुई। इस तरह मेरे लेखन को धार मिली और उनका आत्मविश्वास भी बढ़ा। उसके बाद उनका लेखन का कार्य लगतार जारी है। उनके इस सफर में एक ऐसा मोड़ आया, जिसमें साल 2013 के दौरान उत्तराखंड त्रासदी में वह परिवार सहित फंस गये थे और बड़ी मुसीबतों और मुश्किलों से जान बचाकर वहां से वापस घर लौटे। उस त्रासदी में शायद इकलौता भुक्तभोगी लेखक था, इसलिए इस त्रासदी के अपने तमाम अनुभवों के आधार पर उन्होंने अपना पहला उपन्यास ‘ठहरे हुए पलों में’ लिखा, साहित्य के क्षेत्र और पाठकों के बीच सुर्खियां बना। उनके साहित्यिक लेखन में ज्यादातर कहानियों और उपन्यासों में वर्तमान दौर के सामाजिक मुद्दें रहे हैं, वहीं समाज की बुराइयां, विसंगतियां और विरोधाभास पर भी उनके लिखने का हमेशा प्रयास रहा है। 
प्रासांगिक है साहित्य 
इस आधुनिक युग में साहित्य के सामने चुनौतियों के बारे में साहित्यकार ब्रह्म दत्त शर्मा का कहना है कि साहित्य का महत्व हर युग में रहा है और रहेगा। मसलन साहित्य की प्रासांगिता को खत्म नहीं किया जा सकता। हालांकि समय के साथ साहित्य में भी कुछ परिवर्तन होना स्वाभाविक हैं। आज इंटरनेट और सोशल मीडिया ने जीवन के हर क्षेत्र में बदलाव किए हैं, इसलिए साहित्य भी इन बदलावों से अछूता नहीं रह सकता। इस युग में साहित्य के पाठक कम होने के पीछे कई कारण हैं। पहले सिर्फ किताबें ही हमारे ज्ञान और मनोरंजन का प्रमुख साधन थीं, लेकिन आज के युग में आधुनिक साधन माध्यम बने हुए हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि साहित्य पढ़ने वालों की संख्या कम हुई है, लेकिन आज भी किताबें पढ़ी जाती हैं और किताबों का कोई विकल्प भी नहीं है। इसी कारण आज के युवाओं के पास मनोरंजन और ज्ञान प्राप्ति के बहुत से विकल्प हैं, इसलिए उनका रुझान साहित्य से हटा है। इसलिए युवाओं को अच्छे साहित्य से परिचित कराने और पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके लिए स्कूल और कॉलेजों के स्तर पर अध्यापकों में ही साहित्य के प्रति रुचि जगाने की आवश्यकता है। लेखकों का भी दायित्व है कि साहित्य ऐसा लिखा जाए, जिससे आज के युवा स्वयं को जोड़ अपनी संस्कृति के प्रति समझ पैदा कर सकें। दरअसल साहित्य में कुछ हद तक इसलिए भी गिरावट देखी गई है कि आज के लेखकों में और विशेष तौर पर युवा लेखकों में धैर्य की कमी है, जो फटाफट लिखकर प्रसिद्धि पाना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए सिद्धि करना भी आवश्यक है। हालांकि आज भी बहुत से लेखक बहुत बढ़िया लिख रहे हैं। उन्हें सराहा और पढ़ा जाना चाहिए। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्यकार ब्रह्म दत्त शर्मा की अब तक प्रकाशित पुस्तकों में कहानी-संग्रह ‘चालीस पार, ‘मिस्टर देवदास’, 'पीठासीन अधिकारी' और 'चयनित कहानियाँ' सुर्खियों में हैं। वहीं उन्होंने उपन्यास ‘ठहरे हुए पलों में’ और 'आधी दुनिया पूरा आसमान' लिखकर एक लेखक के रुप में साहित्यिक जगत में अहम स्थान बनाया है। उनकी कहानियां, उपन्यास और अन्य आलेख देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती रही हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
साहित्य के क्षेत्र में ब्रह्म दत्त के लिखित कहानी संग्रह 'पीठासीन अधिकारी' को हरियाणा साहित्य अकादमी ने श्रेष्ठ कृति पुरस्कार से नवाजा है। वहीं उन्हें हरियाणा साहित्य अकादमी के हिंदी कहानी प्रतियोगिता पुरस्कार से भी अलंकृत किया जा चुका है। इसके अलावा साहित्य सभा कैथल से बृजभूषण भारद्वाज एडवोकेट समृति साहित्य सम्मान, मेघालय के शिलांग के डॉ. महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान, हिन्दी रत्न सम्मान और यूपी के सुल्तानपुर में माँ धनपति देवी समृति कथा साहित्य सम्मान के अलावा उन्हें जयपुर में दो बार डॉ. कुमुद टिक्कू कहानी प्रतियोगिता पुरस्कार मिल चुका है। वहीं देश से बाहर उन्हें विश्व हिंदी सचिवालय मॉरिशस के विश्व हिंदी कहानी प्रतियोगिता प्रथम स्थान, जबकि नेपाल के जनकपुर धाम में उर्मि कृष्ण हिंदी सेवा सम्मान और भूटान के थिंपू में मिला अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी सेवा सम्मान भी उनकी बड़ी उपलब्धियों में शामिल है। 
18Nov-2024

सोमवार, 11 नवंबर 2024

चौपाल: समाज व संस्कृति में फिल्मों की अहम भूमिका: मुकेश मुसाफिर

हरियाणावी फिल्म उद्योग में प्रमुख अभिनेता के रुप में हुए लोकप्रिय 
       व्यक्तिगत परिचय 
नाम: मुकेश मुसाफिर 
जन्मतिथि: 25 जनवरी 1986 
जन्मस्थान: रोहतक (हरियाणा) 
शिक्षा: स्नातक नेकीराम कालेज तथा सुपवा से फिल्म एक्टिंग 
 संप्रति: अभिनेता, लोक कलाकार एवं निर्देशक 
सम्पर्क: म.न. 97/B, रेलवे कालोनी (रेलवे हॉस्पीटल के पीछे) रोहतक (हरियाणा), मोबा.9728172535, ईमेल-musafirmukesh@gmail.com 
BY--ओ.पी. पाल 
रियाणवी फिल्म उद्योग को गुलजार करने के लिए लोक कलाकारों के लिए अपनी कला के प्रदर्शन से कई कई ऐसी फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दी है और हरियाणवी संस्कृति की अलख जगाने में अहम भूमिका निभाई है। ऐसे ही अभिनेताओं में मुकेश मुसाफिर ने भी दर्जनों फिल्मों में अपने अपने अभिनय से बॉलीवुड तक का सफर तय किया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कान्स फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के खिताब से नवाजी जा चुकी लघु फिल्म छाया में उनकी प्रमुख भूमिका रही है। इसी प्रकार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार हासिल कर चुकी हरियाणवी फिल्म दादा लखमी में भी उनका किरदार महत्वपूर्ण साबित हुआ। अपने अभिनय के सफर को लेकर अभिनेता, लोक कलाकार एवं निर्देशक के रुप में लोकप्रिय मुकेश मुसाफिर ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कहा कि फिल्मों कलाकारों का काई भी किरदार सामाजिक और संस्कृति को नई दिशा देने में सक्षम है। 
रियाणा के फिल्मी कलाकार मुकेश मुसाफिर का जन्म 25 जनवरी 1986 को रोहतक शहर में एक सामान्य मध्यम परिवार में जिले सिंह व ज्ञानो दवी के घर हुआ। उनके पिता रेलवे में नौकरी करते हैं, जो रोहतक की रेलवे कालोनी में रहते हैं, यहीं मुकेश मुसाफिर का बचपन गुजरा, लेकिन परिवार में किसी भी प्रकार का कोई साहित्यिक, सांस्कृतिक या कला का माहौल नहीं था। रेलवे स्टेशन के पास रहने के कारण उन्हें बहुत कुछ देखने को मिला। वहीं आसपास रामलीला, जागरण और झांकियां देखे, लेकिन उनके दिमाग में कतई भी कोई किरदार निभाने की इच्छा नहीं थी। इसका कारण भी था कि परिवार में माता पिता के अलावा चार भाईयों का पालन पोषण अकेले पिता की नौकरी में करना भी मुश्किल हो रहा था। आर्थिक तंगी के बावजूद पढ़ाई करना भी मुश्किल था, इसलिए पढ़ाई करने के साथ उन्होंने 6-7 साल फैक्ट्री, कपड़े की दुकान और टेलरिंग जैसे अनेक काम किया। बकौल मुकेश मुसाफिर, उन्हें अपनी माता से बहुत लगाव था, जो बाजार जाती और आस पड़ोस की बातों को इस अंदाज में कहती थी, जैसे उनका किरदार वहीं निभा रही हों। तब तक भी खुद के दिमाग में कला जैसे करियर की बात नहीं थी। दरअसल परिवार में बचपन से ही वह शर्मिले स्वभाव के रहे हैं, शादी या अन्य समारोह में दूसरे दोस्त नाच करते थे, लेकिन शर्म के मारे वह नाचने में संकोच करते थे, लेकिन कोई खींचकर मंच पर ले जाता था थोड़ा बहुत वह भी नाच लेता था। उनकी लंबाई भी तेजी से बढ़ी तो हाई स्कूल उत्तीर्ण करने के बाद उनका अचानक थियेटर की रुझान बढ़ना शुरु हुआ। हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति ने रेलवे स्टेशन के आसपास पोस्टर लगाए थे कि सामाजिक विषयों पर नुक्कड नाटक के लिए उन्हें अभिनय करने वालों की आवश्यकता है। चूंकि परिवार में कमाने का भी दवाब बना था, तो वह भी समिति के पास गये और वे नुक्कड नाटक में काम करने लगे, लेकिन पढ़ाई के साथ साथ थियेटर भी नियमित नहीं रह सका। इसके बाद उन्होंने साल 2000 में इंटर में विज्ञान विषय में प्रवेश लिया, लेकिन चौथे प्रयास में किसी तरह से उत्तीर्ण की। उसके बाद उन्होंने एक इंस्टीट्यूट में अंग्रेजी सीखी, ताकि कॉल सेंटर आदि संस्थानों में नौकरी की जा सके, लेकिन स्नातक न होने के कारण उन्हें जॉब नहीं मिल सका। इसके बाद उन्होंने रोहतक के नेकीराम कॉलेज में उच्च शिक्षा के लिए प्रवेश लिया, जहां साथियों ने थियेटर शुरु किया, लेकिन ज्यादा आयु के कारण उन्हें थियेटर में नहीं लिया गया। इसके बाद रोहतक में कुछ दिन मेडिकल रिप्रेजेंटिव का कार्य करने के बाद दिल्ली के होटल में काम किया। उनकी दोस्ती का दायर बढ़ने लगा, तो उन्होंने रोहतक में थियेटर का काम शुरु कर दिया और उसके बाद साल 2012 में उन्होंने सुपवा में प्रवेश लेकर एक्टिंग का कोर्स किया। उनके अभिनय की शुरुआत 2016 से लघु फिल्मों से हुई और उन्होंने करीब एक दर्जन लघु फिल्मों में शानदार किरदार से लोकप्रियता हासिल की। उन्होंने कहा कि फिल्मों, टीवी फिल्मों, वेब सीरिज या अन्य शॉ में उनके किरदार का फोकस सामाजिक, संस्कृति और भावात्मकता पर रहा है। इस आधुनिक युग में कला के क्षेत्र में फिल्मों की पटकथाओं में जिस प्रकार बदलाव आया है, उसमें जल्द से जल्द लोकप्रियता हासिल करने का प्रयास है, लेकिन सामाजिक और अपनी संस्कृति से जुड़े रहने के लिए सिद्धी के बाद ही प्रसिद्धि मिलती है। मसलन फिल्म निर्देशकों और कलाकारों को भी चाहिए कि फिल्मों की पटकथा और अभिनय ऐसा होना चाहिए, जो सामाजिक समरसता के लिए अपनी संस्कृति से जुड़ा होने का संदेश समाहित हो। 
ऐसे मिली लोकप्रियता 
अभिनेता मुकेश मुसाफिर ने फीचर फिल्म लक्ष्मी वॉलीबुड अभिनेता अक्षय कुमार के साथ भी काम किया है। वहीं उन्होंने विजय राज, जतिन सरना, शरमन जोशी, पार्टिक बब्बर, सोनल चौहान, जिमी शेरगिल, डेजी शाह, विनय पाठक, गुलशन ग्रोवर, मघना मलिक, यशपाल शर्मा, राजेंद्र गुप्ता जैसे अभिनेताओं के साथ एक दर्जन फिल्मों में अभिनय किया है। इसके अलावा उन्होंने ऐसी बीस लघु फिल्मों में अपने अभिनय की कला का प्रदर्शन किया, जो कॉन्स वर्ल्ड फिल्म फेस्टिवल, भूषण इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, आईएफएफआई गोवा, चिल्ड्रन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल दुबई जैसे विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शित हुई हैं। हाल ही में यशपाल शर्मा के निर्देशन में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हरियाणवी फीचर फिल्म ‘दादा लखमी’ में अहम कलाकार के रुप में अभिनय किया, जिसमें मुकेश मुसाफिर ने बचपन के लखमीचंद के पिता का किरदार निभाया है, इसमें लखमी की मां वॉलीवुड अभिनेत्री मेघना मलिक रही। 
इन वेबसीरीज और फिल्मों में अहम भूमिका
कलाकार मुकेश मुसाफिर ने वेबसीरीज फिल्मों बवाल, अग्निवीर, जालिमपुर, हक्का या हथियार, अखाड़ा, वाहम्म, एचआर 13, मोटर माचिस कटर, सत्या के अलावा डीडी नेशनल के नेशनल के टीवी सीरियल नाम (अकेले नहीं है आप) में भी अभिनय किया है, जो जल्द ही दर्शकों के सामने होंगे। इसके अलावा उन्होंने एचसीएल और हरियाणा सरकार के लिए विज्ञापन में भी अलग अलग किरदार किये हैं। उनकी लघु फिल्म ‘एक आदमी का न्योता’ भी सुर्खियों में रही है। 
पुरस्कार व सम्मान हरियाणा के प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता मुकेश मुसाफिर को हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव कुरुक्षेत्र 2017 में लघु फिल्म ‘दायरा’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला। वहीं उन्हें मार्च 2022 में चित्र भारती फिल्म फेस्टिवल भोपाल में फिल्म ‘छाया’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया जा चुका है। जबकि हरियाणा इंटरनेशनल फिल्म एसोसिएशन 2023 से लघु फिल्म ‘छाया’ के लिए फिर से उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार से नवाजा गया। यही नहीं उनकी लघु फिल्म छाया कान्स वर्ल्ड फिल्म फेस्टिवल में छात्र फिल्म प्रतियोगिता में भी प्रदर्शित की गई। जबकि लघु फिल्म ‘दयारा’ को बुसान अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में विशेष रुप से प्रदर्शित किया गया है। इसके अलावा उनकी लघु फिल्म ‘एक आदमी का न्योता’ का चिल्ड्रन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल दुबई में हुआ प्रदर्शन उनकी बड़ी उपलब्धि रही। 
11Nov-2024

सोमवार, 4 नवंबर 2024

साक्षात्कार: साहित्य और समाज एक सिक्के के दो पहलू: राधेश्याम भारतीय

सामयिक मुद्दो पर रचनाओं से समाज को नई दिशा देने में जुटे 
      व्यक्तिगत परिचय 
नाम: राधेश्याम भारतीय 
जन्मतिथि: 15 जुलाई 1974 
जन्म स्थान: गांव हसनपुर, जिला करनाल। 
शिक्षा: एम.ए.(हिंदी), एम.फिल., पीएच.डी. (हिंदी लघुकथाओं के आलोक में राष्ट्रीय चेतना) 
संप्रत्ति: साहित्यकार, लेखक, हिंदी प्रवक्ता 
संपर्क: नसीब विहार कॉलोनी, घरौंडा, करनाल (हरियाणा) मो. : 09315382236/ 8901282236 
ई-मेल: rbhartiya74@gmail.com 
By--ओ.पी. पाल 
भारतीय संस्कृति में साहित्य और समाज को एक ही सिक्के के दो पहलुओं के रुप में देखा गया है। विद्वानों का मानना है कि साहित्य के बिना समाज अधूरा है। इसीलिए लेखक और साहित्यकार सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर अपनी लेखनी चलाते आ रहे हैं। ऐसे ही साहित्यकारों में शामिल हरियाणा राधेश्याम भारतीय भी सामयिक मुद्दों पर लघुकथा और कहानियां, आलेख के अलावा बाल मनों को भी मोहते हुए अपने रचना संसार का विस्तार कर रहे हैं। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान शिक्षाविद्, लेखक और साहित्यकार डा. राधेश्याम भारतीय ने अपने साहित्यिक सफर किो लेकर कुछ ऐसे अनछुए पहलुओं का जिक्र किया है, जिसमें समाज को नई दिशा देने और सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने के लिए अपनी संस्कृति से जुड़ा रहना आवश्यक है और साहित्य तथा कला संस्कति समाज को जोड़ने में अहम भूमिका निभा रही है।
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रियाणा के साहित्यकार एवं लेखक राधेश्याम भारतीय का जन्म 15 जुलाई 1974 को करनाल जिले के गाँव हसनपुर में पूर्ण सिंह और श्रीमती धनपति देवी के घर में हुआ। उनके पिता जी भारतीय सेना में थे, लेकिन उनके जन्म के दो साल बाद ही जब वह सेना से छुट्टी लेकर घर आ रहे थे, तो पिता का एयरक्रेश होने के कारण दुर्घटना में निधन हो गया। राधेश्याम की माता एवं दादी ने परिवार में तीन भाईयों एवं दो बहनों का पालन-पोषण किया। बकौल राधेश्याम, उनकी दसवीं कक्षा तक की शिक्षा गाँव के स्कूल में हुई, जबकि उससे आगे की पढ़ाई घरौंडा कालेज में ग्रहण की। उनके परिवार का साहित्य से दूर-दूर तक कोई संबंध न था। हाँ, उन्हें अखबार पढ़ना, पंचतंत्र की कहानियों के साथ-साथ प्रेमचंद की कहानियाँ पढ़ना बेहद पसंद था। इसी कारण बीए तक आते-आते कविताओं की तुकबंदी करने लगे। हालांकि वे न तो कहीं छपी और आज लगता है कि वे कहीं छपने योग्य थी भी नहीं। कॉलेज लाइफ की कविताओं के विषय कुछ अलग ही तरह के होते हैं। कॉलेज में एक दिन पता चला कि उनके हिंदी विषय के प्राध्यापक डॉ अशोक भाटिया लेखक हैं और उनका लघुकथा संग्रह 'जंगल में आदमी' कॉलेज की लाइब्रेरी में है। बस उसे देखने-पढ़ने की ऐसी लालसा मन में जगी, कि सारी लघुकथाएं पढ़ डालीं और शायद उनसे प्रभावित होकर ही वह भी लघुकथाएँ लिखने लगे। हालांकि उनकी वे लघुकथाएँ कोरी घटना थी या उनमें साहित्यिकता भी थी, कुछ पता न था और पता भी न चलता यदि वरिष्ठ साहित्यकार रामकुमार आत्रेय जी का सान्निध्य प्राप्त न होता। उन्होंने केवल लघुकथाओं में सुधार ही नहीं करवाया, बल्कि यह भी समझाया कि साहित्य क्यों लिखा जाना चाहिए। उनसे ही सीख मिली कि एक साहित्यकार अपनी लेखनी से समाज का मार्गदर्शन कैसे कर सकता है? साहित्यकार राधेश्याम की सबसे पहली लघुकथा टिड्डी' के नाम से दैनिक जागरण के 'सांझी' में प्रकाशित हुई। ऐसे में उनका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था। उसके बाद उनकी रचनाएं और आलेख राष्ट्रीय पत्र व पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं। उनकी अधिकतर रचनाओं का फोकस समाज में फैली जातीय संकीर्णता, रूढ़िवादी परम्परा एवं लोगों की मानसिकता पर रहा। खासतौर से 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक की लघुकथाओं में उन्होंने अपनी रचनाओं का फोकस सामाजिक विसंगतियों, विद्रपताओं, असमानता, रूढ़िवादी परम्परा, धार्मिक एवं जातीय संकीर्णता, बिगड़ते लिंग अनुपात, किसान मजदूरों की दुर्दशा, भ्रष्टतंत्र, स्वार्थपूर्ण राजनीति से प्रभावित आम आदमी की चिंताओं पर रखा है। वह मानते हैं कि इसकी पृष्ठभूमि में उनकी रचनाओं का उद्देश्य समाज में मानवीय मूल्यों की स्थापना करने पर रहा है। उन्होंने बताया कि हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला के सौजन्य से उनका पहला लघुकथा संग्रह 'अभी बुरा समय नहीं आया है' प्रकाशित हुआ। उसके बाद 'कीचड़ में कमल' एवं 'खिड़की का दुःख' प्रकाशित हुए। लघुकथा को अपनी 'बेटी' मानने वाले मधुदीप ने लघुकथाओं पर शुरु की अपनी 'पड़ाव और पड़ताल' श्रृंखला में उ नकी 11 लघुकथाएं प्रकाशित कीं और उन पर आलोचनात्मक आलेख वरिष्ठ साहित्यकार रामकुमार आत्रेय से लिखवाया। यही नहीं अमेरिका के पीट्सबर्ग से की पत्रिका 'सेतु' द्वारा करवाई गई अंतर्राष्ट्रीय लघुकथा प्रतियोगिता में लघुकथा 'सम्मान' को पुरस्कार मिला। वहीं विभिन्न प्रतियोगिताओं में उनकी लिखित कहानियां भी पुरस्कृत की गई। डॉ. अशोक भाटिया के निर्देशन में उन्होंने 'हिंदी लघुकथाओं के आलोक में राष्ट्रीय चेतना' विषय पर पीएच.डी की। हिसार दूरदर्शन एवं आकाशवाणी रोहतक और कुरुक्षेत्र से लघुकथाओं का पाठ करने का मौका भी उन्हें मिला। हाल ही में आकाशवाणी कुरुक्षेत्र से बालकथाओं का प्रसारण हुआ। लेखक एवं साहित्यकार राधेश्याम वर्ष 2000 में शिक्षा विभाग में हिंदी अध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। वर्ष 2007-08 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से प्राथमिक से माध्यमिक के शिक्षकों के लिए साक्षरता एवं सामाजिक एकता' विषय को लेकर राष्ट्रीय स्तर की निबंध प्रतियोगिता करवाई गई, जिसमे उनके लिखे गए निबंध को सांत्वना पुरस्कार मिला। वहीं शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने पर हरियाणा शिक्षा विभाग में खंड शिक्षा अधिकारी एवं जिला शिक्षा अधिकारी की ओर से प्रशस्ति-पत्र के अलावा उन्हें वर्ष 2019-2020 के सत्र में हरियाणा शिक्षा विभाग पंचकूला की ओर से राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने 'राज्य शिक्षक सम्मान' से सम्मानित किया गया। 
युवाओं को साहित्य पढ़ाना आवश्यक 
आधुनिक युग में साहित्य के सामने चुनौतियों को लेकर लेखक राधेश्याम भारतीय का कहना है कि साहित्य और समाज एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। साहित्य ही समाज की दशा और दिशा तय करता है। आज भी श्रेष्ठ साहित्य की बेहद मांग है और नाटक, एकांकी, फिल्मों में साहित्य की भूमिका बरकरार है। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आजकल साहित्य कम पढ़ा जा रहा है। इसका मुख्य कारण है कि वर्तमान में पाठक पुस्तकों की अपेक्षा मोबाइल से अधिकाधिक जुड़ते चले जा रहे हैं, जो चिंता का विषय है। नई युवा पीढ़ी को साहित्य और संस्कृति से जोड़ने के लिए विद्यालयों में शिक्षकों को उन्हें अधिक से अधिक साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करने की आवश्यकता है। इसके लिए विद्यालयों में कहानी, कविता, निबंध आदि विषयों पर प्रतियोगिताएं करवाकर उन्हें प्रोत्साहित किया जा सकता है। वहीं साहित्यकारों को भी अच्छा और बेहतर लेखन पर ज्यादा फोकस करना चाहिए, ताकि समाज को नई दिशा दी जा सके। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्यकार राधेश्याम भारतीय की प्रकाशित पुस्तकों में लघुकथा संग्रह ‘अभी बुरा समय नहीं आया है', 'कीचड़ में कमल' और 'खिड़की का दुःख' के अलावा बालगीत संग्रह ‘नील गगन में उड़ते पंछी’, बाल कहानी संग्रह ‘समरीन का स्कूल’ के साथ सम्पादित कृति के रुप में 'हरियाणा से लघुकथाएं' (विशेष सहयोग) शामिल हैं। उनकी लघुकथाएं पंजाबी व मराठी में भी अनुवादित हो चुकी हैं। उनकी रचनाएं और आलेख देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
राज्य शिक्षक सम्मान' से सम्मानित शिक्षाविद् एवं साहित्यकार राधेश्याम भारतीय के बाल कहानी संग्रह ‘समरीन का स्कूल’ को जहां हरियाणा साहित्य अकादमी ने ‘श्रेष्ठ कृति सम्मान’ से नवाजा है, वहीं साहित्य सभा कैथल से 'स्वदेश दीपक स्मृति पुस्तक पुरस्कार', वीएचसीए फाउंडेशन घरौंडा से 'हिंदी रत्न' सम्मान, वहीं लघुकथा कथादेश, कथाबिम्ब, नारी अभिव्यक्ति मंच की ओर से हुई प्रतियोगिताओं में उनकी लघुकथाएं पुरस्कृत हुई। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की राष्ट्रीय निबंध प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार एवं साहित्य समर्था जयपुर कहानी 'फसल' को तीसरा स्थान भी मिला। इसके अलावा हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच सिरसा, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी शिलॉग, लघुकथा शोध केन्द्र भोपाल समेत विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं के मंच से उन्हें अनेक सम्मान व पुरस्कार मिल चुके हैं। 
04Nov-2024

सोमवार, 28 अक्टूबर 2024

चौपाल: सपेरा बीन की परंपरा को जीवंत रखने में जुटे हरपाल नाथ

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कला के प्रदर्शन हासिल की लोकप्रियता 
         व्यक्तिगत परिचय 
नाम: हरपाल नाथ 
जन्मतिथि: 30 नवंबर 1975 
जन्म स्थान: गांव वजीरपुर टिटाना, जिला पानीपत
शिक्षा: हाई स्कूल 
संप्रत्ति: लोक कलाकार, बीन वादक, 
संपर्क: गांव वजीरपुर टिटाना, जिला पानीपत (हरियाणा), मोबा. 9466095998 
By--ओ.पी. पाल 
रियाणा के लोक कलाकार भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल के संगीत वाद्यों के रुप में विलुप्त होती बीन, तुम्बा, ढोलक, ढेरु गायन, बाजीगर जैसी कला को जीवंत करने में जुटे हैं। ऐसे ही बीन वादक कलाकार हरपाल, नाथ संप्रदाय की धरोहर बीन जोगी कला को संजोने के मकसद से विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक और अन्य कार्यक्रमों में बीन वादन की कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी कला से लोकप्रिय हासिल करने वाले बीन वादक कलाकार हरपाल नाथ ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में ऐसी कलाओं को पुनजीर्वित करने के समाज से अपनी संस्कृति से जुड़े रहने का संदेश दिया है। 
रियाणवी लोक कला एवं संस्कृति में लुप्त होती सपेरा बीन जैसी विद्या को जीवंत करने में जुटे कलाकार हरपाल नाथ का जन्म 30 नवंबर 1975 को पानीपत जिले के गांव वजीरपुर टिटाना में प्रेमनाथ और श्रीमती नंदी नाथ के घर में हुआ। नाथ संप्रदाय का पुस्तैनी रोजगार बीन बजाकर सांप का खेल दिखाना रहा है। हरपाल नाथ को पूर्वजों से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही बीन जैसे संगीत वाद्य की धरोहर को संजोने में लगे है यानी बीन जैसी लोक कला उन्हें विरासत में मिली है। उनके एक भाई मुकेश नाथ कला एवं संस्कृतिक विभाग में बतौर बीन वादक के पद पर कार्यरत रहे हैं। उनकी माता श्रीमती नंदी नाथ गांव की दो बार सरपंच रही हैं तो दसवीं तक शिक्षा ग्रहण कर चुके खुद हरपाल नाथ भी पंचायत सदस्य रहे। माता के अस्वस्थ्य होने पर सर्वसम्मिति से हरपाल भी सरपंच का कार्यभार संभाल चुके हैं। बकौल हरपाल नाथ, लोक कला में संगीत वाद्यों के रुप में बीन, तुम्बा, ढोलक, ढेरु गायन गाथा, बाजीगर कला और कच्ची घोड़ी, खंजरी बजा कर जोगी नाथ बीन सपेरा जैसी परम्परा को बढ़ाने के लिए हरियाणा प्रदेश में बहुत कम ही कलाकार हैं। जहां तक बीन जैसे वाद्य यंत्र बजाकर सांप का खेल दिखाकर प्राचीन काल से ही अपने परिवार का पालन पोषण करते आ रहे नाथ संप्रदाय के लोग जोगी नाथ सपेरा जाति से संबन्ध रखते हैं। इनके गुरु कानीफानाथ एक बड़ी शक्ति के रुप में माने जाते हैं जिन्होंने जंगलों में सांप पकड़ने के लिए बीन जैसे संगीत वाद यंत्र की उत्पत्ति की। बीन वादक कलाकार हरपाल नाथ का कहना है कि इस आधुनिक युग में ऐसी पारंपरिक कलाओं को विलुप्त होने से कुछ हद तक रोकने के लिए यदि भारत सरकार और संस्कृतिमंत्रालय या दूसरी सरकारीसंस्थाएं सचमुच ऐसे कलाकारों का सरंक्षण चाहती हैं, तो मनोरंजन के लिए विदेश जाने वाले हर ग्रुप को कम से कम एक ऐसे कलाकार को ले जाना आवश्यक है, पारंपरिक कला से जुड़ा हो। यदि ऐसा हो सके तो हम अपनी विलुप्त विरासतों को संरक्षित किया जा सकता है। हरपाल नाथ ने बताया कि सरकार द्वारा कानून बनाकर बीन बजाकर सांप का खेल दिखाने पर प्रतिबंध लगाने से जोगी नाथ सपेरा वर्ग के सामने जीवन यापन को लेकर संकट पैदा हो गया, जिसकी वजह से सपेरा समाज भूख के कगार पर आ गया। इसके लिए सपेरा समाज सोशल वेलफेयर सोसायटी ने हरियाणा सरकार के मुख्यमंत्री को पुस्तैनी रोजगार से इस प्रतिबंध को हटाने के लिए मांग भी की है। इसके लिए सपेरा समाज धरना प्रदर्शन भी कर चुका है। हालांकि बीन बजाकर सांप का खेल दिखाने पर लगे प्रतिबंध के बाद बीन वादक कलाकार पारंपरिक वेश-भूषा में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर आयोजित होने वाले समारोह, त्यौहारों और सांस्कृतिक आयोजनों में बीन बजाने की कला का प्रदर्शन करते हुए इस विद्या को जीवंत करने में जुटे हैं। हालांकि हरियाणा सरकार भी विलुप्त होती सपेरा बीन जोगी लोक कला को बचाए रखने संस्कृति विभाग के माध्यम से प्रोत्साहित कर रही है। 
यहां से मिली मंजिल 
बीन वादक कलाकार हरपाल नाथ ने साल 1992 में लोक कला के क्षेत्र में प्रवेश किया। बीन वादक की विलुप्त होती कला को जीवंत करने के लिए उन्होंने एक लोक कलाकार के रुप में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता हासिल की। इसके लिए उन्होंने अपने नेतृत्व में सपेरा बीन जोगी ग्रुप तैयार किया, जिसमें सुल्तान नाथ, सुरेश नाथ, अनिल, रवि, प्रवीण और संदीप जैसे कई बीन विद्या के कलाकार शामिल है। बीन कलाकारों के इस ग्रुप ने आईसीसीआर के माध्यम से 1998 में इटली, दुबई, बांग्लादेश आदि कई देशों में भी बीन की धुन से अपनी कला का प्रदर्शन किया है। अंतर्राष्ट्रीय महोत्सवों के दौरान हरपाल नाथ बीन पार्टी ने जहां बीन की कला का प्रदर्शन करके स्वर्ण जयंती समारोह में पीएम मोदी, और कुरुक्षेत्र में गीता जयंती महोत्सव के दौरान राष्ट्रपति और अंतर्राष्ट्रीय सूरजकुंड मेले में विदेशी पर्यटकों को भी मंत्रमुग्ध किया है। इसके अलावा हरपाल नाथ के दल ने देश के विभिन्न राज्यों में आयोजित सांस्कृतिक व अन्य समारोह में बीन जोगी कला का प्रदर्शन किया। ऐसे समारोह में उन्हें व उनके कलाकारों को अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं। 
ऐसे हुई बीन की उत्पत्ति 
लोक संगीत के वाद्य यंत्र बीन को आमतौर पर सूखी लौकी और बाँस की नलियों से बनाया जाता है। दक्षिण भारत में इसे 'महुदी' के नाम से जाना जाता है और इसका इस्तेमाल मुख्य रूप से सपेरे करते हैं। नाथ संप्रदाय के गुरु कानीफानाथ एक बड़ी शक्ति के रुप में माने गये हैं जिन्होंने जंगलों में सांप पकड़ने के लिए बीन जैसे संगीत वाद यंत्र की उत्पत्ति की। उन्होंने जहां मधुमक्खी के छत्ते से मोम पैदा करने के साथ जंगल बांस के वृक्ष से पेरी और नरसल के पत्ते बनाए। ऐसे ही घासफूंस का बाजा कहे जाने वाली बीन तैयार की। अभी तक पूरे भारत में बीन बनाने की कोई फैक्ट्री या कंपनी नहीं है। इसलिए बीन तैयार करने का काम भी जोगीनाथ सपेरा वर्ग का ही है। इसी बीन की धुन पर नाथ संप्रदाय के पूर्वज जंगलों से सांप पकड़ने के बाद गांव गांव तथा नगर बस्तियों में घूमकर बीन बजाकर सांप का खेल दिखाकर अपनी रोजी रोटी कमाते आ रहे हैं। 
28Oct-2024

सोमवार, 7 अक्टूबर 2024

साक्षात्कार: समाज को नई दिशा देने में साहित्य का अहम योगदान: रामबीर सिंह

सादा जीवन-उच्च विचार को मानवता की अवधारणा की मिसाल 
 व्यक्तिगत परिचय 
नाम: रामबीर सिंह ‘राम’ 
जन्मतिथि: 01 जनवरी 1972 
जन्म स्थान: नांगल ठाकरान (दिल्ली) 
शिक्षा: एम.ए., बी एड. 
संप्रत्ति: प्राचार्य, लेखक, कवि 
संपर्क: ब्रह्मशक्ति सी. से. स्कूल थाना कलां सोनीपत । मोबा. 9315650750 
BY-ओ.पी. पाल 
साहित्य एवं लोक साहित्य के क्षेत्र में हरियाणा के लेखक, साहित्यकार, लोक कलाकार साहित्य एवं लोक संस्कृति को संजोने में जुटे हैं। ऐसी शिक्षा, साहित्य एवं लोक कला के क्षेत्र में लेखक रामबीर सिंह राम सादा जीवन-उच्च विचार को मानवता की अवधारणा की मिसाल पेश करते हुए सामाजिक और शैक्षणिक रुप से समाज को नई ऊर्जा का संचार करने में जुटे हैं। खासतौर से युवा पीढ़ी में शिक्षा की अलख जगाने के साथ उन्हें अपनी संस्कृति के प्रति जागरुक तो कर ही रहे हैँ। वहीं वह सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर अपनी लेखनी के जरिए साहित्य एवं लोक संस्कृति का संवर्धन करके पूर्वजों की साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत को भी आगे बढ़ा रहे हैं। हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान शिक्षक, लेखक एवं कवि रामबीर सिंह ‘राम’ ने अपने साहित्यिक एवं लोक सांस्कृतिक सफर को लेकर कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिनके बिना सामाजिक जीवन का संस्कारिक होना संभव नहीं है। 
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रियाणा के साहित्यकार एवं लेखक रामबीर सिंह ‘राम’ का जन्म 01 जनवरी 1972 को गांव नांगल ठाकरान (दिल्ली) में शिवचरण एवं श्रीमती कपूरी देवी के घर में हुआ। उनके दादा निहालचंद 'निहाल' हरियाणा के उस जमाने में जाने-माने लोकनाट्यकार (सांगी) थे, जो हरियाणा ही नहीं उत्तर भारत में होने वाले सांगों में हिस्सा लेते थे। खासबात ये थी कि उनके सांग मंचन का उद्देश्य केवल धनोपार्जन नहीं था, बल्कि सांगों में मिलने वाले चंदे के धन से उन्होंने सामाजिक सेवा को सर्वोपरि रखते हु अनेक कुएं, जोहड़, गौशाला, पाठशाला, धर्मशाला आदि के निर्माण में सहयोग दिया है। मसलन वे एक क्रांतिकारी लोककवि के नाम से लोकप्रिय रहे और सांगों के माध्यम से अपने राष्ट्र प्रेम से संबंधित रचनाओं द्वारा लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित होने का आह्वान तक किया, जिनकी अमर रचना 'भाइयों हो ज्याओ सब त्यार, देश मांगता कुर्बानी' ने स्वतंत्रता संग्राम में एक मशाल का काम किया। सूर्यकवि पंडित लखमीचंद जैसे युगकवि इनसे प्रेरणा पाते थे। इसलिए उनकी ख्याति केवल भारत में ही नहीं अपितु विदेशों तक व्याप्त थी, जिसका उल्लेख हिंदू विश्वकोष कोलंबिया (यूएसए) में मिलता है। ऐसी संस्कारों का उनके पिताजी पर भी गहरा प्रभाव पड़ा, जो उस समय के एक प्रसिद्ध लोककवि एवं भजनोपदेश के रुप में लोकप्रिय हुए। ब्रह्मशक्ति सी. से. स्कूल थाना कलां सोनीपत में प्राचार्य के पद पर कार्यरत रामबीर सिंह ने बताया कि यह सौभाग्य है कि उनका जन्म साहित्य साधना में लीन एक प्रसिद्ध कविकुल में हुआ। दादा व पिता के के पदचिह्नों पर उन्होंने भी विरासत में मिले संस्कारों के चलते बचपन से ही सांग देखना, रागनी सुनना और लोकगीतों का आनंद लेना उनकी अभिरुचि रही है। उसी का नतीजा है कि वह साहित्य सृजन करते हुए गायन यानी कवि में भी विशेष अभिरुच रखते हैं। वह अपनी लिखित कविताओं के अलावा दादा व पिता समेत हरियाणा के लोक कवियों की कविताएं मंच पर सुनते भी हैं और सुनाते भी हैं। एक शिक्षक के रुप में बच्चों के भविष्य निर्माण में उनकी रुचि होना स्वाभाविक है, यही कारण है कि बच्चों में साहित्यिक संस्कारों का संचार करने के मकसद से उन्होंने उनको प्रेरित करने वाली 'प्रकाश-पुंज' नामक पुस्तक के रूप में लिखी। साहित्यिक संस्कार डालने का प्रयास करता उसके बाद वह हरियाणा के वरिष्ठ लोक साहित्यकार डॉ. पूर्णचंद शर्मा के संपर्क में आए, जिन्होंने उनके दादाजी का उल्लेख अपनी लख्मीचंद ग्रंथावली में किया। उन्होंने उनकी लोकसाहित्य साधना एवं उनके ज्ञान कौशल से उत्प्रेरित होकर अपने दादा के सांगों का संकलन करके उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर एक पुस्तक लिखी, जिसे श्रेष्ठ कृति के रुप में पुरस्कृत करते हुए हरियाणा साहित्य अकादमी ने 31,000 रुपये का पुरस्कार प्रदान किया। इससे बढ़े आत्मविश्वास की बदौलते उन्होंने हरियाणा के कई लोककवियों पर पुस्तक लिखी हैं। उनके साहित्यिक रचनाओं का फोकस विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण, समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना और लोक कल्याण तथा युवा पीढ़ियों को अपनी संस्कृति से जोड़ने पर रहा है, ताकि सकारात्मक रुप से सामाजिक चेतना कायम रहे। दूरदर्शन के नेशनल चैनल पर स्कूली बच्चों द्वारा मेरी बात कार्यक्रम कई बार नेतृत्व करने के अलावा आकाशवाणी और दूरदर्शन पर विविध विषयों पर अनेक कार्यक्रमों में विशेष प्रवक्ता के रुप में उन्हें भागीदारी करने का भी मौका मिला है। उनके विभिन्न विषयों पर लेख एवं कविताएं कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती आ रही हैं। 
बच्चों को संस्कारिक बनाना आवश्य 
साहित्यकार एवं शिक्षाविद् रामबीर सिंह ने बच्चों में राष्ट्र प्रेम और संस्कारों के प्रति प्रेरित करने की दिशा में अपने नेतृत्व में तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविद तथा प्रणव मुखर्जी के अलावा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से स्कूली बच्चों की प्रेरक भेंट भी कराई है। इसके अलावा देशभर के शिक्षाविद्, समाजसेवी, चिकित्सक, राजनीतिज्ञ, स्वतंत्रता सेनानी, राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी जैसी विभूतियों ने स्कूल का भ्रमण कर बच्चों से भेंट की है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्यकार रामबीर सिंह की प्रकाशित आधा दर्जन पुस्तकों में लोककला-सिरमौर: निहालचंद-शिवचरण हरियाणा साहित्य अकादमी से पुरस्कृत रही। उन्होंने लोकसंगीत-पुरोधा: निहालचंद ‘निहाल’, पंडित सरुपचंद: व्यक्तित्व एवं कृतित्व तथा सुखबीर सिंह: एक परिशोलन के अलावा प्रकाश-पुंज और प्रेरक प्रसंग जैसी कृतियों का लेखन कर हरियाणवी संस्कृति को समर्पित की है। 
पुरस्कार व सम्मान 
साहित्य, लोक संस्कृति एवं शिक्षा के संवर्धन करने जैसी साधना के लेखक, कवि एवं शिक्षक रामबीर सिंह को अभ्युदय अंतर्राष्ट्रीय सर्वपल्ली डा. राधाकृष्ण सम्मान तथा राष्ट्रीय शिक्षक गौरव सम्मान से नवाजा जा चुका है। उन्हें सदाचार भूषण सम्मान, अवंतिका शिक्षा सम्मान, उद्वव मानव सेवा सम्मान के अलावा शिक्षक दिवस पर पीएम मोदी का शुभकामना संदेश भी मिल चुका है। वहीं शैक्षिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंचों से भी उन्हें अनेक पुरस्कार के साथ सम्मानित किया जा चुका है। 
साहित्य का महत्व कम नहीं 
आज के आधुनिक युग में साहित्य के सामने चुनौती को लेकर शिक्षाविद् एवं साहित्यकार रामबीर सिंह का कहना है कि साहित्य मनुष्य की सर्वोत्तम कृति है और मानव की असली भावनाएं और उनका निर्माण साहित्य की दृष्टि से ही होता है। समाज को नई ऊर्जा देने में साहित्य जगत का अहम योगदान होता है। लेकिन आज के इंटरनेट व मोबाइल युग में लोगों में साहित्य के प्रति कम रुझान के कारण स्थिति कमजोर तो हुई, लेकिन साहित्य का महत्व कभी कम नहीं हुआ। साहित्य मनुष्य की सर्वोत्तम कृति है और मानव की असली भावनाएं और उनका निर्माण साहित्य की दृष्टि से ही होता है। खासतौर से युवा पीढ़ियों को अपनी संस्कृति के प्रति जिम्मेदार बनाने के लिए उन्हें साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करने की नितांत आवश्यकता है, क्यों कि युवाओं में साहित्य व संस्कृति के प्रति कम होती रुचि का प्रभाव समाज पर पड़ रहा है। इसलिए लेखकों, साहित्यकारों और लोक कलाकारों की ऐसी कला को पाठकों, श्रोताओं व दर्शकों के सामने ऐसी कला प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी कि समाज में कम होते पारस्परिक सद्भाव को सकारात्मक ऊर्जा मिल सके। 
07Oct-2024

सोमवार, 30 सितंबर 2024

साक्षात्कार: विश्वभर में बसे भारतीयों को अपनी संस्कृति से जुड़ा रहना चाहिए: इंदु नांदल

साहित्य जगत में भारत के लिए विश्व रिकार्ड बनकार बनाई अंतर्राष्ट्रीय पहचान 
       व्यक्तिगत परिचय
नाम: इन्दु नांदल 
जन्मतिथि: 15 अगस्त 1973 
जन्म स्थान: रोहतक (हरियाणा) 
शिक्षा: स्नातकोत्तर(सामाजिक विज्ञान), स्पोर्ट्रस डिप्लोमा 
संप्रत्ति: शिक्षिका, लेखक, कवियत्रि 
संपर्क: जकार्ता(इंडोनेशिया) मोबा.- +6281519431695 
By-ओ.पी. पाल 
रियाणा के साहित्यकारों और लेखकों के साथ लोक कलाकारों ने अपनी अपनी विधाओं में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी पहचान बनाई है। ऐसी ही हरियाणा की बेटी इंदु नांदल ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी लेखनी से काव्य जगत में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी पहचान ही नहीं बनाई, बल्कि वे अपनी लेखनी से साहित्य के साथ हरियाणवी संस्कृति को नया आयाम देते हुए पिछले तीन दशक से ज्यादा समय से विदेश में रहते हुए भी हिंदुस्तान की माटी से ऐसे जुड़ी हुई है, कि उन्होंने रामायण, देशभक्ति, भारतीय त्यौहारों और चन्द्रयान-3 पर कविता संग्रह लिखकर विश्व रिकार्ड बनाकर इतिहास रच ड़ाला है। विदेश में रहते हुए भी अपनी मातृभूमि और संस्कृति जुड़ी अंतर्राष्ट्रीय कवयित्री इंदु नांदल ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में यहां तक कहा कि विश्वभर में बसे भारतीयों को अपनी संस्कृति की मूल जड़ो से जुड़ा रहना चाहिए, क्योंकि हिंदी भाषा और संस्कृति ही भारत की पहचान है। 
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दुनियाभर में भारतीय संस्कृति की अलख जगाने वाली साहित्यकार एवं कवियत्रि इंदु नांदल का जन्म 15 अगस्त 1973 को रोहतक में उम्मेद सिंह व विद्या देवी के घर में हुआ। उनके परिवार में कोई भी साहित्यिक माहौल नहीं था। उन्हें आस पास की चीजे प्रेरित करती थी, तो उन्हें कविता व दोहे के रुप में लिखने में अभिरुचि होने लगी। यही कारण रहा कि उन्होंने हिंदी व अंग्रेजी भाषा में सामाजिक शास्त्र में शिक्षा ग्रहण की। यहीं से उनका रुझान साहित्य के क्षेत्र में बचपन यानी स्कूली दौर से ही रहा है, जहां शिक्षकों ने भी उसे प्रोत्साहित किया। इंदु नांदल ने महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक से स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण की। इसके अलावा उन्होंने मोतीलाल नेहरु स्कूल ऑफ राई(सोनीपत) से स्पोर्ट्स कोर्स किया। उन्होंने इंटरमीडिए तक की शिक्षा चंडीगढ़ में हासिल की। जब वह यहां दसवीं कक्षा में थी तो उनका बास्केटबाल के लिए साईं में चयन हो गया था। इंदु बास्केटबाल की नेशनल प्लेयर रह चुकी है। वहीं वे एक चित्रकार भी हैं। इंदु नांदल हिंदी व अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ कई विदेशी भाषाओं का ज्ञान भी ज्ञान है, जो वर्तमान में जकार्ता इंडोनेशिया में रहती है। बैकौल इंदु नांदल उन्होंने साल 1996 में भारत छोड़ दिया था और वह साल 2008 से 2020 तक इंडोनेशिया के रामा इंटरनेशनल स्कूल पूर्बा वार्ता में एक शिक्षिका के रुप में कार्य कर चुकी है, जहां उन्होंने इस दौरान पांच साल तक बच्चों को हिंदी पढ़ाई है। उन्होंने कहा कि इंडोनेशिया में हिंदी दिवस मनाया जाता है, जहां उन्हें कई बार काव्य पाठ करने का मौका मिला है। इसके बाद वह कुछ दिन जर्मनी में रही, जहां उन्होंने कोरोना काल में रामायण पर कविता लिखकर पहला विश्व रिकार्ड भी बनाया। उसके बाद फिर वे इंडोनेशिया आ गई, जहां उनके पति संजीव नांदल टेक्टाइल इंजीनियर हैं। जबकि उनका बेटा साहिल कनाडा बुक डिजाइनर है, जिनका हर कदम पर उनके काव्य लेखन में प्रोत्साहन और सहयोग रहता है। इंदु नांदल विदेश में रहते हुए भी उन्हें भारत और भारतीय संस्कृति पर लिखना वह अपनी जिम्मेदारी मानती हैं। उन्होंने बताया कि भारत के लिए वह ऐसे ही और विश्व रिकॉर्ड बनाकर साहित्य व संस्कृति का संवर्धन करती रहेंगी। देश भक्ति की कविताओं पर विश्व रिकॉर्ड बनाकर उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे तिरंगा सिर्फ़ लाल क़िले पर नहीं, बल्कि पूरे विश्व में फहरा दिया हो। इंदु नांदल पांच साल तक आल इंडिया रेडियो पर युवा संसार प्रोग्राम में स्वरचित कविताओं का पाठ भी कर चुकी हैं। इंडोनेशिया भारतीय दूतावास में आठ वर्ष स्कूल के बच्चों के साथ स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस पर देशभक्ति गीतों को भी प्रस्तुत करती रही हैं। उन्होंने जर्मनी, इंडोनेशिया, कनाडा और भारत में रहकर समाज, संस्कृति और प्रकृति के विभिन्न विषयों पर आधारित कविताओं की रचना की है। उनकी रचनाएं देश-विदेश की राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है। पचास से अधिक लेख तो उनके इंडोनेशिया के अखबारों में प्रकाशित हो चुके हैं। वह महिला काव्य मंच जर्मनी इकाई की अध्यक्ष, जर्मनी अशाफनवरंग इकाई केमहिला काव्य मंच की अध्यक्ष भी हैं। 
प्रकाशित पुस्तकें 
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवियत्रि इंदु नांदल ने अपनी कविताओं का काव्य संग्रह ‘काव्य सागर’ लिखा है। इसके अलावा उन्होंने ‘वंदे मातरम्’ शीर्षक से ‘रामायण’ पर 665 पंक्तियों, देशभक्ति पर 72 रचनाकारों की 154 कविताओं, भारतीय त्यौहारों पर 132 कविताओं तथा चंद्रयान-3 पर 116 कविताओं का काव्य संग्रह लिखे हैं, जो विश्व रिकार्ड में दर्ज हुए हैं। 
सम्मान व पुरस्कार 
इंदु के विश्व रिकार्ड बने चार काव्य संग्रह के लिए गोल्डन उन्हें विश्व रिकार्ड में दर्ज चार काव्य संग्रहों के लिए उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड लंदन से सर्टिफिकेट ऑफ कमिटमेंट से सम्मानित किया गया। हिंदी दिवस पर उन्हें जर्मनी दूतावास ने कांस्युलेंट ऑफ जनरल मुनिक जर्मनी दूतावास ने पुरस्कार देकर सम्मानित किया। इसके अलावा उन्हें जर्मनी में भारतीय दूतावास् ने निबंध के लिए सम्मानित किया है। इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में इंटरनेशन इंडियन नेशनल डांस कंपीटिशन में उन्हें द्वितीय पुरस्कार देकर सम्मानित किया जा चुका है। 
युवाओं को प्रेरित करना आवश्यक 
कवियत्रि इंदु नांदल का कहना है कि समाज, संस्कृति और शिक्षा का समावेश से परिपूर्ण साहित्य में सकारात्मक विचारधारा भरी होती है। लेकिन यह चिंता का विषय है कि आज के आधुनिक युग में युवा पीढ़ी साहित्य और संस्कृति से दूर भाग रही है। ऐसे में लेखकों और साहित्यकारों की नैतिक जिम्मेदारी है कि वे देशभक्ति, संस्कृति, आध्यात्मिक, प्रकृति और भारतीय सभ्यता जैसे विषयों पर ऐसी सकारात्मक रचनाओं का लेखन करें, ताकि युवा पीढ़ी को देशभक्ति और अपनी संस्कृति के प्रति प्रेरित किया जा सके। 
23Sep-2024

सोमवार, 16 सितंबर 2024

चौपाल: संस्कृति के संवर्धन में समाज को समर्पित कला अहम: अशोक मेहता

थिएटर से बॉलीवुड तक अभिनय के क्षेत्र में बनाई बड़ी पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: अशोक मेहता ऊर्फ बीर सिंह 
जन्मतिथि: 30 नवंबर 1975 
जन्म स्थान: मूल गांव खानक, जिला भिवानी 
शिक्षा: इंटरमिडिएट संप्रत्ति: अभिनय, रंगकर्मी, लेखक संपर्क: गांधीनगर कृष्णा कॉलोनी भिवानी(हरियाणा), मोबा.9812342041 
BY--ओ.पी. पाल 
रियाणवी संस्कृति के संवर्धन की दिशा में सूबे के लेखकों, कलाकारों, गायकों एवं साहित्यकारों ने अपनी कलाओं के प्रदर्शन से समाज को नई दिशा देने का प्रयास किया। यही नहीं ऐसी शख्सियतों ने हरियाणवी संस्कृती को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान दी है। हरियाणवी फिल्मों के साथ अभिनय के क्षेत्र में कलाकारों ने वॉलीवुड तक अपनी कला का हुनर दिखाते हुए अपनी संस्कृति को सर्वोपरि रखने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे ही कलाकारों में अशोक मेहता और बीर सिंह ने हरियाणवी, भोजपुरी और हिंदी फिल्मों में अपने लेखन और अभिनय के हुनर से लोकप्रियता हासिल की है। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में वॉलीवुड अभिनेता अशोक मेहता उर्फ बीर सिंह ने अपने थिएटर से लेकर वॉलीवुड़ तक के सफर को लेकर कहा कि समाज को समर्पित कोई भी कला संस्कृति और संस्कारों के संवर्धन में अहम भूमिका निभाती है। 
रियाणा के लोक कलाकार अशोक मेहता का जन्म 30 नवंबर 1975 को भिवानी जिले के गांव खानक में मध्यमवर्गीय परिवार के छिनकू राम मेहता व शकुंतला देवी के घर में हुआ। परिवार का गांव में ही खेती-बाड़ी और स्टोन क्रेशर माइंस गांव खानक में काम है। इसमें उनके पिता व उसके भाई अभी भी काम करते हैं, लेकिन अशोक ने स्टोन क्रेशर का काम छोड़ कलाकार को अपना करियर बना रखा है। उन्होंने बताया कि 30 वर्ष के खानक माइंस के काम के अनुभव से फिल्मों में बहुत फायदा हुआ, क्योंकि वह साइकिल से लेकर ट्रक तक सभी वाहन चलाने लगे थे। वहीं खनन में काम करने वाले विभिन्न राज्यों के लोगों के कारण राजस्थानी, भोजपुरी, यूपी, बिहार की भाषा का भी ज्ञान हो गया। अशोक मेहता जब कक्षा चार व पांच में थे तो उन्हें मंच पर नृत्य और अभिनय करने के अलावा कॉमिक्स पढ़ने शौंक था। जबकि उनके परिवार में किसी प्रकार का साहित्यिक या सांस्कृतिक माहौल नहीं रहा है। इसके बावजूद उन्हें लोक कला और सांस्कृतिक क्षेत्र में अभिरुचि रही है। फिल्म इंडस्ट्री में बीर सिंह के नाम से पहचाने जा रहे अशोक मेहता ने बताया कि साल 2017 में उनके एक दोस्त ने उसे किस्तामें पर एक होंडा एक्टिवा दिलवाई, तो उसकी सर्विस के लिए फोन आने लगे। इसलिए वह गूगल पर सर्च करता तो एक्टिंग सर्विस मुंबई ज्वाइन साइट खुल जाती और उस फिल्म की वीडियो आने लगती है। इसके बाद वह दिल्ली में थिएटर करने लगे। वह दिल्ली थिएटर करने गये, वहां की बहुत मोटी फीस होने से उनके सामने बड़ी दिक्कत थी। इसके बाद वह मुंबई चले गये और नालासोपरा में उन्होंने स्क्रिप्ट लिखना सीखा और आठ माह बाद महसूस किया कि लेखन का काम आसान नहीं है और इससे इतनी कमाई भी नहीं होगी। फिर से एक दिन वह गांव में बैठे थे तो दिल्ली मून लाइट फिल्म और थिएटर फाउंडर महेश भट्ट के ऑफिस से फोन आया कि उनका चयन हो गया है। इस पर वह दिल्ली की कैलाश कालोनी स्थित अरुण जेटली के घर के सामने थिएटर में मिला और डबल बैच में सुबह और शाम थिएटर करना शुरू कर दिया। यहां उन्होंने अभिनय की बारीकियों को सीखा और इमोशन,फिजिकल कैरक्टराइजेशन, एटीट्यूड, बॉडी लैंग्वेज, सिचुएशन, सराउंडिंग जैसी चीजों को समझा। उन्होंने पहली बार साल 2019 में 60 के पार जीवन के आधार पर बॉलीवुड अभिनेता यशपाल शर्मा कहने से लेखन का काम किया, जिसमें उन्हें मोरनी में फिल्म निर्देशक उषा श र्मा ने तृतीय अवार्ड दिया। मोरनी में उषा शर्मा द्वारा और इस वर्ष बॉलीवुड की फिल्म हरियाणा जो सिनेमा की फिल्म थी और जोगी कास्टिंग कंपनी के कास्टिंग डायरेक्टर हरिओम कौशिक ने पहली बार मौका दिया और 32 दिन तक शूटिंग की। मुंबई में संघर्ष करते हुए उन्होंने बड़ी परेशानी झेली और परिवार वालों के खर्च पर ही जीवन काटा, क्योंकि अभी आमदनी कुछ नहीं थी। इस पर परिजनों की बहुत सुनने को मिला, लेकिन मुंबई में धक्के खाकर अभिनय के फॉस् पर कुछ जरुरी चीजें सीखने में सफल रहे। उन्होंने बताया कि कला या अभिनय के क्षेत्र में पेशवर तरीके से अनुशासन को सर्वोपरि रखा है। वहीं उन्होंने स्वास्थ्य, अनुशासन, फॉक्स जैसे संस्कारों का पालन किया है। एक कलाकार के लिए अपने व्यवहार और आचार विचार का ध्यान भी रखना आवश्यक है, तभी उसे आगे की मंजिल मिल सकती है। 
यहां से मिली मंजिल 
लोक कलाकार व अभिनेता अशोक मेहता ने पहली सिनेमा के लिए बसवाना फिल्मस मुंबई द्वारा बनाई गई ‘हरियाणा’ फिल्म भूमिका निभाई। महेन्द्रगढ़ के गांव पाली जाट के कास्टिंग डायरेक्टर हरि ओम कौशिक ने उन्हें फिल्मों में पहली बार मौका दिया। उन्होंने नेशनल अवार्ड से सम्मानित फिल्म फौजा में खलनायक का किरदार निभाया। हरियाणवी फिल्म मैं भी सरपंच और कुर्बानी एक प्रेम कथा में अभिनय किया। उनकी लघु फिल्म राइट स्टेप और व्हेयर इज गोड में भी काम किया। इसके अलावा अशोक मेहता ने हरियाणवी वेबसीरीज की फिल्म ‘ग्रुप डी’, पुनर्जनम, जानलेवा इश्क जैसी फिल्मों में अभिनय करके अपनी पहचान बनाई। संगीत के क्षेत्र में उन्होंने सपना चौधरी के संगीत यूट्यूब पर सपना चौधरी के ससुर का किरदार निभाया है। वहीं वे टीवी में भोजपुरी सीरियल डॉक्टर का किरदार निभा रहे हैं। इसके अलावा उन्होंने विज्ञापनों में भी विभिन्न उत्पादों के लिए अभिनय किया है। लोक कला, संगीत और अभिनय के क्षेत्र में अपनी कला का प्रदर्शन करने वाले अशोक मेहता को को अभिनय,हरियाणा नाटय कला मंच, फिल्म राइटिंग लेखन अवार्ड से भी नवाजा जा चुका है। वहीं हरियाणवी फिल्म चंद्रावल की नायिका एवं निर्देशक उषा शर्मा उन्हें कहानी 60 के पार जीवन का आधार पर लेखन सम्मान में आईफा अवार्ड से नवाज चुकी हैं। 
अध्ययन के बिना सब अधूरा 
इस आधुनिक युग में साहित्य और लेखन पर युवा पीढ़ी बहुत ज्यादा ध्यान दे रही है, लेकिन जल्द से जल्द लोकप्रियता हासिल करके पैसा कमाना चाहते हैं। साहित्य या एक्टिंग जैसी कलाओं में बिना सीखे कोई आगे नहीं बढ़ सकता। इसके लिए किताबों को पढ़ने और लिखने के लिए अध्ययन करना आवश्यक है यानी बिना किसी साधना के सब कुछ अधूरा है। वहीं आज अभिनय के क्षेत्र में कलाकार नशे की गिरफ्त में फंसते जा रहे हैं, जिसका समाज पर बुरा असर पड़ता है। यह बात भी सही है कि आज संगीत और कला में गिरावट आ रही है और द्विअर्थी गीत, डायलॉग और लेखन को जरिया बनाकर शोहरत हासिल नहीं की जाती, बल्कि समाजिक पतन ज्यादा होता है। इसके लिए कलाकारो, लेखकों और साहित्यकारों को अच्छे लेखन और अच्छी कला को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है, ताकि युवा अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति जागरुक होकर समाज में फैली कुरितियों को दूर करने में अपना योगदान दे सके। 
16Sep-2024

सोमवार, 9 सितंबर 2024

साक्षात्कार: साहित्य, संगीत एवं कला के फनकार विपिन सुनेजा ‘शायक़’

इंटरनेट युग में साहित्य के क्षेत्र में बढ़ी चुनौतियांं                            व्यक्तिगत परिचय 
नाम: विपिन सुनेजा 'शायक़’ 
जन्मतिथि: 6 दिसम्बर 1954 
 जन्म स्थान: रेवाड़ी (हरियाणा) 
शिक्षा: एम.ए., एम.एड. 
संप्रत्ति: सेवानिवृत प्राध्यापक (अंग्रेज़ी), गजलकार, कवि, निर्देशक 
संपर्क: 24, सिविल लाइन्स, कृष्णा नगर,
रेवाड़ी(हरियाणा)। मोबा. :09991110222 
BY-- ओ.पी. पाल 
रियाणा धरती पर साहित्यिक और लोक कला संस्कृति के संवर्धन करने वाले लेखकों, साहित्यकारों, कवियों, गजलकारों, कलाकारों, गीतकारों, रंगकर्मियों जैसी बहुआयामी शख्सियतों का गढ़ बनता जा रहा है, जिन्होंने राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता हासिल की है। ऐसे ही बहुआयामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व के धनी वरिष्ठ रचनाकार विपिन सुनेजा ‘शायक़’ भी शुमार हैं। सुनेजा ने अपने जीवन को करीब आधी सदी से मंच पर रहकर साहित्य के साथ ही संगीत एवं रंगमंच की अनूठी साधना और अपनी मौलिक प्रयोगधर्मिता से निरंतर नये आयाम रचे हैं। एक शिक्षक के साथ कवि, गजलकार, लोक कला एवं संगीत कला के जैसी विभिन्न विधाओं के सफर को लेकर हरिभूमि संवाददाता से बातचीत में वरिष्ठ रचनाकार विपिन सुनेजा 'शायक़’ ने कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिसमें उनका भारतीय संस्कृति को जीवंत रखने और अच्छे काव्य को संगीत में पिरोकर उसे लोकप्रिय बनाने का ध्येय स्पष्ट नजर आता है। 
सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ साहित्यकार एवं लोक कलाकर विपिन सुनेजा का जन्म 6 दिसम्बर 1954 को हरियाणा के रेवाडी  में रामनाथ सुनेजा तथा सावित्री सुनेजा के घर में हुआ। उनकी माता सावित्री सुनेजा हिंदी की शिक्षका थी, इसलिए उन्हें भी बचपन से ही पत्रिकाओं और रेडियों से साहित्यिक रचनाओं पढ़ने और सुनने का शौंक था। उनकी माता चूंकि एक कलाकार और रंगकर्मी भगवानदान भूटानी की बेटी थी, तो वे बेटे विपिन को भी एक कलाकार के रुप में देखना चाहती थी। मसलन साहित्य, कला एवं संस्कृति के संस्कार उन्हें विरासत में मिले। साहित्य, संगीत एवं रंगकर्म तीनों क्षेत्रों में विपिन सुनेजा बचपन से ही सक्रिय रहे। बकौल सुनेजा उन्होंने स्कूली शिक्षा के दौरान ही कई नाटकों में काम करके अपनी गायन व अभिनय की प्रतिभा का अहसास कराया। विपिन सुनेजा ने माता के प्रोत्साहन और प्रेरणा से महज चार साल की आयु में जब एक विशाल मंच पर कविता पढ़ी। हिंदू स्कूल में छात्र काल में ही उन्हें शिक्षक एवं प्रख्यात उर्दू शायर नंदलाल नैरंग ‘सरहदी’ के मार्गदर्शन में साहित्य की बारीकियां समझने को मिलीं तथा उनसे प्रेरित होकर उनकी गजले गाने और लिखना शुरु कर दिया। लेकिन उनका कहना था कि पहले सीखो और फिर लिखों। इसके बाद वह बड़े बड़े शायरों की गजले गाते रहे और उन्होंने साहित्यिक विधाओं के नियम सीखे और लिखने का जमकर अभ्यास किया। साल 1980 में पहली बार रेडियो से उनकी रचनाएं प्रसारित हुई, तो उनका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था। सुनेजा का पहला ग़ज़ल संग्रह 2001 में प्रकाशित हुआ। यही नहीं रेडियो व टीवी प्रसारण और मंचों पर कवि नीरज, उदयभानु हंस, बालस्वरूप राही, कुंवर बेचैन, अल्हड़ बीकानेरी, राणा गन्नौरी, कालिया हमदम जैसे नामवर शायरों के साथ मंच साझा करके उनका आशीर्वाद हासिल किया। हालांकि इस साहित्यिक सफर में स्वास्थ्य संबन्धी परेशानियों ने बार बार रुकावटे डाली। उनके संस्मरण पर उनकी नव प्रकाशित पुस्तक 'ठहरे हुए पल 'में भी विद्यमान हैं। उनकी रचनाओं में भाषा और सुरों की शुद्धता बनाये रखने के लिए अपनी त्रुटियों को देखना और दूर करने का भी प्रयास रहा है। मसलन मानव मन का विश्लेषण विपिन सुनेजा की रचनाओं का मुख्य विषय रहा है। शिक्षा विभाग में बतौर अंग्रेजी प्राध्यापक होते हुए करीब दो दशकों तक उन्होंने जिला स्तरीय स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस कार्यक्रमों के सांस्कृतिक पक्ष का निर्देशन किया है। शिक्षा विभाग से सेवानिवृति के बाद भी वे विभिन्न संस्थाओं एवं मंचों के माध्यम से साहित्य, संगीत एवं रंगमंच की निष्काम सेवा में जुटे हैं। श्रीजी एंटरटेनमेंट नामक यू-ट्यूब चैनल के जरिए उनके संगीत एवं स्वर में सजी ग़ज़लों एवं अन्य रचनाओं की बहुमुखी प्रतिभा का लाभ युवा पीढ़ी उठा रही हैं। सुनेजा के कृतित्व पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से तीन बार शोध कार्य संपन्न हो चुके हैं और एक दर्जन से ज्यादा कृतियों के लेखक के अलावा उन्होंने राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में साहित्यिक रचनाओं एवं शोध आलेखों के माध्यम से साहित्य साधना की है। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर सुनेजा की प्रस्तुतियों का निरंतर प्रसारण के साथ उनके कृतियों पर इंग्लैंड के रेडियो चैनल से भी प्रसारण हुआ है। सुनेजा कला परिषद के मान्यता सदस्य भी रहे हैं। 
साहित्य के क्षेत्र बढ़ी चुनौतियां 
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार विपिन सुनेजा का आधुनिक युग में साहित्य और लोक कलाओं की चुनौतियों को लेकर कहना है कि आज भी साहित्य खूब लिखा जा रहा है और प्रकाशित भी हो रहा है, लेकिन पाठकों में कमी के कारण वह पढ़ा नहीं जा रहा है, जिसका कारण इंटरनेट युग में सोशल मीडिया, टीवी और स्मार्टफोन ने लोगों की रुचि बिगाड़ दी है। उनका कहना है कि सीबीएससी के पाठ्यक्रम में हिन्दी की अनिवार्यता समाप्त होना, बड़ी-बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद होना, समाचार पत्रों में साहित्य स्तम्भों का संकुचित होना, रेडियो व टीवी से साहित्यिक कार्यक्रमों का नदारद होने का अर्थ स्पष्ट समझा जा सकता है कि देश में साहित्यकारों को उचित सम्मान न मिलना भी है। मसलन आज युवा पीढ़ियों ओं को रोज़गार और मनोरंजन चाहिए, जो साहित्य में उन्हें नहीं मिला। साहित्य व लोक कलाओं से युवा पीढ़ियों के दूर होने से वह अपनी संस्कृति से भी दूर होते जा रही है। इसलिए उन्हें सांस्कारिक बनाने और सामाजिक मर्यादाओं में ढालने के लिए स्तरीय साहित्य तक उनकी पहुंच बनाना आवश्यक है। इसके लिए शिक्षण संस्थाओं में साहित्यिक आयोजन और साहित्यिक रचनाओं को संगीतबद्ध करके वीडिओ की शक्ल में पेश किया जाए, तो युवाओं को सामाजिक और अपनी संस्कृति से जुड़ने के लिए प्रेरित किया जाना संभव है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
गजलों में विशेषज्ञ के रुप में लोकप्रिय विपिन सुनेजा की साहित्य के क्षेत्र में अब तक प्रकाशित पन्द्रह पुस्तकों में प्रमुख रुप से संस्मरण 'ठहरे हुए पल’, गजल संग्रह पीड़ा का स्वयंवर, बाल कविता संग्रह नन्ही मशालें, नन्हे पंख, नाटक संग्रह पर्दा उठने दो, विवेचनात्मक ग्रन्थ सरल सुरीले काव्यसूत्र, मालकौंस विशेष रुप से सुर्खियों में हैं। इसके अलावा उन्होंने छह पुस्तकों का संपादन भी किया। सुनेजा का संगीत के क्षेत्र में अब तक ग़ज़लों, भजनों और बालगीतों के ग्यारह संगीत एल्बम, एक हिन्दी फ़ीचर फ़िल्म 'दूसरी लड़की ‘तथा अनेक नाटकों में गीत-संगीत तथा अनेक नाटकों में अभिनय और निर्दॅशन भी उनकी उपलब्धियां हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
प्रसिद्ध साहित्यकार एवं गजलकार विपिन सुनेजा को हंस कविता पुरस्कार के अलावा प्रमुख रुप से बाबू बालमुकुंद पुरस्कार, हिन्दी साहित्य सम्मेलन पुरस्कार, श्रेष्ठ कवि सम्मान, राष्ट्र किंकर संस्कृति सम्मान, छन्द शिरोमणि, चेतन काव्य पुरस्कार, अब्र सीमाबी पुरस्कार, प्रज्ञा शिक्षक सम्मान, अभिव्यक्ति सम्मान, सुरुचि सम्मान, साहित्य परिषद सम्मान से नवाजा जा चुका है। इसके अलावा उन्हें देशभर में राजकीय एवं निजी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंचों से अनेक पुरस्कार व सम्मान मिल चुके हैं। 
  09Sep-2024