सोमवार, 30 दिसंबर 2024

साक्षात्कार: सर्वजन हिताय में साहित्य से समाज का निर्माण संभव: जयभगवान सैनी

वरिष्ठ लेखकों की रचनाओं को हरियाणवी में अनुवाद ने दी पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
 नाम: जयभगवान सैनी 
जन्मतिथि: 14 जनवरी 1959 
जन्म स्थान: भिवानी (हरियाणा) 
शिक्षा: एम.ए.(लोक प्रशासन), एमबीए, एलएलबी, डिप्लोमा सिविल इंजीनियरिंग, एमएमसी(पत्रकारिता)। 
संप्रत्ति: संप्रत्ति: सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य(आईटीआई) एवं स्वतंत्र साहित्य लेखन 
संपर्क: 496सी/120सी, ढाणी बड़वाली, हिसार(हरियाणा), मो. 7988338502

BY-ओ.पी. पाल 
साहित्य जगत के मूर्धन्य विद्वानों का भी ऐसा मत रहा है कि जब सामाजिक और अपनी संस्कृति का संवर्धन करने के मकसद से लेखन का जुनून सिर चढ़कर बोलता है, तो समर्पित साहित्य साधना से उसके लक्ष्य को मंजिल मिल ही जाती है। ऐसे ही हिंदी और हरियाणवी भाषा में लेखन करने वाले जयभगवान सैनी ने एक वरिष्ठ साहित्यकार के रुप में लोकप्रियता हासिल की है। उन्होंने गद्य व पद्य दोनों विद्या में जिस प्रकार से अपने साहित्यिक रचना संसार को गति दी है, उसमें उन्होंने अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों की पुस्तकों का हरियाणवी भाषा में अनुवाद करके साहित्यिक जगत में लेखकों की फेहरिस्त में अपना नाम दर्ज कराया। अपने साहित्यिक सफर को लेकर हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कई ऐसे पहलुओं को उजागर किया, जिसमें उन्होंने सामाजिक सभ्यता और संस्कृति को सामयिक तथ्यों के साथ सर्वजन हिताय में साहित्य की सार्थकता को चरितार्थ किया है। --- 
साहित्यकार जयभगवान सैनी का जन्म भिवानी जिले में 14 जनवरी 1959 को किशनलाल सैनी व श्रीमती तुलसी देवी के घर में हुआ था। उनका परिवार की पृष्ठभूमि में गरीबी से जूझते हुए एक कृषक मजदूर की रही है। उनके परिवार व कुटूम्ब में कोई भी ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था। परिवार में मैट्रिक पास करने वाले जयभगवान ही पहले सदस्य रहे, जिन्होंने व्यक्तिगत परीक्षा देकर मैट्रिक की शिक्षा हासिल की। इसलिए उसके परिवार में साहित्य या कला जैसा माहौल होने का का काई सवाल ही पैदा नहीं होता। उनका परिवार भिवानी से हिसार आकर बस गया था, तो जयभगवान की शिक्षा दीक्षा हिसार में ही हुई। उन्हें बचपन से ही पढ़ने-लिखने के शौक था, जिसके कारण उन्होंने उच्च शिक्षा में मास्टर डिग्री और एलएलबी के अलावा इंजीनियरिंग का डिप्लोमा भी किया। परिजनों ने उनकी शिक्षा के लिए सहयोग व प्रोत्साहन भी दिया। औद्योगिक प्रशिक्षण विभाग(आईटीआई) में प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत्ति के बाद वे निरंतर साहित्य साधना में जुटे हुए हैं। हालांकि साहित्य के प्रति उनका स्कूल व कालेज में शिक्षारत रहते ही बेहद रुझान रहा और इसी कारण वह साहित्यकार भी बन गये। बकौल जयभगवान सैनी, उनकी साहित्य लेखन के प्रति रूचि गद्य विद्या में थी और शायद उनकी लिखी हुई पहली रचना के रुप में कहानी ‘तबादला’ हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा में 1999 में छपी। उन्होंने बताया कि 26 जनवरी 2001 को जब गुजरात में भूकंप आया था, तब वह गाँधी धाम की सेवा में गये थे, जहां उनके मित्र वीरेन्द्र कौशल ने उन्हें पद्य में भी लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके बाद वह पद्य विद्या में भी लिखने लगे और उनकी कविताएं राष्ट्रीय अखबारों में भी छपने लगी, तो उनका गद्य और पद्य दोंनों विधाओं में लेखन के लिए आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था। हालांकि साहित्यिक सफर के दौरान उन्हें कई खट्टे मीठे अनुभवों से भी गुजरना पड़ा। मसलन जब वह इस क्षेत्र में मार्गदर्शन के कुछ ऐसे साहित्यकारों से मिले, जो अपने आपको उच्च कोटि के साहित्यकार मानते थे, लेकिन प्रोत्साहित करने के बजाए उन्होंने उसे दुतकार कर भगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन उन्हें लिए प्रो. रूप देवगुणजी, डा. मधुकांत, डा. जयभगवान सिंगला, डा.ओमप्रकाश कादयान,डा. अशोककुमार ‘मंगलेश’, आनन्दप्रकाश ‘आर्टिस्ट’ आदि अच्छे साहित्यकारों का सानिध्य मिला, जिन्होंने दुतकारने वाले साहित्यकारों को मुहंतोड़ जवाब देकर उनका मार्गदर्शन करते हुए बेहद प्रोत्साहित किया, जिनके मार्ग दर्शन से आज वह एक साहित्यकार के रुप में लोकप्रिय हैं। उनके साहित्यिक सफर में यह भी खासबात यह भी रही कि उन्होंने ऐसे प्रसिद्ध और वरिष्ठ साहित्यकारों की कृतियों का हरियाणवी भाषा में अनुवाद करके अपनी साहित्यिक प्रतिभा का लोहा मनवाया। उनकी साहित्यिक रचनाओं का फोकस सामाजिक जीवन और सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दे रहे हैं, जिनमें पढ़ना-लिखना, खाना-पीना, फल-सब्जियाँ, पहनना-ओढ़ना, चलना-फिरना, सोना-उठना, पेड़-पौधे, गाँव-शहर, प्रकृति के अलावा देश विदेश की सामयिक घटनाओं संबन्धित विषय शामिल हैं। वे देश के विभिन्न राज्यों के धार्मिक स्थलों की यात्रा करके उनका अवलोकन कर चुके हैं। 
आधुनिक युग में लड़खड़ाया साहित्य 
वरिष्ठ साहित्यकार एवं अनुवादक जयभगवान सैनी का कहना है कि आज के इस आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति इतनी दयनीय है कि वह लड़खड़ा रहा है। साहित्य के पाठक कम होने का प्रमुख कारण भी यही है। हालांकि आज के दौर में मोबाइल में व्यस्त खासकर युवा पीढ़ी को समय के अभाव में माता पिता का पहले जैसे समय की तरह मार्ग दर्शन और संस्कार नहीं मिल पा रहे हैं और न ही दादा दादी से पढ़ने-लिखने, बोलने-चालने के संस्कार न मिलना भी साहित्य को प्रभावित कर रहे हैं, जिसका सीधा कुप्रभाव समाज पर पड़ रहा है।उनका कहना है कि युवाओं को साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करने के लिए स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रमों में साहित्य को अधिक से अधिक शामिल करने की आवश्यकता है, जिसकी पुस्तकालयों में उपलब्धता और उसक प्रचार प्रसार पर अधिक ध्यान देना जरुरी है। वहीं साहित्य में आ रही गिरावट के लिए ऐसे लेखक और साहित्यकार भी जिम्मेदार हैं, जो सस्ती और जल्दी लोकप्रियता हासिल करने के लिए पाश्चत्य संस्कृति परोस रहे हैं, जो युवाओं के लिए ही नहीं, बल्कि आने वाले समय में समाज के लिए भी घातक है। इसलिए साहित्यकारों की भी जिम्मेदारी है कि वे समाज में सकारात्मक विचारधारा का संदेश देने वाले साहित्य का सृजन करें। 
प्रकाशित पुस्तकें 
वरिष्ठ साहित्यकार जयभगवान सैनी की प्रकाशित तीन दर्जन से ज्यादा पुस्तकों में पांच यात्रा संस्मरण-श्री अमरनाथ यात्रा एवं गंगा मैया, डगर-डगर-नगर-नगर, रास्तों में रास्ते, वे सुनहरे पल व चलें धामों की ओर, तीन बाल साहित्य-कलरव करते पक्षी, पक्षियों का संसार, चुन्नू-मुन्नू, पांच कविता संग्रह-उम्मीदें, फलो का फल, सब्जीनामा, धरोहर की पाती व धरती मां(हरियाणवी अनुवादित), दस लघु कविता संग्रह-लुप्त-विलुप्त, मन की गंगोत्री, अतीत के झरोखें, दिवस में दिवस, मैने पूछा, विभूतियों की महिमा, प्रो. रुप देवगुण:अतीत की झलकियां, एक पै अगराई मैं, अन्न पै अधिकार सभी का के अलावा कहानी संग्रह-घटना-दुर्घटना प्रमुख रुप से शामिल हैं। इसके अलावा उमडती हरियाणवी यादें शीर्षक से उनकी आत्मकथा भी सुर्खियों में हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
हरियाणवी भाषा में अनुवादक एवं साहित्य जगत में उत्कृष्ट योगदान के लिए जयभगवान सैनी को देश और प्रदेशों में सामाजिक और साहित्यिक संस्थाओं द्वारा अनेक बार सम्मानित किया गया है। उन्हें प्रमुख रुप से साहित्य गौरव सम्मान, लघु कविता सेवी सम्मान, लघु कविता सृजन सम्मान, लघु कविता रत्न सम्मान, जयलाल दास स्मृति सम्मान जैसे पुरस्कारों से नवाजा गया है। वहीं देश के विभिन्न राज्यों के राज्यपालों द्वारा उन्हें प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया जा चुका है और उन्हें कई उपाधियों व पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका हैं। 
30Dec-2024

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

चौपाल: सामाजिक संस्कृति का संवर्धन करने में जुटे फिल्म अभिनेता हरिओम कौशिक

फिल्मों में अभिनय के साथ निर्माता-निर्देशक के रुप में बनाई पहचान 
      व्यक्तिगत परिचय 
नाम: हरिओम कौशिक 
जन्मतिथि: 7 जून 1989 
जन्म स्थान: गांव जाँट (महेंद्रगढ़) 
शिक्षा: एमए (कुरुक्षेंत्र विश्वविद्याल कुरुक्षेत्र), पासआउट सुपवा रोहतक। फिल्म अभिनय में ग्रेजुएशन
संप्रत्ति: निर्माता, निर्देशक, अभिनेता । 
संपर्क: गाँव जाँट, जिला महेंद्रगढ़ (हरियाणा) 
BY--ओ.पी. पाल 
देश-विदेशों तक हरियाणा की लोक कला, संस्कृति और सभ्यता को पहचान दिलाने के लिए सूबे के कलाकारों का अहम योगदान रहा है। ऐसे ही कलाकारों में रंगमंच, थिएटर और बॉलीवुड तक एक अभिनेता के रुप में लोकप्रियता हासिल करने वाले हरिओम कौशिक भी शुमार हैं। खासबात है कि सामाजिक और परिवारिक फिल्मों और उनमें अभिनय को तरजीह देना प्रमुख लक्ष्य रखा। उन्होंने सामाजिक और संस्कृति के संवर्धन की दिशा में कहानियां लिखने के साथ फिल्म निर्माता और निर्देशक के रुप में भी सिनेमा को नया आयाम देने में जुटे हैं। एक फिल्म अभिनेता हरिओम कौशिक ने अपने फिल्मी और अभिनय के सफर को लेकर हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कई ऐसे अनछुए पहलुओं को भी उजागर किया, जिसमें उनका मानना है कि फिल्मों के माध्यम से सामाजिक संस्कृति का संवर्धन संभव है और इसके लिए वे युवा पीढ़ी को सिनेमा के गुर सिखाकर उन्हें अपनी संस्कृति से जोड़ने की मुहिम चलाने में जुटे हैं। 
फिल्म निर्माता, निर्देशक एवं अभिनेता हरिओम कौशिक का जन्म 7 जून 1989 को हरियाणा के महेंद्रगढ़ शहर में कैलाश कौशिक और श्रीमती सुमन देवी के घर में हुआ उनके पिता का महेंद्रगढ़ में एकका निजी स्कूल है, जिसमें उनकी माता जी सुमन देवी भी उनके सहयोग करती है। हरिओम की धर्मपत्नी हेमंत कौशिक शिक्षा विभाग में सरकारी पद पर कार्यरत है। उनके परिवार में किसी प्रकार का सिनेमा या रंगमंच का कोई साहित्यिक व सांस्कृतिक माहौल नहीं था। हरिओम की शिक्षा पिता के अपने स्कूल में ही हुई, जहां होमवर्क न करने पर अन्य बच्चों से ज्यादा उनकी पिटाई होती थी। स्कूल में सुबह की प्रार्थना से शुरुआत होती थी और बालसभा के मंच से चुटकुले सुना कर उनकी रंगमंच की शुरुआत हुई। उन्होंने बाद में कॉलेज में यूथ फेस्टिवल से नाटक मंचन से अपनी कला का प्रदर्शन किया। बचपन में उन्होंने आरएसएस से वर्ग में नाटक बहुत किए और ज्यादातर भागीदारी रहती थी । फिर एनएसएस में खूब मंच की प्रस्तुति दी। बकौल हरिओम कौशिक, हरेक क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए उतार चढ़ाव आता है। ऐसे ही मोड़ उनके फिल्मी एवं अभिनय के सफर में भी आए हैं। मसलन पोस्टर बॉयज़ फ़िल्म में हीरो के दोस्त के किरदार फाइनल हुआ और वर्कशॉप भी हुई, लेकिन शूट से एक दिन पहले उन्हें फ़िल्म से निकाल दिया गया। लेकिन उन्होंने हौंसले के साथ पीछे मुड़ना सही नहीं समझा। इसके बाद उन्होंने जोगी कास्टिंग में कास्टिंग असिस्टेंट के रुप में काम किया और स्टार्स के ऑडिशन लिये और जोगी जी उन्हें अपने सानिध्य में जाते से मुंबई घर लगने लगा। जहां तक फिल्मों में काम करने के विषयों का सवाल है, उन्होंने पारिवारिक फिल्म्स लिखना और बनाना ही प्रमुख लक्ष्य रखा है यानी समाज को साफ़ सुथरा सिनेमा देना ही उनके जीवन का लक्ष्य रहा है। कौशक ने बताया कि पिछले दिनों उनकी दो फ़िल्में 1600 मीटर और बहु काले की पारिवारिक कहानियों पर आधारित रही, जिन्होंने खूब नाम और पैसा दोनों कमाया है। फिल्म उद्योग में लोकप्रिय हुए हरिओम कौशिक सीबीएफसी दिल्ली के सदस्य होने के साथ आईएफएफआई 2022 की पूर्वावलोकन समिति के सदस्य तथा स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ परफॉर्मिंग एंड विजुअल आर्ट्स के आईक्यूएसी के सदस्य भी हैं। ओम कौशिक फिल्मस के प्रेसिडेंट के रुप में हरिओम कौशिक मुंबई में ‘धर्मा प्रोडक्शन’, ‘राजमौली प्रोडक्शन’ तथा ‘सुजीत सरकार’ के साथ भी काम कर चुके हैं। हाल ही में उन्होंने ओम कौशिक फिल्म्स की ओर से हिसार के गुरु गोरखनाथ राजकीय महाविद्यालय के जनसंचार विभाग के विद्यार्थियों को सिनेमा के क्षेत्र में ट्रेनिंग, इंटर्नशिप और संयुक्त प्रोजेक्ट (लघु-फिल्म, वृत्तचित्र, सेमिनार, वर्कशॉप) आदि की सुविधा प्रदान करने के मकसद से हिसार के गुरु गोरखनाथ राजकीय महाविद्यालय के जनसंचार विभाग एवं ओम कौशिक फिल्म्स महेंद्रगढ़ के मध्य मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए गए, ताकि विद्यार्थी प्री-प्रोडक्शन से लेकर पोस्ट-प्रोडक्शन तक की सारी बारीकियों को सीख पाएंगे। 
आधुनिक युग में बढ़ी पाश्चात्य संस्कृति 
इस आधुनिक युग यानी रील बनाने के प्रचलन से कला के क्षेत्र में विकट समय कहा जा सकता है, जहां युवा बहुत जल्दबादी में थिएटर या सिनेमा तक पहुंचने का प्रयास करते देखे जा रहे हैं। ऐसे में हम जैसे लेखकों और निर्देशकों की जिम्मेदारी ज्यादा बढ़ जाती है, कि युवाओं को प्रेरित करने के लिए परिपक्वता के साथ फिल्म या नाटक लिखना आवश्यक है। दूसरा बड़ा कारण यह भी है कि सोशल मिडिया पर वीडियो बना रहे लोग गंदे कंटेंट ज़्यादा परोस रहे हैं, जो आने वाली युवा पीढ़ी के लिए भयावह है और वहीं सामाजिक विसंगतियां पनपने के ज्यादा आसार है। समाज में अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति जागरुकता बढ़ाने के लिए युवाओं को स्कूल की पढ़ाई के साथ थिएटर को जोड़ने से इस क्षेत्र में सुधार की गुंजाइश है। रंगमच पर नाटकों का मंचन संस्कारी, सभ्य, सामाजिक व्यवहारिक के रुप में होता है, जिससे हर कोई प्रभावित हो सकता है। आज लोककला, संगीत, अभिनय, रंगमंच जैसी सांस्कृतिक कलाओं में गिरावट आ रही है। बाजारीकरण के इस दौर में फिल्म्स में अभी मिलावट हो रही और फूहड़ता परोसी जा रही है। इस तरह के कंटेट स्थायीत्व नहीं दे सकते। इसलिए लोक कला या अभिनय अथवा रंगमंच में प्रसिद्धी हासिल करने के लिए सिद्धी करने की ज्यादा आवश्यकता है। तभी हम समाज में सभ्यता और अपनी संस्कृति को जीवंत रख सकते हैं। 
ऐसे मिली लोकप्रियता 
फिल्म निर्देशक एवं अभिनेता हरिओम कौशिक की यह किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है, कि उनका दो साल के लिए केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड, दिल्ली क्षेत्र के सलाहकार के रूप में चयन हुआ है। यह उनकी फिल्म जगत में बढ़ती लोकप्रियता का ही परिणाम है, जो भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में अभिनेता, निर्देशक, निर्माता और कहानी लेखक भी हैं। उन्होंने अपनी फिल्म निर्माण कंपनी 'ओम कौशिक फिल्म्स' की स्थापना भी की और अपनी पहली पहली फिल्म '1600 मीटर' का निर्माण किया। इसके अलावा हिंदी फिचर फिल्म 'तोता' को भी निर्देशित कर चुके हैं। इससे पहले उन्होने मुंबई फिल्म जगत की प्रसिद्ध जोगी फिल्म कास्टिंग में कई महत्त्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स पर काम किया। हरिओम ने हाल ही में रिलीज हुई फिचर फिल्म हरियाणा में अहम किरदार निभाया है और वर्तमान में मेवात, पहरा, फौजा और स्कैम जैसे प्रोजैक्ट्स पर काम कर रहे हैं। 
इन फिल्मों का किया निर्देशन 
फिल्म अभिनेता एवं निर्देशक हरिओम कौशिक ने जहां 1600 मीटर, वेब सीरीज बहू काले का निर्देशन किया, वहीं निर्देशन के साथ राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म फौजा के क्रिएटिव डायरेक्टर की भी भूमिका निभाई। उन्होंने फिल्म मेवात, बुरे लड़के भिवानी, टोटा, चिड़िया, वनवास जैसी वेबसीरीज फिल्मों का निर्माण किया। उन्होंने गंभीर आदमी, काठमांडू, हरियाणा, फौजा, बुरे लड़के, बहू काले की, ग्रुप डी, स्कैम और टोटा जैसी फिल्मों में एक अभिनेता के रुप में काम किया है। जबकि उधम सिंह, विक्रम बत्रा, गुलाबो सिताबो, गुंजन सक्सैना और आरआरआर में कास्टिंग सहायक की जिम्मेदारी का निर्वहन किया है। 
23Dec-2024

सोमवार, 9 दिसंबर 2024

चौपाल: सामाजिक कल्याण में फिल्मों की अहम भूमिका: हितेश शर्मा

हरियाणवी फिल्म ‘दादा लखमी’ से अभिनेता के रुप में मिली पहचान 
          व्यक्तिगत परिचय 
नाम: हितेश शर्मा 
जन्म तिथि: 19/11/1989 
जन्म स्थान: फ़रीदाबाद (हरियाणा) 
शिक्षा: ग्रेजुएट, एक्टिंग कोर्स डिप्लोमा 
संप्रत्ति: अभिनय, लोक कलाकार 
संपर्क: मोबा. 9076251115, ईमेल: Hiteshssharma119@gmail.com 
BY-ओ.पी. पाल 
रियाणवी संस्कृति, सभ्यता, भाषा, रिति-रिवाज और तमाम सामाजिक तानाबाना समायोजित करने की दिशा में लोक कलाकारों ने अपनी अलग विधाओं में हरियाणा को नई पहचान दी है। इसमें हरियाणा के सूर्य कवि ‘पंडित लखमी चंद’ के जीवन पर आधारित फिल्म ‘दादा लखमी’ जहां हरियाणवी सिनेमा को जीवंत करने का सबब बनी, वहीं इस फिल्म ने कई कलाकारों को उनकी मंजिल दी है। ऐसे ही कलाकारों में दादा लखमी के युवा रुप का किरदार निभाने वाले कलाकार हितेश शर्मा रहे हैं, जिन्होंने अपने दमदार अभिनय से एक अभिनेता के रुप में लोकप्रियता हासिल की है। अपने अभिनय की कला के सफर को लेकर अभिनेता हितेश शर्मा ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिनमें समाज को सकारात्मक विचाराधारा का संदेश देने में लोक कला या फिल्मों का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। उनका मानना है कि कलाकारों को अपनी संस्कृति को संजोएं रखने की दिशा में अपनी कला में ऐसा किरदार करना चाहिए, जिसमें समाजिक कल्याण निहीत हो। 
--- 
रियाणवी फिल्म दादा लखमी में में पंडित लखमी चंद का अभिनय करने वाले हितेश शर्मा का जन्म 19 नवंबर 1989 को फरीदाबाद के सिकरोना गांव में सुखराम शर्मा व श्रीमती कुसुम शर्मा के घर में हुआ। उनके मध्यवर्गीय परिवार में पिता शिक्षा विभाग में सरकारी नौकरी करते थे और माता घर संभालती रही। हितेश तीन भाई बहनों में सबसे छोटे हैं। उनके परिवार में साहित्य या किसी कला या संस्कृति का कोई माहौल नहीं था, लेकिन उन्हें बचपन से ही अभिनय के क्षेत्र में रुचि रही, इसके लिए उनके परिवार ने उन्हें प्रोत्साहित करते हुए पूरा सहयोग दिया, जिसकी बदौलत आज वह अभिनय के क्षेत्र में लोकप्रिय कलाकार हैं। बकौल हितेश शर्मा जब व पांच साल के थे तो उनका परिवार दिल्ली आ गया और उनकी शिक्षा दीक्षा दिल्ली में हुई है। स्नातक तक की शिक्षा ग्रहण करने वाले हितेश शर्मा ने सात साल की उम्र में ही रामलीला में भगवान राम व सीता माता और हनुमान के किरदार ने उसे बहुत प्रभावित किया और वह घर आकर उनकी तरह नाचने के साथ उछल कूद करके डॉयलाग दोहराते थे। इसी अभिरुचि के चलते बचपन में ही उन्होंने एक अभिनेता बनने का लक्ष्य तय कर लिया था। यही कारण रहा कि उन्होंने आसपास के स्कूलों में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में रंगमंच पर नाटकों में हिस्सा लेना शुरु कर दिया। स्नातक की शिक्षा पूरी होते ही उन्होंने साल 2010 में मारवाह स्टूडियों एशिएन एकेडमी और नोएडा के फिल्म टेलीविजन एएएफटी नामक संस्थान में एक साल का अभिनय(एक्टिंग) का कोर्स किया। इसी दौरान उनकी मुलाक़ात उनके गुरु श्रीरामजी बाली, आदिल राणा और सतीश आनंद हुई और उ नके साथ थिएटर करना शुरू कर दिया। वहीं उन्होंने गुरु मां रीना शुक्ला से गाना सीखना शुरू किया, जिससे अभिनय करने में ज्यादा मदद मिलने लगी। लेकिन सिनेमा तक आने में समय लगा और उन्हें 2017 सबसे पहले क्राइम पैट्रॉल में एक डायलॉग करने को मिला। इसके बाद साल 2018 में उन्हें ज़िंदगी का ऐसा मौका मिला, जिसने उसे रातोरात टीवी का चमकता सितारा बना दिया। मसलन सोनी टीवी का शो ‘ये उन दिनों की बात है’। फिर एक स्टूडियों के मालिक रविन्द्र राजावत ने उनकी मुलाकात साल 2019 में फिल्म निर्देशक यशपाल शर्मा से कराई, जो फिल्म दादा लखमी बनाने जा रहे थे। उन्होंने इस फिल्म में काम करने की उत्सुकता दिखाई और क़रीब 8 महीने तक उन्होंने निर्देशक को अपनी प्रोफाइल के साथ्ज्ञ अपना डांस और अभिनय के वीडियो बनाकर भेजता रहा, लेकिन कोई ख़ास रिस्पांस नहीं था। फिर भी वह लगे रहे और बामुश्किल महीनों बाद उन्होंने मुझे फिल्म दादा लखमी का हिस्सा बनाया। असल में यही से उनका फिल्म में अभिनय करने पहला मौका मिला और वह अपने किरदार से एक अभिनेता के रुप में जगह बनाने में कामयाब रहा। इसी फिल्म में अभिनय के बाद उनकी एक्टिंग में बेहतर सुधार भी आया। हालांकि परिजनो, पडोसियों व रिश्तेदारों ने मजाक भी बनाया, लेकिन वह अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता रहा। यह वास्तविकता भी है कि फिल्म स्टार बनने के लिए संघर्ष कम नहीं है, जो मुंबई में रहते हुए पैसों की तंगी के साथ कई संघर्ष को झेला भी है। मसलन जहां भी कोई बता देता वहीं ऑडिशन पर ऑडिशन दिये। लेकिन उनके ऊपर तो अभिनेता बनने का भूत सवार था, इसलिए कोई परवाह किये बिना अपने आत्मविश्वास के साथ वह अपनी मंजिल की ओर बढ़ते चले गये। इसी संघर्ष का नतीजा है कि वह आज एक अभिनेता के रुप में पहचाने जाते हैं। 
यहां से मिली मंजिल 
हरियाणा के सूर्यकवि पंडित लखमी चंद के जीवन पर यशपाल शर्मा द्वारा निर्देशिक फिल्म ‘दादा लखमी’ में हितेश शर्मा ने दादा लखमी के युवा रुप का अभिनय किया है। जिसमें बाल रुप में योगेश वत्स और बड़े रुप में खुद यशपाल शर्मा ने किरदार निभाया। हिरयाणा की यह ऐसी फिल्म रही, जिसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार के साथ 103 पुरस्कार मिल चुके हैं। उन्होंने हरियाणवी वेब सीरीज अग्निवीर और बीवी मायके कब जाएगी में भी अभिनेता के रुप में शानदार किरदार निभाया है। वहीं दर्शकों के सामने जल्द आने वाली 1857 ए हिडन स्टोरी में हितेश ने तात्या टोपे की भूमिका निभाई है। इसके अलावा एमएमबीडी, लघु फिल्म इप्सा, 48 कोस-2 में भी अपनी कला का प्रदर्शन किया है। फिल्म अभिनेता हितेश शर्मा को दादा लखमी के अभिनय के लिए दो पुरस्कार, इप्सा के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिलने वाला था, लेकिन एक मत से रह गया और दक्षिण के सुपर स्टार सूर्य को यह पुरस्कार मिला। 
आधुनिक युग में बदलाव की जरुरत 
अभिनेता हितेश शर्मा का कहना है कि उनका सिर्फ ऐसी फिल्मों में काम करने पर फोकस रहा है, जिसमें समाज कल्याण या संस्कृति को बढ़ावा मिलता हो। इसलिए उन्होंने पिछले तीन साल में अच्छी रकम की ऑफर के बावजूद पांच फिल्में छोड़ी है, जिनमें काम करने से समाज में गलत संदेश जाना तय था। आज के इस आधुनिक और सोशल मीडिया के युग में ज्यादातर फिल्में फूहड़पना परोस रहे हैं, जिसके कारण समाज व संस्कृति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और खासकर युवा पीढ़ी का भविष्य अंधकारमय हो रहा है। इसलिए उन्हें लगता है कि सिनेमा में बदलाव होना चाहिए और फिल्म निर्देशकों व कलाकारों को जल्द लोकप्रियता पाने और धन कमाने के बजाए अच्छे कंटेट पर ध्यान देकर खासतौर से युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति के प्रति प्रेरित करने के लिए ऐसी फिल्मों का निर्माण करने की आवश्यकता है, ताकि दूषित होते समाज में सकारात्मक संदेश से सामाजिक विसंगतियों को समाप्त किया जा सके। ऐसा भी नहीं है कि बॉलीवुड ने ऐसी हज़ारो अच्छी फ़िल्में दी है, जिसमें कंटेट सामाजिक जिम्मेदारी रही है। 
09Dec-2024

सोमवार, 2 दिसंबर 2024

साक्षात्कार: समाज और संस्कृति को जीवंत रखता है साहित्य: लाजपत राय गर्ग

लघुकथाओं, कहानियों व उपन्यास लेखन में हासिल की लोकप्रियता 
       व्यक्तिगत परिचय 
नाम: लाजपत राय गर्ग 
जन्मतिथि: 14 फरवरी 1952 
जन्म स्थान: सिरसा (हरियाणा) 
शिक्षा: प्रभाकर, बी.ए.(ऑनर्स), एम.ए.(अंग्रेज़ी व हिन्दी), डिप्लोमा इन ट्रांसलेशन। 
संप्रत्ति: सेवानिवृत्त अतिरिक्त आयुक्त आबकारी एवं कराधान, हरियाणा, स्वतंत्र लेखन 
संपर्क: 150, सेक्टर 15, पंचकूला (हरियाणा), मो. 9216446527, ईमेल : blesslrg@gmail.com 
By--ओ.पी. पाल 
भारतीय संस्कृति में साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है। साहित्य क्षेत्र में लेखक, साहित्यकार, कवि, गजलकार, उपन्यासकार, कहानीकार समाज को सकारात्मक ऊर्जा के साथ दिशा देने के लिए साहित्य सर्जन करते आ रहे हैं। ऐसे ही वरिष्ठ साहित्यकार लाजपत राय गर्ग ने भारतीय सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत, सामाजिक विसंगतियों, पारिवारिक रिश्तों, सभ्यता, परंपराओं, कन्या भ्रूण हत्या, नारी शिक्षा जैसे सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर बेबाक लेखन करके समाज को नई दिशा देने का प्रयास किया है। उनके लेखन में सकारात्मक संदेश के माध्यम से पर्यावरण प्रदूषण, गौ-सेवा, नेत्रदान, रक्तदान, देहदान, जैविक खेती, गुरु-शिष्य परम्परा, मित्रता की पावन भावना जैसे समसामयिक विषयों का फोकस भी समाज को सकारात्मक संदेश समाहित है। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में अपने साहित्यिक सफर को लेकर वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार लाजपत राय गर्ग ने कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिनमें आज के बदलते इस परिवेश में भी समाज, संस्कृति एवं सभ्यताओं को जीवंत रखने के लिए साहित्य की अहम भूमिका है। 
---- 
साहित्य के क्षेत्र में लोकप्रिय वरिष्ठ साहित्यकार लाजपत राय गर्ग का जन्म 14 फरवरी 1952 को हरियाणा के सिरसा में वजीर चन्द और श्रीमती शीला देवी के घर में हुआ था। दरअसल उनका परिवार विभाजन के समय बहावलपुर रियासत के एक छोटे से क़स्बे से विस्थापित होकर सिरसा आकर बस गया था। विभाजन से पूर्व और बाद में उनके परिवार की परवरिश एक दुकान से होती रही। विस्थापन से पूर्व परिवार की समृद्धि का उल्लेख दादा-दादी के मुख से बहुत बार सुना, लेकिन विभाजन की त्रासदी स्वरूप परिवार को लम्बे समय तक अभावों का सामना करना पड़ा। दादा जी पाँच भाई थे, जिनमें दो दादा-भाई विभाजन से पूर्व और बाद में इकट्ठे ही रहे। छोटे दादा जी नि:संतान थे, उनका तथा छोटी दादी का मुझे भरपूर प्यार मिला। प्रत्यक्ष रूप से तो परिवार में साहित्यिक माहौल जैसा कुछ नहीं था, किन्तु छोटी दादी सोने से पहले मुझे तरह-तरह की कहानियाँ सुनाया करती थीं और छोटे दादा जी मुझे हमेशा अपने साथ रखते थे। वे मुझे सुबह की सैर कराने के साथ हर रविवार को गुरुद्वारा कीर्तन सुनने के लिए लेकर जाते थे। वह स्वयं भी श्रीगुरु ग्रंथ साहिब का पाठ किया करते थे। स्कूल में प्रवेश से पूर्व ही दुकान पर रहते हुए उन्होंने मुझे हिन्दी, अंग्रेज़ी, पंजाबी के बहुत से शब्दों का ज्ञान करवा दिया था। उन्होंने ही भ्रमण के लिए प्रोत्साहित किया। उनें ताया बचपन से सूरदास थे, जिनकी स्कूल समय से ही सेवा करने का उन्हें अवसर मिला। लाजपत राय की पाँचवीं से आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई आर्य स्कूल में हुई, जहां एक अध्यापक ने महापुरुषों की जीवनियां पढ़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने पुस्तकें पढ़ने के लिए छठी कक्षा में सार्वजनिक पुस्तकालय की वार्षिक सदस्यता ग्रहण की। यहीं से महापुरुषों की जीवनियों के साथ रामायण, महाभारत, सिक्ख इतिहास और प्रेमचन्द को पढ़ने का शुरु हुआ सिलसिला आज तक जारी है। बकौल लाजपत राय गर्ग, जब वह दसवीं कक्षा में पढ़ रहे थे, तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की सिरसा इकाई ने स्वामी विवेकानंद पर स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए एक लेख प्रतियोगिता आयोजित की, जिसमें उनके लेख को पुरस्कार तो नहीं मिला, किन्तु वह लेख जालन्धर से प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचार पत्र ‘जन प्रदीप’ में प्रकाशित हुआ। इस तरह से उस लेख को प्रथम रचना कहा जा सकता है। दसवीं परीक्षा के दौरान ही लिखी एक छोटी सी कहानी ‘चूड़ियाँ’ लिखी, जो कॉलेज की पत्रिका में प्रकाशित हुई। उस समय ‘लघुकथा’ विधा का तो कोई ज्ञान था नहीं, लेकिन 2019 में यही रचना लघुकथा के साझा संकलन ‘लघुकथा मँजूषा’ में सम्मिलित हुई। उनकी रुचि मुख्यत: कथा लेखन में है, लेकिन उपन्यास उनकी प्रिय विधा है। उन्होंने कॉलेज पत्रिका का एक साल हिन्दी विभाग का और एक साल अंग्रेज़ी विभाग का संपादन भी किया। वहीं उन्होंने करुणा (वार्षिक) बारह वर्ष, गौ माँ का ज्ञान (त्रैमासिक) तीन वर्ष, लघुकथा मँजूषा के सह-संपादन की भी भूमिका निभाई। दरअसल साल 1978 में राजकीय सेवा में नियुक्ति के उपरान्त लेखन अवरुद्ध हो गया, लेकिन साहित्य की लगभग हर विधा को पढ़ने का क्रम निरन्तर बना रहा। मसलन उनके सक्रिय साहित्य लेखन का सिलसिला सेवानिवृत्ति के पाँच छह वर्ष बाद साल 2016 में पहले उपन्यास ‘कौन दिलों की जाने’ से शुरू हुआ उसके बाद सात उपन्यास लिखे गये। गर्ग की रचनाओं के फोकस में पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर विचार-विमर्श रहा है। भारतीय सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत, पारिवारिक रिश्तों की महत्ता, समसामयिक विषयों यथा कन्या भ्रूण हत्या, नारी शिक्षा, पुस्तकों का हमारे जीवन में महत्त्व, पर्यावरण प्रदूषण, गौ-सेवा का महत्त्व, नेत्रदान, रक्तदान, देहदान, जैविक खेती की उपादेयता, गुरु-शिष्य परम्परा का सम्मान, मित्रता की पावन भावना को अक्षुण्ण बनाए रखना आदि मुद्दों पर उनके लेखन में सार्थक चर्चा रहती है। उनकी कृति ‘कौन दिलों की जाने’ पर हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के शोधार्थियों द्वारा लघु शोध-प्रबंध के लिए शोध कार्य किया गया। वहीं बाबा मस्तनाथ विश्वविद्यालय, रोहतक तथा ओम ग्लोबल स्टर्लिंग विश्वविद्यालय हिसार से एक-एक शोधार्थी उनके उपन्यासों पर पीएचडी कर रहे हैं। इसके अलावा साहित्य लेखन के साथ लाजपत राय गर्ग गौ-सेवा में भी सक्रीय रहे और बनूड़-अम्बाला रोड पर बन रहे ‘मात-पिता गौधाम’ का वह एक पैटर्न भी हैं। 
आधुनिक युग में साहित्य 
वरिष्ठ साहित्यकार लाजपत राय ने आज के आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति को लेकर कहा कि साहित्य समाज का दर्पण होता है, जिसका हर युग में सृजन होना स्वाभाविक है। इसका कारण है कि संवेदनशील व सृजन की क्षमता रखने वाला कोई भी व्यक्ति इन प्रभावों को अभिव्यक्त किए बिना नहीं रह सकता। जहां तक साहित्य के पाठकों में कमी का सवाल है, उसके पीछे हमारी शिक्षा नीति है। इस युग में एक गरीब परिवार भी सरकारी स्कूलों के बजाए अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजना पसंद करते हैं, जहां शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। यही कारण है कि अब बचपन में चन्दा मामा, नंदन जैसी पत्रिकाएँ बच्चों को पढ़ने के लिए मिलती थीं, बल्कि आज अंग्रेज़ी के कॉमिक्स अवश्य मिलती है। वहीं आज सोशल नेटवर्किंग ने भी साहित्य पठन-पाठन को प्रभावित किया है। पुस्तकों की बजाय पाठक डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर पढ़ना अधिक पसन्द करते हैं। ऐसे में हिंदी ज्ञान की कमी के साथ शिक्षा के व्यावसायीकरण के कारण युवा पीढ़ी पैसा कमाने की यांत्रिक मशीन बनकर रह गई है। आज के युवाओं में धैर्य और सहनशक्ति की कमी से समाज और संस्कृति पर नकारात्मक प्रभाव ने आज के युवाओं में धैर्य और सहनशक्ति की कमी बढ़ती जा रही है। समाज और संस्कृति के प्रति सकारात्मक संदेश देने का माध्य साहित्य ही है, इसलिए युवा पीढ़ी को स्कूल व कालेजों या अन्यत्र पुस्तकालयों में साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करने की अत्यंत आवश्यकता है। वहीं बदलते परिवेश में लेखकों व साहित्यकारों को भी अपनी अच्छी रचनाओं को डिजिटल प्लेटफ़ॉर्मों पर अपलोड करनी चाहिए। 
प्रकाशित पुस्तकें 
वरिष्ठ साहित्यकार लाजपत राय गर्ग की प्रकाशित पुस्तकों में साझा संकलन ‘66 लघु कथाकारों की 66 लघुकथाएं और उनकी पड़ताल (खंड -30), लघुकथा मँजूषा, लघुकथा में किसान, ओस की बूँद, सार्थक लघुकथाएँ, विभाजन त्रासदी की लघुकथाएं, समसामयिक लघुकथाएँ, लघुकथाएँ: इक्कीसवीं सदी के दो दशक, तपती पगडंडियों के पथिक, अदहन क आखर(अवधी) तथा ‘रिश्तों की महक’(साझा कहानी संकलन) शामिल है। वहीं उनके सात उपन्यासों में ‘कौन दिलों की जाने’, पल जो यूँ गुज़रे, पूर्णता की चाहत, प्यार के इन्द्रधुनष, अनूठी पहल, अमावस्या में खिला चाँद व प्रेम के स्याह रंग सुर्खियों में हैं। उन्होंने कई लेखकों की पुस्तकों का पंजाबी में अनुवाद भी किया। 
सम्मान व पुरस्कार 
वरिष्ठ साहित्यकार को हरियाणा साहित्य अकादमी ‘मुंशी प्रेमचंद श्रेष्ठ कृति पुरस्कार’ से नवाजा जा चुका है। वहीं उन्हें लघुकथाओं के लिए श्रद्धा पुरस्कार, स्मृति पुरस्कार व सामाजिक आक्रोश पुरस्कार, उपन्यास के लिए अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कार, डॉ. मधुकांत साहित्य गौरव सम्मान, कथा रत्न सम्मान, कोशी साहित्य शौर्य सम्मान(स्वर्ण सम्मान), ‘राष्ट्रीय पंकस अकादमी अवार्ड, ‘मुंशी प्रेमचंद सारस्वत सम्मान, निर्मला स्मृति हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान, डॉ. महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान, जयपुर सर्वोत्कृष्ट कृति सम्मान, स्व. सुगमचंद स्मृति पुरस्कार, ‘लोक साहित्यकार श्री जयलाल दास श्रेष्ठ कृति सम्मान भी मिल चुके हैं। वहीं उन्हें केशवदेव गिनिया देवी बजाज स्मृति सम्मान, ‘उदयकरण सुमन स्मृति साहित्य गौरव सारस्वत सम्मान, जयलाल दास स्मृति साहित्य गौरव सम्मान व डॉ. अनवर सीवनी साहित्य सम्मान जैसे सैकड़ो पुरस्कार मिल चुके हैं। हरियाणा उपन्यास प्रतियोगिता में इसी साल द्वितीय पुरस्कार पाने वाले लेखक को स्नातकोत्तर शिक्षा विभिन्न निबन्ध प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान भी मिल चुका है। 
02Dec-2024