रविवार, 16 जून 2013

फेडरल फ्रंट की राह कठिन?

फेडरल फ्रंट की राह कठिन?
ममता के नहले पर वामदलों का दहला तैयार
ओ.पी. पाल

भाजपा में नरेन्द्र मोदी की ताजपोशी से भारतीय राजनीति में पनपी नई परिस्थितियों के बीच फिर से तीसरे मोर्चे के रूप में तेज हुई फेडरल फ्रंट की सुगबुगाहट ने एक सियासत के मैदान में एक ऐसा नया बीज बो दिया है, जिसके कारण राजग में ही नहीं यूपीए में शामिल दलों के विचार भी कौंधने लगे हैं। ऐसी स्थिति में लगता है कि तृणमूल कांग्रेस प्रमुख की पहल पर फेडरल फ्रंट बनाने की राह वामदलों को दरकिनार करके आसान नहीं है?
आगामी लोकसभा चुनाव की रणनीतियों का तानाबाना बुनने में जुटे राजनीतिक दलों में भाजपा में नरेन्द्र मोदी की ताजपोशी और उसके विरोध में भाजपा में पनपे अंतरकलह के साथ-साथ राजग की प्रमुख सहयोगी जदयू की भाजपा के प्रति हुई तीरछी नजरों को भापते ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मौका ताड़ा और गैर भाजपाई व गैर कांग्रेसी दलों को एकजुट होने का आव्हान करके फेडरल फ्रंट बनाने का पासा फेंक दिया, जिसके लिए जदयू के नीतिश कुमार, बीजद के नवीन पटनायक और भाजपा से अलग होकर नई पार्टी बनाने वाले बाबूलाल मरांडी को इस पहल को अंजाम देने के इरादे से न्यौता तक दे डाला। हालांकि बताया जा रहा है कि यह फेडरल फ्रंट चुनावी रणनीति के बजाए बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिसा व झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए तैयार करने की कवायद चल रही है, लेकिन राजनीतिकारों की माने तो इसके साथ-साथ तीसरे मोर्चे के रूप में फेडरल फ्रंट की नींव को लोकसभा चुनाव की जमीन को मजबूत करने के इरादे से बनाने की पहल है। ममता बनर्जी की इस राजनीतिक सोच में वामदलों को अलग रखकर एक निशाने से दो तीर साधने का भी प्रयास था, लेकिन शुक्रवार को वामदलो की ओर से सीताराम येचुरी और शनिवार को तेदपा नेता चन्द्रबाबू नायडू के साथ प्रकाश करात की जद-यू के प्रमुख शरद यादव से हुई मुलाकात ने शायद फेडरल फ्रंट की हवा उसके बनने से पहले ठीक उसी तरह निकाल दी है, जैसे वामदलों के बिना मुलायम सिंह यादव की तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद बीच में ही दम तोड़ गई थी। जदयू प्रमुख के साथ इन नेताओं की बातचीत मौजूदा राजनीतिक हालातों को लेकर ही हुई है। ऐसे में माना जा रहा है कि फेडरल फ्रंट बनाने की राह इतनी आसान नहीं है, जितनी जदयू के भरोसे ममता बनर्जी ने कल्पना करते हुए सुगबुगाहट को तेज किया था। सूत्रों के अनुसार वामदलों का जदयू से अलग होने की स्थिति में वामदलों और तेदपा नेताओं ने शरद यादव से देश में गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई दलों के एकजुट होने और तीसरे विकल्प तैयार करने पर ही चर्चा हुई है।
ममता फिर अकेले पड़ सकती है ममता
फेडरल फ्रंट तैयार करने की कवायद में ममता बनर्जी ने राजग से अलग होने की स्थिति में जदयू को सबसे बेहतर मानते हुए सबसे पहले नीतीश कुमार को ही भरोसे में लिया था, लेकिन वामदलों ने अपने प्रतिद्वंद्वी तृणमूल कांग्रेस पर नहले पर दहला मारते हुए जो सियासी रणनीति अपनाई है उसमें वामदलों ने सीधे जदयू को ममता के खेमे में जाने से पहले लपकने के प्रयास तेज कर दिये हैं। ऐसे में ममता फिर उसी तरह से अकेले पड़ सकती हैं, जिस प्रकार राष्ट्रपति  के चुनाव के समय समाजवादी पार्टी के भरोसे पर अंत में अकेले पड़ी और यूपीए की शरण में जाना पड़ा था। सूत्रों के अनुसार वामदलों का जदयू से अलग होने की स्थिति में वामदलों और तेदपा नेताओं ने शरद यादव से देश में गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई दलों के एकजुट होने और तीसरे विकल्प तैयार करने पर ही चर्चा हुई है।
तीसरी ताकतें कभी नहीं हुई मजबूत
इससे पहले भी अनेक बार भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ तीसरी राजनीतिक ताकतें सक्रिय हुई हैं, लेकिन कभी भी तीसरा मोर्चा ठोस राजनीतिक आधार हासिल नहीं कर सका है। वर्ष 1996 के आम चुनाव में तीसरा मोर्चा बनाने वाली ताकतें सक्रिय हुई, तो भाजपा मजबूत हुई थी। इससे पहले ऐसा मौका वर्ष 1989 में वीपी सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा बना और भाजपा व वामदलों के बाहरी समर्थन से सरकार भी बनी, लेकिन राष्ट्रीय जनमोर्चा ऐसा टूटा कि उससे जनता दल, सपा, द्रमुक, तेलुगु देशम, तिवारी कांग्रेस जैसे दलों का उदय हुआ। नतीजा यह था कि चार वामदलों और नेशनल कांफ्रेंस समेत इन दलों ने संयुक्त मोर्चा बना लिया और कांग्रेस के बाहरी समर्थन से केंद्र में सरकार भी बनाई। आखिर यह मोर्चा भी टूटने को मजबूर हुआ और 1998 में मध्यावधि चुनाव की घोषणा हुई, तो तीसरे मोर्चे की पहल हुई और भाजपा की सरकार केंद्र में बनी तो तीसरे मोर्चे में शामिल कई दल भाजपा के नेतृत्व में बने राजग में शामिल हुए, जिनमें से जदयू भी  एक है जिसके 17 साल के रिश्ते तार-तार होने के कगार पर हैं।

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