सोमवार, 6 जनवरी 2025

चौपाल: हास्य कला से समाज को संस्कृति से जोड़ रहे हैं कॉमेडियन मोहन दलाल

हास्य-व्यंग्यात्मक शैली की कला से मिली लोकप्रियता 
           व्यक्तिगत परिचय 
नाम: मोहन दलाल 
जन्मतिथि: 01 जनवरी 1998 
जन्म स्थान: गांव गैबीनगर, जिला हिसार 
शिक्षा: ग्रेजुएट 
संप्रत्ति: स्टैंडअप कॉमेडियन, लेखक व निर्देशक 
संपर्क: गांव गैबीनगर, जिला हिसार, 9896944276
 By--ओ.पी. पाल 
रियाणवी संस्कृति के प्रति समर्पित लोक कलाकार समाज के बिगड़ते ताने बाने को पुनर्जीवित करने के लिए विभिन्न विधाओं में अपनी कलाओं के हुनर का प्रदर्शन करने में जुटे हैं। ऐसे ही लोक कलाकारों में हिसार के लोक कलाकार मोहन दलाल हरियाणवी संस्कृति, सभ्यता, परंपराओं, रीति रिवाजों की परंपराओं को संजोने के मकसद से अपनी हास्य-व्यंग्यात्मक शैली की कला के रंग बिखेरेने में जुटे हैं। उन्होंने अपने लिखित और निर्देशित हरेक कॉमेडी शो, चुटकलों, कविताओं और किस्सों में दर्शकों को हंसाने के के साथ समाज को अपनी संस्कृति के प्रति सकारात्मक संदेश देने का ही प्रयास किया है। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में हास्य कलाकार मोहन दलाल ने अपनी लोक कला के सफर में कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिसमें कला की हरेक विधा समाज, खासतौर से आज की युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति से जोड़ने का माध्यम है।
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रियाणा के लोक कलाकार मोहन दलाल का जन्म 01 जनवरी 1998 को हिसार जिले के गांव गैबीनगर में एक किसान परिवार में रमेश कुमार और श्रीमती राजवंती देवी के घर में हुआ। उनका परिवार हरियाणवी संस्कृति और अपनी सांस्कृतिक जड़ों और परंपराओं के प्रति पूरी तरह समर्पित है। उनके दादा सांग के तन्मय भाव से शौकीन रहे हैं, तो पिता को उन्होंने अक्सर भजनों में लीन पाया, जहां उनका समर्पण और आध्यात्मिकता उन्हें गहराई से प्रभावित करती रही। वहीं उनकी दादी का व्यक्तित्व हरियाणवी संस्कृति की नारी शक्ति का प्रतीक रहा, जिन्होंने आस-पड़ोस की महिलाओं को एक सूत्र में बांधे रखा और सांस्कृतिक संदर्भों को सदा ही जीवंत बनाए रखा। जबकि उनकी मां आकाशवाणी (रेडियो) सुनने की शौकीन थीं। ऐसे सांस्कृतिक माहौल से जुड़े परिवार में मिले संस्कारों के बीच मोहन ने अपने परिवार में खान-पान, सांस्कृतिक संदर्भ, धर्म, त्योहार, और रीति-रिवाज जैसी हरियाणवी संस्कृति की श्रेष्ठता को निभाते हुए देखा है। ऐसे समृद्ध सांस्कृतिक और परंपरागत माहौल के बीच एक किसान के बेटे के रूप में उनका बचपन खेत-खलिहान की सोंधी मिट्टी, गली-चौपाल की गर्मजोशी, घर की सादगी और दहलीज की मर्यादाओं के बीच बीता है। इन अनुभवों ने उन्हें केवल हरियाणवी संस्कृति की आत्मा से ही परिचित नहीं कराया, बल्कि जीवन को सरलता, आत्मनिर्भरता और सामुदायिक भावना के साथ जीने की सीख भी दी। उनके परिवार का हर सदस्य अपने आचरण और व्यवहार में हरियाणवी संस्कृति की छवि प्रस्तुत करता आ रहा हो, तो वह भी हरियाणवी संस्कृति में पूरी तरह रच-बसकर बड़े हुए और उनके जीवन के हर पहलू में यह संस्कृति बसते हुए झलकती गई। बकौल मोहन दलाल, सांस्कृतिक समृद्धि से परिपूर्ण परिवार में उनके व्यक्तित्व को ऐसा स्वरुप मिला कि बचपन से उनमें नाटक, कभी कविता, कभी कॉमेडी जैसी विधाएं ऐसे ही अन्तस में उतरती गईं। शायद यही वजह है कि जब भी वह किसी सांस्कृतिक प्रस्तुति या 'रिचुअल' जैसी विधा को निर्देशित करते हैं, तो उसमें हर बारीकी को सजीव करने का मन करता है। इन पारिवारिक अनुभवों और परंपराओं ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा है और उनकी सोच को सांस्कृतिक गहराई प्रदान की। उनकी कला की विविध विधाओं में सार्वजनिक प्रदर्शन सही अर्थों में पहली बार राजकीय महाविद्यालय जींद से प्रारंभ हुआ। यद्यपि वह इससे पहले एक बार बिना किसी गाइडेंस के जी.जे.यू. के मंच से अभिनय का प्रदर्शन कर चुके थे, जिसे सराहना भी मिली थी। इससे पहले स्कूल में जब कभी अभिव्यक्ति का मौका मिलता तो अपने मन की बातें छोटी-छोटी प्रस्तुतियों में भिन्न रूपों में कह लेते थे। कभी चुटकुले के माध्यम से कभी कविता के माध्यम से हिम्मत जुटाने का प्रयास रहा। हालांकि यह मंचीय शुरुआत कोई सहज नहीं थी और मंच की प्रस्तुतियां देखकर मंजिल तो पाने की ललक रही, लेकिन ग्रामीण बच्चों की तरह झिझक और स्वयं को अभिव्यक्त करने का भरपूर संकोच होता था। परंतु कला के क्षेत्र में राजकीय महाविद्यालय में उनकी गुरू मां डॉक्टर मंजुलता रेढू ने उन्हें जो सशक्त आधार दिया, जो धरातलीय दृढता उन्हें प्रदान की है, उसी के फल के रूप में आज वह अपनी कला को लेकर सबके सामने है। आज भी वह मंचीय प्रस्तुतियों में उनका आशीर्वाद लेना नहीं भूलते और यही प्रयास रहता है कि उन्होंने हरियाणवी संस्कृति को पूरी प्राणवत्ता से संभालने का जो दायित्व उन्हें सौंपा है, उसे वह जीवन पर्यन्त निभाता रहे। उनका कहना है कि लोक कला, लेखन और अभिनय के सफर में कई दिलचस्प अनुभव और चुनौतियां रहीं। पहली बार मंच पर प्रदर्शन और दर्शकों की सराहना ने बहुत आत्मविश्वास बढ़ाया, जबकि तकनीक और टीमवर्क ने नई सीख दी। गुरू से मिली कठिन परिश्रम, नैतिक जीवन मूल्यों और निष्ठा की सीख से लोक कला को खरा और प्रासंगिक बनाए रखने जैसी चुनौतियां भी सामने आईं। आत्मालोचन ने सुधार की ओर खींचा और मौके दिये। हर अनुभव ने उन्हें बेहतर कलाकार और इंसान बनने की राह दिखाई। 
पुरस्कार व सम्मान 
हास्य कलाकार मोहन दलाल की हास्य व्यग्य कला के जरिए समाज में दिये जा रहे उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें हरियाणा गौरव अवॉर्ड, हरियाणा सूत्रधार अवार्ड, हरियाणवी साहित्य रत्न सम्मान, सर्वश्रेष्ठ हास्य कलाकार अवॉर्ड, रॉल ऑफ हॉनर, कॉलेज कलर अवार्ड के अलावा उन्हें तीन बार राज्य स्तर पर हरियाणवी कविता प्रतियोगिताओं में प्रथम पुरस्कार मिल चुका है। वहीं उन्हें साहित्य एवं सांसकृतिक मंचों पर भी अनेक सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। 
सामाजिक मुद्दो पर फोकस 
हरियाणा के हास्य कलाकार मोहन दलाल का कहना है कि लोक साहित्य, कला और अभिनय के क्षेत्र में उनका फोकस हमेशा समाज के ज्वलंत मुद्दों और परंपरागत सांस्कृतिक मूल्यों को उजागर करने पर रहा है, ताकि समाज में सकारात्मक विचारधारों को बढ़ावा मिले। हरियाणवी संस्कृति, परंपराओं और रीति-रिवाजों को जीवंत रखना और नई पीढ़ी तक पहुंचाना उनकी हमेशा ही प्राथमिकता रही है। उनकी कला की गतिविधियों का बड़ा हिस्सा ग्रामीण जीवन, महिलाओं की स्थिति, आर्थिक असमानता जैसे सामाजिक मुद्दों को उजागर करने पर केंद्रित रहे है। हास्य और व्यंग्य के माध्यम से समाज की कुरीतियों पर प्रहार करना और लोगों को सोचने पर मजबूर करना मेरे अभिनय का मुख्य उद्देश्य रहा है। उनका मकसद कला और साहित्य के माध्यम से समाज में जागरूकता फैलाना, हरियाणवी संस्कृति को संरक्षित करना और इसे नई ऊंचाइयों तक ले जाना है। 
लुप्त हो रही है कला संस्कृति 
कलाकार मोहन दलाल का आधुनिक युग में कला के क्षेत्र की चुनौतियों के बारे में कहना है कि आधुनिक युग में साहित्य, लोक कला, अभिनय और संगीत जैसे सांस्कृतिक माध्यमों का स्वरूप बहुत तेजी से बदल रहा है। ये विधाएं अब परंपरागत सीमाओं से आगे बढ़कर नए आयामों में प्रवेश कर रही हैं। इसके साथ ही इन्हें कई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ रहा है। इसके बावजूद कलाकारों के लिए पारंपरिक कला और लोक साहित्य को प्रासंगिक बनाए रखना एक महत्वपूर्ण पहलू रहा है। यानी डिजिटल मंचों पर लोक कला को प्रस्तुत कर इसे नए आयाम देने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन सोशल मीडिया की वजह से युवा पीढ़ी के बीच लोक कलाएं, संस्कृति और साहित्य अपनी चमक खो रहे हैं। वैश्वीकरण और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव ने युवा वर्ग को परंपरागत मूल्यों और लोक कलाओं से दूर कर दिया है। इसके परिणामस्वरूप, पारंपरिक ज्ञान और विधाएं समय के साथ लुप्त होती जा रही हैं। ऐसी परिस्थितियों में युवाओं में रचनात्मकता और संवेदनशीलता को विकसित करने की दिशा में लोक कलाओं को स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर तक पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। वहीं साहित्यकारों, लेखकों, फिल्म निर्देशकों और कलाकारों को भी लोककला, संगीत, अभिनय, रंगमंच जैसी सांस्कृतिक कलाओं में सकारात्मक तथ्यों के साथ कार्य करने की आवश्यकता है, ताकि वे अपनी संस्कृति को संरक्षित करके आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अनमोल धरोहर पेश कर सकें। 
06Jan-2025

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