सोमवार, 21 जुलाई 2025

साक्षात्कार: साहित्य संवर्धन में नैतिकता और आध्यात्मिकता भी अहम: ओपी चौहान

हास्य-व्यंग्य से हरियाणवी जीवन, संस्कृति और सामाजिक मुद्दों पर दी समाज को नई दिशा 
                     व्यक्तिगत परिचय 
नाम: ओम प्रकाश चौहान 
जन्मतिथि: 6 मार्च, 1954 
जन्म स्थान: गांव मोठ करनैल, जिला हिसार (हरियाणा)
शिक्षा: एम.ए.(हिंदी), एम.फिल., प्रभाकर, संगीत भूषण 
सम्प्रति: सेवानित्त शिक्षक, कवि, रचनाकार, साहित्यकार, समाजसेवी 
संपर्क: दीप निवास, गुरुद्वारा कॉलोनी, गली नं. 5, रोहतक रोड़, जींद-126102 (हरियाणा), मो. नं. 9466552377 
By-ओ.पी. पाल 
साहित्य जगत में लेखक एवं साहित्यकार विभिन्न विधाओं में सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर साहित्य संवर्धन करके समाज को सकारात्मक संदेश देते आ रहे हैं। ऐसे ही हिंदी एवं हरियाणवी भाषा के मूर्धन्य विद्वान एवं प्रबुद्ध साहित्यकार ओम प्रकाश चौहान ने विभिन्न विधाओं में साहित्य सृजन करते हुए समाज में बाल मनुहार से बुजुर्गो तक के मनो को छूते हुए हरियाणा के ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय-साहित्यिक-क्षितिज को अपने साहित्यिक सेवा से आलोकित किया है। गद्य और पद्य दोनों प्रारुपों मे उन्होंने काव्य के विविध रूपों यथा-यात्रा-वृत्तान्त, जीवनी, हास्य-व्यंग्य, पुस्तक-समीक्षा, तथा रिपोर्ताज आदि साहित्यिक विधाओं पर लेखन में एक हास्य कलाकार और बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा के रुप में पहचान बनाई है। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान वरिष्ठ एवं सुविख्यात साहित्यकार ओ.पी. चौहान ने अपने साहित्यिक सफर को लेकर कई ऐसे अनुछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिसमें सामाजिक सरोकारों के मुद्दों के साथ नैतिकता और आध्यात्मिकता भी साहित्य संवर्धन में महत्वपूर्ण है, ताकि भारतीय संस्कृति को जीवंत रखा जा सके। 
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रियाणा के वरिष्ठ साहित्यकार एवं हास्य कवि ओम प्रकाश चौहान का जन्म 6 मार्च, 1954 को हिसार जिले के गांव मोठ करनैल में जुगलाल चौहान और श्रीमती मिसरी देवी के घर में हुआ था। आर्थिक दृष्टि से निर्धन होते हुए भी उनका पारिवारिक परिवेश सुसंस्कारी एवं संवेदनशील रहा। उनके माता-पिता धार्मिक प्रवृत्ति के सद्गृहस्थ थे, इसी का ही परिणाम है कि उदात्त मानवीय गुण आए, जो उन्हें साहित्य पढ़ने और रचने की अभिरुचि की ओर अग्रसर करते चले गए। दूसरी तरफ उनके पिता महाकवि सूरदास, संत कबीर दास, संत शिरोमणि रविदास आदि की वाणियाँ सुनते सुनाते थे, तो इसके प्रभाव के कारण बचपन में ही उन्हें लेखन करने की प्रेरणा मिलने लगी। राजपूत लखेरा समाज से संबंध रखने वाले ओम प्रकाश चौहान का बचपन भले ही निर्धनता भरे माहौल में गुजरा हो, लेकिन उनके पिता का अपने परिवार के प्रति समर्पण सदैव सुखद रहा है। जुलाना कस्वे में पले-बढ़े-पढ़े और प्रारंभिक शिक्षा राजकीय उच्च विद्यालय जुलाना मंडी जींद में हुई। उन्होंने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद प्रभाकर और ओ.टी. की परीक्षा पास की। उसके बाद वह जींद में जुलाना के संस्कृत महाविद्यालय में प्रभाकर की कक्षा पढ़ाने लगा। इसी दौरान उन्होंने महाकवि सूरदास, तुलसीदास, कबीरदास, जायसी आदि कवियों के काव्य का अध्ययन किया। इन सभी के श्रेष्ठ काव्यांशों से वह ऐसे प्रभावित होते चले गये कि उन्हें सभी काव्यांश कंठस्थ हो गए। हालाकिं तत्कालीन प्रभाकर का पाठ्यक्रम विशाल था, जिसमें मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, रामधारी सिंह 'दिनकर, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, हरिवंशराय बच्चन, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ आदि की शामिल कविताएँ विशेष प्रभाव डालने वाली थीं। उन्होंने सनातन धर्म उच्च विद्यालय जींद में हिंदी अध्यापक के पद पर करीब 12 वर्ष तक कार्य किया। इसके बाद उन्होंने पारिवारिक परिस्थितियों के कारण सरकारी सेवा में आने का निर्णय लिया और वह नवम्बर 1991 में सरकारी सेवा में आ गये। साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने आरंभ में अनेक हरियाणवी भजन लिखे, जो जो विशेष स्तरीय न होने पर भी संख्या में अधिक थीं, कीर्तन के रूप में स्थानीय लोगों द्वारा गाई जाने लगी थीं। व्याकरण सम्मत परिमार्जित भाषा के अध्ययन के कारण मुझे हिन्दी लेखन अधिक रुचिकर लगने लगा और उन्होंने हिन्दी में अपनी प्रथम कहानी ‘दूसरा पत्र’ लिखी, जिसे पाठकों ने खूब सराहा। 
गद्य व पद्य में किया साहित्य सृजन 
बकौल ओपी चौहान, उन्होंने अपने साहित्य सृजन में गद्य और पद्य दोनों प्रारुप को समान स्थान दिया। गद्य विधा में उन्होंने निबंध, लघुकथाएं, कहानियां, यात्रा कृतांत और विनोद वार्त्ताएँ लिखीं, तो वहीं पद्य में कविता, गजल, दोहे, रागनियां और भजन लिखे हैं। साल 1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद उनके भीतर अलग तरह की प्रेरणा समा गई थी। जिसके फलस्वरूप उन्होंने हिन्दी में देशभक्तिपूर्ण रचनाएं लिखना आरम्भ किया और यहीं से हिन्दी कविता लेखन में पर्दापण किया। उनकी साहित्यिक साधना में आत्मानंद की अनुभूति, कर्त्तव्यपरायणता का जज्बा, राष्ट्रीय चेतना और पूर्वजों द्वारा धर्मपरायणता की सिद्धि मूल में रही हैं। इसलिए वह निराशा के पलों में भी प्रफुल्लित रहते हुए अपनी कविताओं में रस, छंद, अलंकार, शब्दशक्ति, शब्दरीति, काव्यगुण आदि को सदैव महत्व देते रहे हैं। ओपी चौहान के साहित्यिक बोध के ‘विविध आयाम’ विषय पर बाबा मस्तनाथ यूनिवर्सिटी में पीएचडी की उपाधि के लिए शोध हो रहा है, वहीं हरियाणा बाल साहित्य को ओपी चौहान का योगदान विषय पर कुरुक्षेत्र विवि में एमफिल की जा चुकी है। पिछले 43 साल यानी 1981 से निरंतर जुडाव, शिक्षा, संस्कृति, समाज सुधार और युवाओं को दिशादान, नशामुक्ति व राष्ट्रीयता आदि विषयों पर वक्तव्य, संगीत रुपक और गीत आदि का निरंतर प्रसारण होता आ रहा है और उनकी कविताएं, आलेख और रचनाएं देश के प्रतिष्ठ पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। हरियाणवी में लिखे उनके आध्यात्मिक एवं देशभक्ति गीतों की टी-सीरीज सहित विभिन्न कंपनियों से अनेक ऑडियो कैसेट्स प्रसारित हो चुकी हैं। ओम प्रकाश चौहान हिन्दी साहित्य प्रेरक संस्था जीन्द के पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी भाषा प्रचार-प्रसार मंच हरियाणा के अध्यक्ष और लोक-सेवा परिषद् जीन्द के वरिष्ठ उपाध्यक्ष तथा अखिल भारतीय साहित्य परिषद् जीन्द इकाई के उपाध्यक्ष रहे हैं। वहीं वे संस्कार भारती जीन्द इकाई के साहित्य विधा प्रमुख और अनेक साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं के आजीवन सदस्य भी है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
हिंदी व हरियाणवी साहित्यकार ओपी चौहान अभी तक तीन दर्जन पुस्तकें लिख चुके हैं, जिनमें प्रकाशित 15 पुस्तकों में हिंदी भाषा की कृतियों में कविता संग्रह-प्रथम प्रपात, अमृत प्याला जिन्दगी, प्रबन्ध काव्य-जिन्दगी, विनोद वार्ताएं-श्रीमती ने पत्र लिखा, बाल साहित्य में बाल गीत माला गर्वित, अर्पिता, हर्ष बाल गीत के अलावा नानी की कहानियां और बाल निबन्ध-वाटिका सुर्खियों में हैं। उनके हरियाणवी भाषा की रचनाओं में वीराख्यान प्रबन्ध काव्य-मेवाड़ का शेर: महाराणा प्रताप, भजन संग्रह-आराधना के गीत और गजल संग्रह-ऐसे मन बहलाया जाए पाठकों के बीच हैं। उन्होंने पाठ्यक्रम पुस्तक के रुप में पांच भागों में अमर संदेश भी लिखी है। इसके अलावा उनकी संपादित पुस्तक के रुप ज्ञान-गीतांजलि और सह संपादन की जयन्ती के आराधक भी शामिल है। जबकि हिंदी और हरियाणवी भाषा में उनकी डेढ़ दर्जन से ज्यादा विभिन्न विधाओं में लिखी गई पुस्तकें अप्रकाशित हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
हरियाणा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी द्वारा साहित्य अभिनंदन योजना 2022 के पं. माधव प्रसाद मिश्र सम्मान से अलंकृत वरिष्ठ साहित्यकार ओम प्रकाश चौहान को अब तक अनेकों पुरस्कार मिल चुके हैं। इसके अलावा उन्हें साहित्य सारथी सम्मान, इन्दिरा-स्वरुप स्मृति साहित्य श्री सम्मान, उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान के अलावा शैक्षणिक, समाजिक एवं सांस्कृति क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए अनेक पुरस्कार व सम्मान के अलावा प्रशस्ति पत्र, प्रशंसा पत्र और अन्य प्रमाण पत्रों से भी नवाजा जा चुका है। 
आधुनिक युग में साहित्य 
वरिष्ठ रचनाकार एवं कवि ओम प्रकाश चौहान का आधुनिक युग में साहित्य के सामने चुनौतियों को लेकर मानना है कि पिछले कुछ वर्षों से मानवीय जीवन मूल्यों में बदलाव हुए हैं और गिरावट भी आई है। इसलिए इस बदलते परिवेश में साहित्यिक साधना हो या सुरुचिपूर्ण जीवनशैली इस बदलते परिवेश में प्रभावित हुई है। उन्होंने कहा कि आज का युवा स्वाध्याय छोड़कर मोबाइल पकड़ बैठा है इसीलिए वह ज्ञानी होने के दंभ में अज्ञानी होता जा रहा है। जबकि स्वाध्याय मानव को संस्कृति और संस्कारों से जोड़ता है समुचित दिशा देता है अतः युवाओं को स्वाध्याय अपनाना चाहिए। उनका कहना है कि एक सच्चा साहित्यकार संत प्रवृत्ति का धनी होता है, इसलिए सभी को सदैव अपने समुचित लोकव्यवहार के अनुरूप जीवन व्यतीत करना चाहिए। समाज और संस्कृति को जीवंत रखने के लिए साहित्यकारों व लेखकों को भी इसी आधार पर श्रेष्ठ साहित्य सृजन करना आवश्यक है, जो मानव जीवन का मूल उद्देश्य भी है। उनका यह भी मत है कि साहित्य की प्रत्येक रचना कालजयी नहीं होती। कुछ रचनाएँ साहित्य में स्थान पाती हैं और कुछ अल्पकालीन जीवन के साथ प्रभावहीन होकर तिरोहित हो जाती हैं। केवल वे रचनाएँ ही शाश्वत होने का गुण ग्रहण करती हैं, जो मानवीय जीवन मूल्यों पर खरी उतरती हई अनुभूति की संजीवनी पीये हए हों। 
21July-2025

सोमवार, 14 जुलाई 2025

चौपाल: लोक कला एवं संस्कृति अतीत की विरासत: डा. सीमा वत्स

लोक नृत्य और गीतकार के साथ सामाजिक गतिविधियों ने भी दी पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: डा. सीमा वत्स 
जन्मतिथि: 4 मई 1981 
जन्म स्थान: घरौंडा, जिला करनाल (हरियाणा) 
शिक्षा:पीएचडी(अंग्रेजी),एमए(अंग्रेजी),एमएससी, बीएड, लोक नृत्य और संगीत कोर्स 
संप्रत्ति: शिक्षिका, कवियत्रि, हरियाणवी लोक कलाकार 
संपर्क: मोबाइल नंबर 9654609425, ईमेल आईडी seemavats02@gmail.com 
BY-ओ.पी. पाल 
रियाणवी संस्कृति में लोक कला एवं संगीत की परंपरा की विरासत को संजोने के लिए लोक कलाकार अपनी अलग अलग विधाओं में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी कला के रंग बिखेर रहे हैं। ऐसे ही कलाकारों में महिला लोक कलाकार डा. सीमा वत्स भी कविताओं और गीत संगीत के साथ लोक नृत्य की कला को आगे बढ़ाने में जुटी हैं। अपनी लोक कला के जरिए वह लिंग भेदभाव, नारी विमर्श और सामाजिक सरोकार के मुद्दों को लेकर समाज को नई दिशा देने का प्रयास कर रही है। खासकर वह नई पीढ़ी को लोक कला एवं संस्कृति की शिक्षा देकर उन्हें अपनी परंपराओं से जुड़े रहने का भी संदेश दे रही हैं। अपनी लोक नृत्य और गीत संगीत के सफर को लेकर एक शिक्षिका, कवियत्री और लोक कलाकार डा. सीमा वत्स ने हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान कई ऐसे पहलुओं को भी रखा है, जिसमें लोक कला, संगीत और संस्कृति एक अतीत की विरासत ही नहीं है, बल्कि भविष्य का आधार भी हैं, जिससे अपनी संस्कृति को जीवंत रखने के साथ युवा पीढ़ी को आत्मिक, रचनात्मक और सामाजिक रूप से समृद्ध बनाना संभव है। 
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रियाणा की लोक कलाकार डा. सीमा शर्मा वत्स का जन्म 4 मई 1981 को करनाल जिले के घरौंडा में मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हरिकिशन शर्मा और श्रीमती कमला देवी के घर में हुआ। घर परिवार में कोई किसी तरह का साहित्यिक या सांस्कृतिक माहौल नहीं था। लेकिन घरों में तीज़ त्यौहार शादी ब्याह आदि समारोह में गीत, संगीत, नृत्य, अभिनय जैसी कलाकारी देखने को जरुर मिलती रही। उनकी प्राइमरी से इंटरमिडिएट की शिक्षा सरकारी स्कूल में हुई। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने आर्य कालेज में दाखिला लिया और स्नातक की द्वितीय शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही महज 19 साल की आयु में परिवार वालों ने विवाह कर दिया और अगले वर्ष मातृत्व सुख और गृहस्थ जीवन की जिम्मेवारियों के साथ पढ़ाई को जारी रखना और लोक कला को जीवित रखना उनके लिए संघर्षशील जीवन रहा। उस समय इतने साधन भी नहीं होते थे, जिसके कारण वह एमए अंग्रेजी फाइनल की परीक्षा भी नहीं दे सकी और उनकी उच्च शिक्षा अधूरी पड़ गई। हालांकि कुछ समय बाद उन्होंने कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से पीजीडीसीए के लिए फॉर्म भरा और किसी तरह उसे पूरा भी किया, चूंकि बचपन से ही उन्हें गीत संगीत की अभिरुचि के साथ साहित्यिक का भी शोक था। इसलिए मन की आवाज को दबाकर भी नहीं रख सकती थी और साहित्य प्रेम उसे आकर्षित करता रहा। इसीलिए उन्होंने दोबारा से एमए (अंग्रेजी) की शिक्षा पूरी की। इसके बाद वह पीएचडी पूरी करने में भी कामयाब रही। जीवन के ऐसे उतार चढ़ाव के बीच उन्होंने अपना हौंसला कायम रखा और उन्होंने लोक कला में नृत्य विधा को अपने से दूर नहीं होने दिया। लोक संस्कृति में नृत्य और गीत की अभिरुचि के चलते ही उन्होंने ग्रेजुएशन में संगीत विषय को चुना था। बकौल डा. सीमा शर्मा, जब स्कूल में पढ़ रही थी तो एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए बच्चों का चयन किया जा रहा था, इसके लिए शिक्षिका ने उनसे भी गीत सुना और डांस कराया। उन्हें उनका डांस बहुत पसंद आया। इसलिए इस कार्यक्रम के लिए गीत ‘कोठे चढ़ ललकारूँ दिखे ओ मेरा दामन लयाइए..’, के लिए उसका नृत्य के लिए चयन कर लिया गया। इस गीत पर उनकी ताई भी नृत्य करती थी और वह ढोलक बजाया करती थी। सौभाग्य से स्कूल के इस सांस्कृतिक कार्यक्रम में हरियाणा के मुख्यमंत्री भी अतिथि के रुप में शामिल हुए, जिन्होंने उनके गीत पर नृत्य को सराहते हुए ईनाम स्वरुप कुछ धनराशि भी भेंट की। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था। इसके बाद उनका लोक नृत्य के प्रति रुझान बढ़ता गया। दूसरी ओर उन्हें स्कूल में किसी विषय पर कविता पाठ का अवसर मिलता तो वह अपनी कविता लिखकर प्रस्तुति देती थी। उनकी कला एवं साहित्यिक गतिविधियों तथा लेखन का फोकस सामाजिक सरोकार के मुद्दे रहे हैं। वह लिंग भेदभाव को कम करने की दिशा में भी लगातार समाज को नई दिशा देने का प्रयास कर रही है, जिसमें थर्ड जेंडरों के भी कार्य करना शामिल है। डा. सीमा शर्मा गीता जयंती, जिला स्तरीय कार्यक्रमों, कवि सम्मेलन और काव्य गोष्ठी, रेडियो आकाशवाणी आदि में अपने लोक नृत्य का प्रदर्शन कर चुकी हैं।विश्वविद्यालयों और डीओई आदि के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में वह जूरी सदस्य के रुप में भी जिम्मेदारी निभा रही हैं। उन्हें कार्यस्थल और घर की कक्षाओं में सांस्कृतिक प्रभारी और कोरियोग्राफर के अलावा जिला राज्य स्तरीय कार्यक्रमों में कोरियोग्राफर के रुप में कार्य करने का भी अनुभव है। यूजीसी और साझा काव्य संग्रह में शोध पत्र के अलावा उनकी कविताएं, कहानी, ग़ज़लें और लेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं। वह गीत और संगीत में निर्देशक तौर पर भी कार्य कर रही हैं। उनका प्रयास हमेशा हरियाणवी लोककला और संस्कृति को अपने जीवन में उतारकर उसके संवर्धन के लिए कार्य करने का है। 
सामाजिक सेवा में सक्रीय 
लोक नृत्य कलाकार एवं कवियत्री डा. सीमा शर्मा साहित्यिक एवं लोक कला के क्षेत्र में अपना हुनर का प्रदर्शन करने के अलावा विशेष रूप से लड़कियों की शिक्षा, ड्रॉप आउट छात्रों यानी पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलाकर उन्हें शिक्षा से जोड़ रही हैं। वहीं वे ट्रांसजेंडरों के उत्थान के लिए सामाजिक गतिविधियों में भी सक्रीय है। बतौर शिक्षिका उन्होंने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया कि उनकी एक छात्रा कक्षा बारह में फेल हो गई थी। निराश वह छात्रा उनके पास आकर रोने लगी और बताने लगी कि उनके घरवाले उन्हें आगे नहीं पढ़ाएंगे और उसकी शादी करने को कह रहे हैं। इस पर डा. सीमा ने छात्रा की मम्मी को बुलाकर उसे एक साल पढ़ाने का आग्रह किया और दोबारा 12वीं कक्षा में प्रवेशा करया, जो इस बार उत्तीर्ण हुई और प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करके उसने नौकरी हासिल करके यह साबित कर दिया कि जीवन में मौके मिलेंगे तो निश्चित रुप से अवसर भी बदलेंगे। 
पुरस्कार व सम्मान 
लोक कलाकार डा. सीमा वत्स को लोक कला व संगीत में अनेक पुरस्कार व सम्मानों से नवाजा जा चुका है। भारत नेपाल साहित्य सम्मेलन में स्वर साधना मंच द्वारा उन्हें काव्य सयंदन सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है। वहीं उन्हें गोपाल दास नीरज साहित्य समूह साहित्य सम्मान, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल सम्मान, कला सांस्कृतिक साहित्य सम्मान, सनिधा साहित्य श्री सम्मान, राष्ट्र शक्ति शिरोमणि सम्मान, बी एम बी एक्सीलेंस अवार्ड और लखनऊ में हेल्प यू नारी अस्मिता सम्मान से भी पुरस्कृत किया जा चुका है। इसके अलावा उन्हें सार्थक सेवा समिति, आशा रंगलाल जगदेव फाउंडेशन और श्री शक्ति स्वरूपा भव्य भारत की दिव्य विभूति जैसी संस्थाएं सम्मानित कर चुकी है। 
आधुनिक युग में परंपरागत विधाओं में चुनौती 
हरियाणा की लोक नृत्य कलाकार डा. सीमा वत्स का इस आधुनिक युग में लोक कला एवं संस्कृति के सामने चुनौतियों को लेकर कहना है कि इंटरनेट व सोशलमीडिया के प्रभाव लोक कला, रंगमंच, अभिनय, संस्कृति और साहित्य जैसी परंपरागत विधाओं में देखा जा रहा है। खासकर युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति से दूर होती जा रही है, जिसके कारण पहले की तुलना में कला एवं संस्कृति के प्रति की रुचि कुछ कम होना स्वाभाविक है। खासतौर से डिजिटल युग में पारंपरिक कलाओं की जगह आधुनिक, तकनीकी और त्वरित मनोरंजन के साधन बन गये और युवाओं को ओटीटी प्लेटफॉर्म्स, सोशल मीडिया, गेमिंग और रील्स जैसी चीजें भाने लगी हैं। जबकि जबकि लोक कला या साहित्य जैसे क्षेत्र ही समाज को सकारात्मक ऊर्जा और अपनी संस्कृति से जोड़े रखता है। ऐसे में इस बात की आवश्यकता है कि युवाओं को साहित्य और लोक कला व संस्कृति के प्रति प्रेरित करने की दिशा में स्कूली और कालेज स्तर पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। वहीं सरकारी और निजी स्तर पर लोक कला व संस्कृति के संरक्षण और प्रोत्साहन देने की जरुरत है, ताकि सामाजिक दृष्टि से भी लोककला और साहित्य जैसी सांस्कृतिक विरासत को जीवंत रखा जा सके। 
14July-2025

सोमवार, 7 जुलाई 2025

साक्षात्कार: साहित्य और समाज एक दूसरे के बिना अधूरे: डा. नीरू मित्तल ‘नीर’

समाजिक सरोकार के मुद्दों पर साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन से बनी पहचान 
     व्यक्तिगत परिचय 
नाम: डॉ. नीरू मित्तल ‘नीर’ 
जन्मतिथि: 26 जून 1958 
जन्म स्थान: अजमेर(राजस्थान) 
शिक्षा: एम. कॉम, सी.ए.आई.आई.बी 
संप्रति: बैंकिंग सेवा से निवृत, साहित्यकार, कथाकार, कवयित्री एवं लेखक, समाजसेविका, योग शिक्षिका 
वर्तमान पता: 40, सेक्टर-15, पंचकूला(हरियाणा)
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By- ओ.पी. पाल 
साहित्य के क्षेत्र में कविता, गजल, कहानी, व्यंग्य, लघुकथा, लेख निबंध, समीक्षा जैसी विधाओं का मानवीय एवं सामाजिक सरोकार के लिए कितना महत्व है। इन्हीं मूल्यों को लेकर साहित्यकार एवं लेखक साहित्य सृजन करने में जुटे हैं, जिसमें लेखकों का मकसद समाज को नई दिशा और सकारात्मक विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए अपनी संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं जुड़े रहने का संदेश देना है। ऐसी की लेखक एवं महिला साहित्यकार डॉ. नीरू मित्तल अपनी ऐसी ही लेखन विधाओं के माध्यम से बच्चों से लेकर बुजुर्गो के साथ ही हरियाणवी संस्कृति संवर्धन एवं सामाजिक उत्थान के लिए साहित्य साधना करती आ रही हैं। अपने साहित्यिक सफर को लेकर साहित्यकार, कथाकार, कवयित्री एवं लेखक डॉ. नीरू मित्तल ‘नीर’ ने कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किये, जिसमें समाज और साहित्य एक दूसरे के बिना जीवंत नहीं रह सकते। 
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रिष्ठ महिला साहित्यकार डॉ. नीरू मित्तल का जन्म 26 जून 1958 को अजमेर(राजस्थान) में हरिश चन्द्र गुप्ता और श्रीमति दम्यंती देवी गुप्ता के घर में हुआ। परिवार में कोई भी साहित्य माहौल नहीं था और न ही कोई सदस्य साहित्य से जुड़ा था, लेकिन उन्हें बचपन में ही तुकबंदियां करते हुए कुछ न कुछ लिखने में अभिरुचि हुई। स्कूल में भी वे कविताएं सुनाती और उनकी लिखी कविताएं स्कूल और कॉलेज की मैगजीन में प्रकाशित होने लगी, तो उनके पिताजी ने बहुत प्रोत्साहित करना शुरु कर दिया। उनके लेखन की शुरुआत कविताओं से हुई, लेकिन वह जल्द ही कहानियां भी लिखने लगी। जब वह कॉलेज में पढ़ रही थी, तो उनकी रचनाएं आकाशवाणी पर प्रसारित होने लगी और पिता अजमेर से रिकार्डिंग के लिए आकाशवाणी केंद्र जयपुर ले जाते थे। बकौल डॉ. नीरू मित्तल, साल 1981 में उनकी जयपुर में बैंक ऑफ बडौदा में नौकरी लग गई। इसके बाद साल 1984 में उनका विवाह हरियाणा के पंचकूला में हुआ। इस वजह से उन्होंने अपना स्थानांतरण पंचकूला की बैंक शाखा में करा लिया और यहीं से वह सेवानिवृत्त हुई। हालांकि शादी के बाद वह अपनी बैंकिंग की नौकरी, परिवार और बच्चों में अत्यधिक व्यस्त हो गई और लेखन बहुत सीमित रह गया। लेकिन इस दौरान भी वह नराकास के कार्यक्रमों में भाग लेती रही और पुरस्कार जीतती रही। बच्चे जब प्रोफेशनल कॉलेज में चले गए और उन्हें कुछ समय मिलने लगा तो मेरा साहित्य के प्रति लगाव पुनः जागृत हो गया और उन्होंने हरियाणवी संस्कृति संवर्धन एवं सामाजिक उत्थान के लिए साहित्य सृजन को नई दिशा दी। उनकी रचनाओं का फोकस मुख्य रूप से समाज में व्याप्त विडंबनाओं, कुंठाओं बेबसी, आक्रोश, अनेकों विषमताएं और लोगों की जिजीविषा जैसे सामाजिक सरोकार के मुद्दे और समस्याओं पर रहा है, इन्हीं पर उनकी कलम सक्रीय रही, जिसमें नारी विमर्श भी उनके लेखन में स्वतः ही झांकने लगा। बकौल नीरु मित्तल, साहित्य के अलावा उन्हें गायन और नृत्य का भी शौक रहा है। वह अपने हम उम्र साथियों के लिए नृत्य कोरियोग्राफ भी करती हैं। जहां वे कहानी, लघुकथा, लेख निबंध, कविता, साक्षात्कार, समीक्षा, व्यंग्य, यात्रा संस्मरण, समीक्षा और साक्षात्कार ज जैसी विधाओं में साहित्य संवर्धन करने में जुटी हैं, वहीं वह योगा शिक्षक भी रही और सामाजिक गतिविधियों में भी वे बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती हैं। उन्होंने देश के विभिन्न राज्यों में आयोजित कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ भी किये हैं। देश के वरिष्ठ साहित्यकारों व रचनाकारों का सानिध्य मिला है। उनकी रचनाएं देश ही नहीं विदेश के पत्र पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती रही है। चंडीगढ़ दूरदर्शन केंद्र और आकाशवाणी केंद्र जयपुर से समय-समय पर उनकी कविताओं व रचनाओं का प्रसारण तो हो ही रहा है। वहीं रेडियो 'अपना विनीपेग' कनाडा और 'जस टीवी' कनाडा पर भी उनके साहित्यिक काव्य पाठ कार्यक्रम और साक्षात्कार प्रस्तुत हुए हैं। कई विदेशी मंचों जैसे 'रूट्स टू हिंदी काव्यांजलि' शिकागो, 'निर्मल रोशन मंच' न्यूयॉर्क, 'महिला काव्य मंच' इंडोनेशिया पर भी वे अपनी कविताएं प्रस्तुत कर चुकी हैं। यहाँ वह यह बात अवश्य कहना चाहती है कि विदेश में बैठे भारतीय अपनी संस्कृति अपनी भाषा और अपने देश से कहीं गहराई से जुड़े हुए हैं। वह उनकी निष्ठा और समर्पण को नमन करती हैं। 
आधुनिक युग में साहित्य 
वरिष्ठ महिला साहित्यकार एवं लेखक नीरु मित्तल का मानना है कि आज के आधुनिक युग में भी साहित्य गतिशील है और गद्य हो या पद्य, दोनों विधाओं में ही नवीन शैलियों का विकास हो रहा है। लघुकथा, लघुकविता, नवगीत जैसी विधाएं अपने उत्कर्ष की ओर अग्रसर हैं। छायावाद से आगे हम प्रयोगवाद पर आ गए हैं। साहित्य पर सामाजिक, राजनीतिक चेतनाओं का गहरा प्रभाव पड़ा है। आधुनिक युग की जीवन शैलियों और मूल्यों का भी साहित्य पर असर हुआ है। इंटरनेट और सोशल मीडिया यथा व्हाट्सएप, फेसबुक आदि के माध्यम से भी साहित्य का प्रचार और प्रसार हो रहा है। अब एक भाषा का लिखा गया साहित्य दूसरी भाषाओं में भी अनुवादित होकर वैश्वीकरण की ओर बढ़ रहा है। इसका दूसरा पहलू ये भी है कि इस युग में जैसे जैसे भौतिकवाद बढ़ रहा है, वैसे ही स्वार्थ और धन लोलुपता बढ़ने से साहित्य में भी दिखावा और सस्ती लोकप्रियता पाने की लालसा बढ़ती नजर आ रही है। इसका नतीजा ये है कि लेखक तो बहुत हो गए परंतु पाठक सिमट गए। सोशल मीडिया के चलते पुस्तकों का क्रय विक्रय संकुचित हुआ है। युवा पीढ़ी साहित्य से वंचित नहीं है। साहित्य में तो रुचि है परंतु वह साहित्य अंग्रेजी माध्यम में है। आज के बच्चे किंडल पर अंग्रेजी किताबें पढ़ते हैं। अंग्रेजी के बड़े लेखकों की किताबें पढ़ते हैं। इसमें सुधार के लिए जरुरी है कि सर्वप्रथम हमें अपने संस्कारों अपनी संस्कृति के प्रति गर्व महसूस करते हुए अपनी भाषा का सम्मान करें, तभी हिंदी साहित्य में उनकी रुचि स्वतः ही जागृत हो जाएगी। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्य की विभिन्न विधाओं में साहित्य सृजन करती आ रही महिला साहित्यकार डॉ. नीरू मित्तल की प्रकाशित पुस्तकों में काव्य संग्रह-अनकहे शब्द, शब्दों की परछाइयाँ, चट्टान पर खिले फूल, पंचतत्त्व और मैं, कहानी संग्रह-रिश्तों की डोर, कोहरे से झाँकती धूप, लघुकथा संग्रह-तिनका तिनका मन, प्रतिबिम्बों की अनंत यात्रा, बाल साहित्य-मेरे वर्णमाला गीत, छू लो आसमान प्रमुख रुप से पाठकों के सामने हैं। उन्होंने खुशियाँ लौटेंगी, सुनहरी यादों के झरोखों से नामक पुस्तकों का संपादन भी किया। वहीं पंजाबी रचनाओं का अन्य भाषाओं में अनुदित भी की हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
महिला साहित्यकार एवं लेखिका डॉ. नीरू मित्तल और उनकी विभिन्न विधाओं में लिखी किताबों को पुरस्कार मिले। उन्हें हरियाणा साहित्य गौरव सम्मान, बाल सहित्य सम्मान, डॉ कैलाश अहलूवालिया स्मृति सम्मान पुरस्कार, डॉ. श्यामसुंदर व्यास स्मृति सम्मान, काव्य मंजरी वागीश्वरी सम्मान, काव्य मंजरी वागीश्वरी सम्मान, काव्य शिरोमणि सम्मान, स्मृति साहित्य सम्मान, संस्कृति संवाहक पुरस्कार, शब्द निष्ठा सम्मान, लघुकथा सेवी सम्मान, साहित्य सारथी सम्मान और मां भारती साहित्य के सम्मान जैसे अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। 
07July-2025