सोमवार, 13 जनवरी 2025

साक्षात्कार: समाज को सामाजिक परंपराओं के प्रति सकारात्मक ऊर्जा देती कवयित्री आशमा कौल

साहित्य सृजन में हिंदी भाषा के संवर्धन के लिए हासिल की लोकप्रियता 
         व्यक्तिगत परिचय 
 नाम: आशमा कौल 
 जन्म तिथि:18 अक्टूबर, 1961 
 जन्म स्थान:श्री नगर, कश्मीर 
शिक्षा: दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य स्नातक, रूसी भाषा में डिप्लोमा, पत्रकारिता एवं जनसंचार, केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो, भारत सरकार से अनुवाद प्रशिक्षण । 
संप्रति: कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार से (सेवा निवृत) राजपत्रित अधिकारी 
 संपर्क: 2665, सेक्टर 16, एस. पी. रोड, फरीदाबाद- 121002 , मोबाईल नंबर 9868109905 
 BY--ओ.पी. पाल 
साहित्य के क्षेत्र में अपनी विभिन्न विधाओं में समाज को नई दिशा देते आ रहे लेखकों में हिंदी भाषी ही नहीं, बल्कि देश की विभिन्न भाषा के लेखक भी हिंदी साहित्य के संवर्धन के लिए साधना करते आ रहे हैं। ऐसे ही लेखकों में कश्मीर के श्रीनगर में जन्मी महिला साहित्यकार आशमा कौल है, जो कश्मीरी भाषी होने के बावजूद हिंदी भाषा में अपने रचना संसार को आगे बढ़ाते हुए साहित्य सृजन करने में जुटी हैं। कश्मीर के श्रीनगर में जन्मी और दिल्ली विश्वविद्यालय से शिक्षित होने के बाद हरियाणा में बसी आशमा कौल ने अपनी लेखनी से कहानियों, लघुकथाओं और खासतौर से कविताओं के जरिए समाज के बिगड़ते ताने बाने के बीच समाज को सामाजिक परंपराओं के प्रति सकारात्मक ऊर्जा देने का प्रयास कर रही हैं। हिंदी की सुपरिचित कवयित्री के रुप में लोकप्रिय आशमा कौल ने अपने साहित्यिक सफर को लेकर हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कुछ ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिनमें सामाजिक व्यवस्था का विचलन, मूल्य विघटन जैसे सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों का हल साहित्य से संभव है। 
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रियाणा में साहित्य साधना कर रही महिला साहित्यकार आशमा कौल का जन्म जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में नानी के घर हुआ, लेकिन उनका पालन पोषण दिल्ली में पिता बिहारी लाल पारिमू और माता श्रीमती रीता पारिमू ने किया, जहां उनके पिता केंद्र सरकार में कार्यरत थे। मेरा जन्म श्रीनगर, कश्मीरमें नानी के घर हुआ था लेकिन मेरा पालन-पोषण दिल्ली में हुआ जहां मेरे पापा केंद्र सरकार में कार्यरत थे। उनके परिवार में कोई लेखक नहीं था, लेकिन उनकी माता ने कश्मीर में रत्न भूषण प्रभाकर किया था, इसीलिए घर में कश्मीरी, हिन्दी और अंग्रेजी तीनों भाषाएं व्यवहार में शामिल रही। वह आशमा बचपन में अपनी बनाई कोई कविता माँ को सुनाती, तो वह विस्मित होती और खुश भी होती। मां के कहने पर ही उसने अपने भावों को एक डायरी में लिखना शुरू कर दिया था। बकौल आशमा कौल, वैसे तो उसने छठी या सातवीं कक्षा में ही कविता लिखना शुरू कर दिया था, लेकिन उन्हें तब यह नहीं पता था, कि कविता किस चिड़िया का नाम है। शायद उस समय पिछले जन्मों के कुछ संस्कार रहे होंगे और वाग्देवी का वरदहस्त मुझ पर रहा होगा, कि उस बालपन में वह कविता लिखने लगी थी। उनकी पहली कविता ‘क्षितिज’ कॉलेज की पत्रिका में छपी थी और सुंदर पेंटिंग की किताब देकर उसे पुरुस्कृत किया गया। ऐसे में साहित्य के प्रति उनका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था। उनका कहना है कि उनका साहित्यिक सफ़र बहुत ही रोमांचक रहा। मसलन विवाह से पहले वह बहुत अंतर्मुखी और एकांतप्रिय लड़की थी और शोर-शराबे से दूर बैठ कर या तो कोई कविता लिख रही होती या कोई पेंटिंग बना रही होती थी। उस समय पिता को कविता लिखना बेकार लगता और वह उसे पढ़ाई पर ध्यान देने को कहते, लेकिन वह छिप-छिप कर कविताएं लिखकर माँ और बड़ी बहन को सुनाती थी। साल 1987 में उनका विवाह हुआ और वह आशमा पारिमू से आशमा कौल बनकर फरीदाबाद में बस गई। अकेले होने की वजह से पहले दिन से ही गृहस्थी की डोर संभाल ली थी। खासबात ये रही कि कि कुछ साल बाद ही फरीदाबाद में कुछ लेखक उनके मित्र बन गए और वह फिर से लिखने लगी। उन्हें याद आया कि उनकी बचपन में लिखी डायरी मायके में लोधी रोड पर थी, किसी तरह डायरी निकाली तो उसे दीमक ने खाचारों ओर से खा लिया था। ईश्वर की कृपा से डायरी के बीच बीच की जगह बच गई थी और उसने उन कविताओं को पुनः पृष्ठों पर उतारा। उस ड़ायरी की कुछ कविताएं दिल्ली हिन्दी अकादमी के सहयोग से ‘अनुभूति के स्वर’ संग्रह में आई और कुछ कविताएं हरियाणा साहित्य अकादमी के सहयोग से ‘अभिव्यक्ति के पंख’ संग्रह में आई। वह बहुत भाग्यशाली रही कि इन संग्रहों की प्रस्तावना वरिष्ठ साहित्यकार स्वर्गीय कमलेश्वर, आकाशवाणी के महानिदेशक कुबेर दत्त, स्वर्गीय दिनेशनंदिनी डालमिया, चंद्रकांता, लक्ष्मी शंकर वाजपायी, अमरनाथ अमर और उपेन्द्रनाथ रैना ने लिखी। वह भी केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय में राजपत्रित अधिकारी के पद पर कार्यरत थी, तो पूरा समय नौकरी और बच्चों के साथ निकल जाता और चाहते हुए भी कुछ अधिक लिख नहीं पा रही थी। ऐसे समय में पतिदेव की सलाह पर उसने बस या गाड़ी से दिल्ली आते जाते समय में बहुत कुछ लिखा और साहित्यिक यात्रा धीमी गति से ही चाहे, लेकिन जारी रखा। जब कुछ काव्य संग्रह प्रकाशित हुए तो उनके पिता ने भी उनका ने उनका उत्साहवर्धन किया और हिन्दी भाषा कमज़ोर होते हुए भी वे आँख की समस्या से जूझ रहीं माँ को हर दिन उनकी एक नई कविता पढ़कर रोज़ सुनाते। बचपन में समाज में होने वाली हर छोटी बड़ी घटना से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रकृति और खासतौर से नारी स्वयं अपनी जगह बना लेते हैं। इसलिए उनकी रचनाओं का फोकस हमेशा सामाजिक विद्रूपताओं पर रहा है। उनके काव्य संग्रह ‘बीज ने छू लिया आकाश’ की अधिकांश कविताएं प्रकृति से ही प्रेरित हैं, जिसे वर्ष 2024 का ‘जयपुर सम्मान’ प्राप्त हुआ। खासबात ये है कि उनकी भाषा कश्मीरी है, लेकिन उनका लेखन हिन्दी में रहा है। हालांकि कश्मीर पर भी उनका काव्य संग्रह ‘जन्नत ए कश्मीर’ है, जिसमें वहाँ की सुंदरता और आतंकवाद से जुड़ी कविताएं हैं। इसकी भूमिका पद्मश्री स्वर्गीय जे. एन. कौल जी ने लिखी है। इस संग्रह का अंग्रेजी अनुवाद प्रसिद्ध कवि और अनुवादक भूपिंदर तिकू जी ने किया ‘Kashmir the Paradise on Earth’और इसकी भूमिका जे.एन.यू. के पूर्व कुलपति पद्मश्री डॉ सुधीर सोपोरी और ए.पी.जे. इंस्टिट्यूट ऑफ मास-कम्यूनिकेशन के सलाहकार प्रोफेसर अशोक ओगरा ने लिखी है। उनकी रचनाएं राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं। वहीं उनकी कविताओं का प्रसारण आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से भी हो रहा है। वे सर्वभाषा राष्ट्रीय कवि सम्मेलन (कटक) में बतौर कश्मीरी अनुवाद-कवयित्री के रूप में आपकी सहभागिता करने के साथ कई साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं की सदस्य भी हैं। 
आधुनिक युग में वैभव पर साहित्य 
आधुनिक युग में वैसे तो साहित्य अपने पूरे वैभव पर है और इस युग में गद्य, पद्य, निबंध, आलोचना और नाटक जैसी विधाओं में हर तरह से हिन्दी साहित्य का विकास हुआ है। खासतौर से कविता को साहित्य का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। लेकिन यह भी सच है कि दूसरी तरफ साहित्य के पाठक कम हो रहे हैं, जिसका सबसे बड़ा कारण है कि आज पत्रिकाओं और पुस्तकों की जगह सोशल मीडिया ने ले ली है। इस पाठकीय संकट बढ़ने कारणों में अब लोग गूगल सर्चिंग से सब जानकारी ले रहे हैं। खासतौर से युवा पीढ़ी की तो साहित्य में रुचि बेहद कम होती जा रही है। इसके पीछे आज की नई पीढ़ी तनावपूर्ण परिस्थितियों में सफल होने के लिए संघर्षरत है और बेरोजगारी और प्रतिस्पर्धात्मक तनाव की वजह से इस पीढ़ी पर दबाव बढ़ रहा है। इन भी कारणों से प्रभावित साहित्य का समाज पर भी बहुत बुरा असर पड़ रहा है, जिसके कारण समाजिक मूल्यों में गिरावट आ रही है और समाज का ताना बाना नष्ट हो रहा है। युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति और सभ्यता से दूर होती जा रही है। ऐसे में युवाओं को साहित्य के लिए प्रेरित करने की आवश्यकता है। क्योंकि साहित्य युवा वर्ग को स्वस्थ कलात्मक और ज्ञानवर्धक मनोरंजन प्रदान के साथ उनके चरित्र निर्माण में भी सहायक होता है। जहां साहित्यकारों व लेखकों को भी सस्ती लोकप्रिता हासिल करने के बजाए अच्छे साहित्य सृजन करने की जरुरत है, तो वहीं माता पिता को अपने बच्चों में पढ़ने के संस्कार बचपन से ही डालने की आवश्यकता है, ताकि वे समाज में सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर सके। साहित्यिक उत्सव और पुस्तक मेलों में सरकार या साहित्यिक संस्थाओं को युवा वर्ग को भागीदारी करने का मौका देना चाहिए। 
प्रकाशित पुस्तकें 
वरिष्ठ महिला साहित्यकार आशमा कौल की अब तक करीब एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें नौ काव्य संग्रह-अनुभूति के स्वर, अभिव्यक्ति के पंख, बनाए हैं रास्ते, ‘ज़िंदगी एक पहेली, जन्नत-ए-कश्मीर, बीज ने छू लिया आकाश, स्मृतियों कीआहट, मन के मनके और‘नाज़ुक लम्हे सुर्खिंयों में हैं। इसके अलावा उनका एक लघु कथा संग्रह ‘दोषी कौन’ भी लोकप्रिय है। काव्य संग्रह ‘जन्नत-ए-कश्मीर’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘Kashmir the Paradise on Earth’ के नाम से प्रकाशित हो चुका है। उनके दो संग्रह (कहानी और काव्य) जल्द ही पाठकों के बीच होंगे। 
सम्मान व पुरस्कार
 साहित्य सृजन कर रही कवयित्री आशमा कौल को हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए ‘शब्द गंगा साहित्य सम्मान’, परमहाकवि रसखान राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान’, अखिल भारतीय ‘अम्बिका प्रसाद दिव्य रजत अलंकरण सम्मान’, ‘जयपुर साहित्य सम्मान’, ‘शिल्पी चड्ढा स्मृति सम्मान’, ‘भारती भूषण’, ‘हिन्दी काव्य विभूषण’ की मानद उपाधि,‘शब्द माधुरी’ सम्मान, ‘अंतरंग कला सम्मान’, राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान, ‘स्मृति साहित्य सम्मान’, ’काव्य-रतन’ सम्मान, इंडो-पाक तंजीमे एहसासात’ से ‘साहित्य शिल्पी’ सम्मान', शकुंतला कपूर स्मृति श्रेष्ठ लघु कथा सम्मान नवाजा जा चुका है। इसके अलावा उन्हें ‘हिन्दी काव्य विभूषण’ की मानद उपाधि से भी सम्मानित किया जा चुका है। वहीं साहित्य समर्था’ जयपुर से लघुकथा पर द्वितीय पुरुस्कार हासिल हुआ। उन्हें साहित्य सभा कैथल, लघुकथा मंच सिरसा, आगमन संस्था आदि साहित्यिक संस्थाओं से अनेक पुरस्कार देकर सम्मानित किया जा चुका है। 
13Jan-2025

सोमवार, 6 जनवरी 2025

चौपाल: हास्य कला से समाज को संस्कृति से जोड़ रहे हैं कॉमेडियन मोहन दलाल

हास्य-व्यंग्यात्मक शैली की कला से मिली लोकप्रियता 
           व्यक्तिगत परिचय 
नाम: मोहन दलाल 
जन्मतिथि: 01 जनवरी 1998 
जन्म स्थान: गांव गैबीनगर, जिला हिसार 
शिक्षा: ग्रेजुएट 
संप्रत्ति: स्टैंडअप कॉमेडियन, लेखक व निर्देशक 
संपर्क: गांव गैबीनगर, जिला हिसार, 9896944276
 By--ओ.पी. पाल 
रियाणवी संस्कृति के प्रति समर्पित लोक कलाकार समाज के बिगड़ते ताने बाने को पुनर्जीवित करने के लिए विभिन्न विधाओं में अपनी कलाओं के हुनर का प्रदर्शन करने में जुटे हैं। ऐसे ही लोक कलाकारों में हिसार के लोक कलाकार मोहन दलाल हरियाणवी संस्कृति, सभ्यता, परंपराओं, रीति रिवाजों की परंपराओं को संजोने के मकसद से अपनी हास्य-व्यंग्यात्मक शैली की कला के रंग बिखेरेने में जुटे हैं। उन्होंने अपने लिखित और निर्देशित हरेक कॉमेडी शो, चुटकलों, कविताओं और किस्सों में दर्शकों को हंसाने के के साथ समाज को अपनी संस्कृति के प्रति सकारात्मक संदेश देने का ही प्रयास किया है। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में हास्य कलाकार मोहन दलाल ने अपनी लोक कला के सफर में कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिसमें कला की हरेक विधा समाज, खासतौर से आज की युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति से जोड़ने का माध्यम है।
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रियाणा के लोक कलाकार मोहन दलाल का जन्म 01 जनवरी 1998 को हिसार जिले के गांव गैबीनगर में एक किसान परिवार में रमेश कुमार और श्रीमती राजवंती देवी के घर में हुआ। उनका परिवार हरियाणवी संस्कृति और अपनी सांस्कृतिक जड़ों और परंपराओं के प्रति पूरी तरह समर्पित है। उनके दादा सांग के तन्मय भाव से शौकीन रहे हैं, तो पिता को उन्होंने अक्सर भजनों में लीन पाया, जहां उनका समर्पण और आध्यात्मिकता उन्हें गहराई से प्रभावित करती रही। वहीं उनकी दादी का व्यक्तित्व हरियाणवी संस्कृति की नारी शक्ति का प्रतीक रहा, जिन्होंने आस-पड़ोस की महिलाओं को एक सूत्र में बांधे रखा और सांस्कृतिक संदर्भों को सदा ही जीवंत बनाए रखा। जबकि उनकी मां आकाशवाणी (रेडियो) सुनने की शौकीन थीं। ऐसे सांस्कृतिक माहौल से जुड़े परिवार में मिले संस्कारों के बीच मोहन ने अपने परिवार में खान-पान, सांस्कृतिक संदर्भ, धर्म, त्योहार, और रीति-रिवाज जैसी हरियाणवी संस्कृति की श्रेष्ठता को निभाते हुए देखा है। ऐसे समृद्ध सांस्कृतिक और परंपरागत माहौल के बीच एक किसान के बेटे के रूप में उनका बचपन खेत-खलिहान की सोंधी मिट्टी, गली-चौपाल की गर्मजोशी, घर की सादगी और दहलीज की मर्यादाओं के बीच बीता है। इन अनुभवों ने उन्हें केवल हरियाणवी संस्कृति की आत्मा से ही परिचित नहीं कराया, बल्कि जीवन को सरलता, आत्मनिर्भरता और सामुदायिक भावना के साथ जीने की सीख भी दी। उनके परिवार का हर सदस्य अपने आचरण और व्यवहार में हरियाणवी संस्कृति की छवि प्रस्तुत करता आ रहा हो, तो वह भी हरियाणवी संस्कृति में पूरी तरह रच-बसकर बड़े हुए और उनके जीवन के हर पहलू में यह संस्कृति बसते हुए झलकती गई। बकौल मोहन दलाल, सांस्कृतिक समृद्धि से परिपूर्ण परिवार में उनके व्यक्तित्व को ऐसा स्वरुप मिला कि बचपन से उनमें नाटक, कभी कविता, कभी कॉमेडी जैसी विधाएं ऐसे ही अन्तस में उतरती गईं। शायद यही वजह है कि जब भी वह किसी सांस्कृतिक प्रस्तुति या 'रिचुअल' जैसी विधा को निर्देशित करते हैं, तो उसमें हर बारीकी को सजीव करने का मन करता है। इन पारिवारिक अनुभवों और परंपराओं ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा है और उनकी सोच को सांस्कृतिक गहराई प्रदान की। उनकी कला की विविध विधाओं में सार्वजनिक प्रदर्शन सही अर्थों में पहली बार राजकीय महाविद्यालय जींद से प्रारंभ हुआ। यद्यपि वह इससे पहले एक बार बिना किसी गाइडेंस के जी.जे.यू. के मंच से अभिनय का प्रदर्शन कर चुके थे, जिसे सराहना भी मिली थी। इससे पहले स्कूल में जब कभी अभिव्यक्ति का मौका मिलता तो अपने मन की बातें छोटी-छोटी प्रस्तुतियों में भिन्न रूपों में कह लेते थे। कभी चुटकुले के माध्यम से कभी कविता के माध्यम से हिम्मत जुटाने का प्रयास रहा। हालांकि यह मंचीय शुरुआत कोई सहज नहीं थी और मंच की प्रस्तुतियां देखकर मंजिल तो पाने की ललक रही, लेकिन ग्रामीण बच्चों की तरह झिझक और स्वयं को अभिव्यक्त करने का भरपूर संकोच होता था। परंतु कला के क्षेत्र में राजकीय महाविद्यालय में उनकी गुरू मां डॉक्टर मंजुलता रेढू ने उन्हें जो सशक्त आधार दिया, जो धरातलीय दृढता उन्हें प्रदान की है, उसी के फल के रूप में आज वह अपनी कला को लेकर सबके सामने है। आज भी वह मंचीय प्रस्तुतियों में उनका आशीर्वाद लेना नहीं भूलते और यही प्रयास रहता है कि उन्होंने हरियाणवी संस्कृति को पूरी प्राणवत्ता से संभालने का जो दायित्व उन्हें सौंपा है, उसे वह जीवन पर्यन्त निभाता रहे। उनका कहना है कि लोक कला, लेखन और अभिनय के सफर में कई दिलचस्प अनुभव और चुनौतियां रहीं। पहली बार मंच पर प्रदर्शन और दर्शकों की सराहना ने बहुत आत्मविश्वास बढ़ाया, जबकि तकनीक और टीमवर्क ने नई सीख दी। गुरू से मिली कठिन परिश्रम, नैतिक जीवन मूल्यों और निष्ठा की सीख से लोक कला को खरा और प्रासंगिक बनाए रखने जैसी चुनौतियां भी सामने आईं। आत्मालोचन ने सुधार की ओर खींचा और मौके दिये। हर अनुभव ने उन्हें बेहतर कलाकार और इंसान बनने की राह दिखाई। 
पुरस्कार व सम्मान 
हास्य कलाकार मोहन दलाल की हास्य व्यग्य कला के जरिए समाज में दिये जा रहे उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें हरियाणा गौरव अवॉर्ड, हरियाणा सूत्रधार अवार्ड, हरियाणवी साहित्य रत्न सम्मान, सर्वश्रेष्ठ हास्य कलाकार अवॉर्ड, रॉल ऑफ हॉनर, कॉलेज कलर अवार्ड के अलावा उन्हें तीन बार राज्य स्तर पर हरियाणवी कविता प्रतियोगिताओं में प्रथम पुरस्कार मिल चुका है। वहीं उन्हें साहित्य एवं सांसकृतिक मंचों पर भी अनेक सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। 
सामाजिक मुद्दो पर फोकस 
हरियाणा के हास्य कलाकार मोहन दलाल का कहना है कि लोक साहित्य, कला और अभिनय के क्षेत्र में उनका फोकस हमेशा समाज के ज्वलंत मुद्दों और परंपरागत सांस्कृतिक मूल्यों को उजागर करने पर रहा है, ताकि समाज में सकारात्मक विचारधारों को बढ़ावा मिले। हरियाणवी संस्कृति, परंपराओं और रीति-रिवाजों को जीवंत रखना और नई पीढ़ी तक पहुंचाना उनकी हमेशा ही प्राथमिकता रही है। उनकी कला की गतिविधियों का बड़ा हिस्सा ग्रामीण जीवन, महिलाओं की स्थिति, आर्थिक असमानता जैसे सामाजिक मुद्दों को उजागर करने पर केंद्रित रहे है। हास्य और व्यंग्य के माध्यम से समाज की कुरीतियों पर प्रहार करना और लोगों को सोचने पर मजबूर करना मेरे अभिनय का मुख्य उद्देश्य रहा है। उनका मकसद कला और साहित्य के माध्यम से समाज में जागरूकता फैलाना, हरियाणवी संस्कृति को संरक्षित करना और इसे नई ऊंचाइयों तक ले जाना है। 
लुप्त हो रही है कला संस्कृति 
कलाकार मोहन दलाल का आधुनिक युग में कला के क्षेत्र की चुनौतियों के बारे में कहना है कि आधुनिक युग में साहित्य, लोक कला, अभिनय और संगीत जैसे सांस्कृतिक माध्यमों का स्वरूप बहुत तेजी से बदल रहा है। ये विधाएं अब परंपरागत सीमाओं से आगे बढ़कर नए आयामों में प्रवेश कर रही हैं। इसके साथ ही इन्हें कई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ रहा है। इसके बावजूद कलाकारों के लिए पारंपरिक कला और लोक साहित्य को प्रासंगिक बनाए रखना एक महत्वपूर्ण पहलू रहा है। यानी डिजिटल मंचों पर लोक कला को प्रस्तुत कर इसे नए आयाम देने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन सोशल मीडिया की वजह से युवा पीढ़ी के बीच लोक कलाएं, संस्कृति और साहित्य अपनी चमक खो रहे हैं। वैश्वीकरण और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव ने युवा वर्ग को परंपरागत मूल्यों और लोक कलाओं से दूर कर दिया है। इसके परिणामस्वरूप, पारंपरिक ज्ञान और विधाएं समय के साथ लुप्त होती जा रही हैं। ऐसी परिस्थितियों में युवाओं में रचनात्मकता और संवेदनशीलता को विकसित करने की दिशा में लोक कलाओं को स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर तक पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। वहीं साहित्यकारों, लेखकों, फिल्म निर्देशकों और कलाकारों को भी लोककला, संगीत, अभिनय, रंगमंच जैसी सांस्कृतिक कलाओं में सकारात्मक तथ्यों के साथ कार्य करने की आवश्यकता है, ताकि वे अपनी संस्कृति को संरक्षित करके आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अनमोल धरोहर पेश कर सकें। 
06Jan-2025