सोमवार, 18 दिसंबर 2023

साक्षात्कार: संस्कृत भाषा में साहित्य सृजन करते महावीर शर्मा

समाज को कंठस्थ गीता के संदेश से संस्कारों की अलख जगाने में जुटे 
 व्यक्तिगत परिचय 
नाम: डॉ. महावीर प्रसाद शर्मा 
जन्मतिथि: 21 सितम्बर 1945 
जन्म स्थान: गाँव कालवन, जिला जींद (हरियाणा) 
शिक्षा: एमए (संस्कृत), एमए (हिंदी), पीएचडी, शास्त्री, साहित्याचार्य। 
संप्रत्ति:‍ लेखक, साहित्य सृजन करना, सेवानिवृत्त संस्कृत लेक्चरार 
संपर्क: 317/7,यू.ई., करनाल(हरियाणा), मोबाइल: 9896944707 
BY--ओ.पी. पाल 
साहित्य के जगत में सुविख्यात साहित्यकार एवं संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान डॉ. महावीर प्रसाद शर्मा ऐसे लेखकों में शामिल है, जिन्होंने हिंदी, संस्कृत और हिरयाणवी भाषाओं में लेखन करके साहित्य सृजन किया है। उन्होंने विभिन्न विधाओं में अपनी रचनाओं को विस्तार देते हुए काव्य संग्रह, बाल काव्य संग्रह, महाकाव्य, खंड काव्य जैसी कृतियों को अपनी श्रेष्ठ लेखनी से समाज को नई दिशा देने का प्रयास किया। भारत की सभी भाषाओं की जननी कही जाने वाली संस्कृत भाषा तो उन्हें विरासत में मिली, जिस कारण वह संस्कृत भाषा में लेखन करने वाले शायद हरयिाणा के ऐसे पहले साहित्यकार है, जिन्होंने संस्कृत भाषा को साहित्य में सर्वोपरि रखा और संपूर्ण गीता उन्हें कंठस्थ है, जिसमें उनकी स्वलिखित गीता का संदेश पिछले दो दशक से ज्यादा समय से आकशवाणी से प्रसारण होता आ रहा है। साहित्य में श्रेष्ठ लेखनी के धनी डा. महावीर प्रसाद शर्मा ‘शास्त्री’ ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में अपने साहित्यिक सफर के अनुभवों को साझा किया और समाज को यह संदेश दिया कि संस्कृत के बिना संस्कार संभव नहीं हैं। 
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सुविख्यात साहित्यकार एवं संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान डॉ. महावीर प्रसाद शर्मा का जन्म 21 सितम्बर 1945 को जींद जिले के गाँव कालवन पंडित जयदेव मिश्र के घर में हुआ। उनके दादा शिवदत्त बड़े विद्वान थे, तो ऋषिकुल ब्रह्मचर्य आश्रम बरनाला में आचार्य थे, जहां डा. महावीर शर्मा शिक्षा दीक्षा हुई। इसलिए उन्हें संस्कृत और साहित्य संस्कारों में मिला है। उनका परिवार संस्कृत भाषा को चार पीढ़ियों से संजोए हुए है। चूंकि उनके पिता जयदेव मिश्र भी संस्कृत के विद्वान रहे और उनके चाचा साधुराम फाजिल्का के एक संस्कृत कॉलेज में प्रधानाचार्य थे। पिता को प्रेरणास्रोत मानते हुए उन्होंने अपनी लगन, मेहनत व जुनून और संस्कृत भाषा में गहन रुचि से उनकी अपनी अपनी खुद की पहचान बनाई। उन्होंने बताया कि उस जमाने में अष्टाध्यायी, अमरकोश और भट्टीकाव्य इन तीनों को प्रमुखता से पढाया जाता था। उसी प्रणाली से में पढ़ाई की है तो जाहिर सी बात है कि पहले संस्कृत और बाद में उन्होंने हिंदी सीखी। बकौल आचार्य महावीर शर्मा उन्होंने छात्रावस्था में ही लिखना शुरू कर दिया था। जनवरी 1965 में उन्होंने अध्यापन कार्य शुरू किया और सितंबर 2003 में संस्कृत के लेक्चरर पद से सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने बताया कि आकाशवाणी कुरुक्षेत्र के निदेशक श्रीवर्धन कपिल उनके मित्र थे, जिनका मार्ग दर्शन मिला और जिन्होंने आकाशवाणी की ओर से उज्जैन में 26 जनवरी पर आयोजित होने वाले सर्वभाषा कवि सम्मेलन के लिए उन्हें मौका दिया। इस राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन में देशभर से 22 भाषाओं के कवि भाग ले रहे थे। हरियाणा से इस मंच पर माधव कौशिक और डॉ चंद्र त्रिखा भी थे। यहीं से उन्हें अहसास हुआ कि साहित्य क्या है और साहित्य में हरियाणा कहां है। इसके बाद साहित्य क्षेत्र में सक्रिय होकर उन्होंने साल 1994 में पहला खंडकाव्य 'हरियाणा गौरवम्' लिखा, जो हरियाणा साहित्य अकादमी के अनुदान से प्रकाशित हुआ। बकौल डा. महावीर उनके पास संन्यासी सत्यानन्द सिद्धांत कौमुदी पढने आते थे, जिनसे उन्होंने बांग्ला भाषा सीखी गीताजलि पढ़ी, जिसकी 103 कविताओं का उन्होंने काव्यानुवाद संस्कृत में किया। इस दौरान उन्हें ऐसे विद्वान की कमी महसूस हुई जो संस्कृत और बांग्ला दोनों भाषा जानता हो। ऐसे विद्वान के रुप में एक मूर्धन्य साहित्यकार एवं हिमाचल के राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री का पता चला, तो उन्होंने उन्हें पत्र लिखकर पुस्तक की भूमिका लिखने का अनुरोध किया, तो उन्होंने सहमति के बाद उसकी भूमिका लिखी और उनकी संस्कृत में गीतांजलि का काव्यनुवाद पुस्तक का प्रकाशन हुआ, जिसे अकादमी ने पुरस्कृत भी किया गया। उन्होंने बताया कि झारखंड के साहबगंज में हुए एक कवि सम्मेलन में वहां पहुंचे कुछ कवियों ने हरियाणवी लेखन के बारे में जानने का प्रयास किया तो उनकी बात ऐसी घर कर गई, लेकिन प्रेरणा भी मिली, जिसकी बदौलत उन्होंने वहां से आते ही 500 पृष्ठीय ‘जै हरयाणा महाकाव्य’ लिख डाला, जिसके बाद उन्होंने हरियाणवी भाषा में चार पांच पुस्तकों की रचना कर ड़ाली। मसलन उनकी प्रकाशित चालीस पुस्तकों में 25 संस्कृत व 5 हरियाणवी बोली में हैं और इनमें से उनकी सात पुस्तकों पर शोधार्थियों द्वारा पीएचडी भी की जा चुकी है। उन्होंने सुखमणि साहब का संस्कृत में एक हजार श्लोकों का अनुवाद भी किया। उन्होंने बताया कि वह संस्कृत में भवभूति, जगन्नाथ, बाणभट्ट हिंदी में जय शंकर प्रसाद, हरिवंश राय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से बेहद प्रभावित हैं। पिछले बीस साल से आकाशवाणी पर शास्त्री जी का रोजाना शाम 6:10 पर गीता का संदेश भी आता है। दिल्ली संस्कृत अकादमी समेत अखिल भारतीय स्तर पर भी उनकी श्रेष्ठ लेखनी के लिए उन्हें कई बार पुरस्कृत किया गया है। उन्हें गीता कंठस्थ है और आकाशवाणी केंद्र से 15 वर्ष से स्वलिखित गीता संदेश का प्रसारण हो रहा है। 
संस्कृत साहित्य सृजन भी जरुरी 
प्रसिद्ध साहित्यकार डा. महावीर शर्मा ने इस आधुनिक युग में साहित्य के सामने पेश आ रही चुनौतियों को लेकर कहा कि जिस प्रकार आज लोग संस्कृत से दूर हो रहे हैं। इसलिए यह एक चिंता का विषय है कि संस्कृत जो हमारी प्राचीन भाषा है भी लुप्त होने के कगार पर है, जिसे बचाने की आवश्यकता है। संस्कृत नहीं बचेगी तो संस्कार भी न बचेंगे। उनका स्पष्ट मत है कि संस्कृत के बिना संस्कार नहीं है और संस्कार के बिना साहित्य अधूरा है। वैसे भी साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। ऐसे में समाज को दिशा देने वाले साहित्य जिसमें संस्कृत भाषा में भी रचनाएं लिखने की जरुरत हैं। जहां तक साहित्य के प्रति कम होती अभिरुचि का सवाल है इसका कारण है कि पहले कविताएं और कहानियां इतनी लंबी होती थी, जो आज लघु कविता और लघु कथाओं का रुप लेने लगी हैं। इस तकनीकी मोबाइल के जमाने में उपन्यास से लेकर अन्य बड़ी रचनाओं के पाठकों में आ रही कमी का भी यही कारण है। लेखन खत्म होता जा रहा है और आज साहित्य की विधाओं में कोई छंद व ताल तक नजर नहीं आता। जबकि अलंकर छंदो का ज्ञान साहित्य को विशिष्टता प्रदान करता है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्य की विविध विधाओं में उनकी अब तक प्रकाशित 40 पुस्तकों में हिंदी भाषा में मिताक्षरा (काव्य-संग्रह), आओ कविता एक बनाए(बालसाहित्य), झरने का गीत (बाल काव्य संग्रह); हरियाणवी में जै हरियाणा, राणीभाद्री (महाकाव्य), एक रपैय्या एक ईट (सम्पूर्ण नाटक), धनी होणे का मन्तर, इसी तरह संस्कृत भाषा में हरियाणा गौरवनम्, ऋतंवदा, हरियाणा वाणी विलासः, कल्पना चावला, माया ब्रह्मस्तुतिः (खंड-काव्य), वैराग्य वीर चरितम्, मैक्स-मूलरचरितम्, लोक कवि मांगे राम चरितम्, श्री गुरु रविदास विजय चरितम् तथा भगवद् वाल्मीकि चरितम् आदि पुस्तके अल्लेखनीय हैं। गीतांजलि, मधुशाला, जपजी साहेब, सुखमनीसाहेब, शृणुराधिके का संस्कृत भाषा में अनुवाद किया। डा. शर्मा की रानी मादरी, बंदा बैरागी, मैक्समुलर, वीर सावरकर, देवर्षि नारद जैसी रचनाएं कालजयी हैं। भगवान वाल्मीकि चरित्र पर उन्होंने अपने जीवन का सातवां महाकाव्य भी लिखा है। 
पुरस्कार व सम्मान 
पंडित लख्मीचंद अवार्ड, पं. माधव प्रसाद मिश्र सम्मान, सर्वोत्तम लेखक सम्मान, महर्षि वेद व्यास सम्मान, आश्व कवि पुरस्कार, पंडित लख्मीचंद अवार्ड, महर्षि वाल्मीकि सम्मान, हरियाणा संस्कृत गौरव सम्मान, पं. माधव प्रसाद मिश्र सम्मान, हरियाणा साहित्य अकादमी और संस्कृत अकादमी के विशिष्ट लेखक सम्मान, महर्षि व्यास सम्मान, महर्षि वाल्मीकि सम्मान, पंडित लख्मीचन्द सम्मान, हरियाणा संस्कृत गौरव सम्मान, पं. माधव प्रसाद मिश्र सम्मान से सम्मानित, उत्तर प्रदेश सरकार ने भी उन्हें 'कालिदास सम्मान से सम्मानित किया है। इसके अलावा उन्हें दिल्ली संस्कृत अकादमी समेत अखिल भारतीय स्तर पर भी अनेक पुरस्कारों के साथ देशभर में विभिन्न साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं द्वारा हजारों पुरस्कार देकर सम्मानित किया जा चुका है। 
राष्ट्रीय स्तर पर हरियाणा का प्रतिनिधित्व 
पिता जयदेव मिश्र को अपना प्रेरणास्रोत मानने वाले महवीर प्रसाद शास्त्री राष्ट्रीय स्तर पर दो बार हरियाणा का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। उन्होंने अखिल भारतीय सर्वभाषा कवि सम्मेलन में भाग लिया। जो साल में सिर्फ एक बार ही होता है। सम्मेलन की खास बात यह है कि यह 22 भाषाओं में होता है और 22 कवि ही भाग लेते हैं। इसमें एक व्यक्ति जीवन में केवल एक बार ही हिस्सा ले सकता है, लेकिन उन्होंने इसमें दो बार भाग लेने का गौरव पाया। एक बार बतौर कवि दूसरी बार ट्रांसलेटर के तौर पर सम्मेलन में जाने का मौका मिला। 
11Dec-2023

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