एक जमाना था जब लोग अपने घरों के बाहर लिखते थे-अतिथि देवो भव: फिर शुरू किया-शुभ लाभ और बाद में लिखा जाने लगा-यूं आर वेलकम अब शुरू हो गया-......से सावधान!
गुरुवार, 27 सितंबर 2012
बुधवार, 26 सितंबर 2012
मंगलवार, 25 सितंबर 2012
मध्यावधि चुनाव झेलने की स्थिति में नहीं कोई दल
मध्यावधि चुनाव झेलने की स्थिति में नहीं कोई दल

ओ.पी. पाल
यूपीए सरकार के खिलाफ भले ही एफडीआई और डीजल कीमतों में बढ़ोतरी जैसे मुद्दों पर समूचा विपक्ष एकजुट नजर आया हो या फिर तृणमूल कांग्रेस का यूपीए से समर्थन वापसी। लेकिन इन सबके बावजूद यूपीए सरकार बैकफुट पर जाने के बजाए फ्रंट फुट पर खेलती नजर आयी। यही कारण है कि मध्यावधि चुनाव का राग अलापने वाली सपा को भी अपने कदम वापस खींचने पड़ गये। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि फिलहाल देश के सियासी समीकरण में भाजपा या कोई अन्य विपक्षी दल मध्यावधि चुनाव कराने के पक्ष में नहीं है। इसका साफ कारण है कि किसी भी राजनीतिक दल ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह फिलहाल सियासी जंग के लक्ष्य को हासिल कर सके।संसद के मानसून सत्र से तृणमूल कांग्रेस के यूपीए सरकार से समर्थन वापसी और फिर यूपीए सरकार के लिए संकट मोचक बने सपा प्रमुख मुलायम तक की राजनीति को देखा जाए तो देश की मौजूदा राजनीतिक वातावरण उस इशारे से मुहं फेर चुके हैं जो मध्यावधि चुनाव की आहट दे रहे थे। राजनीतिक विशेषज्ञ डा. महरूद्दीन खान कहते हैं कि मध्यावधि चुनाव का सुर्रा छोड़कर सपा प्रमुख ने तीसरे मोर्चा बनाने की सियासत जरूर की है और उसे हवा भी मिलती नजर आई, लेकिन वह यह जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में सत्ता में होते हुए भी उनकी पार्टी की स्थिति ऐसी नहीं है कि मध्यावधि चुनाव का सामना किया जा सके। बसपा का पिकप भी सही नहीं है और वह पहले से ही मध्यावधि चुनाव के पक्ष में नहीं थी। सही मायने में तो भाजपा भी मध्यावधि चुनाव के पक्ष में नहीं है, भले ही वह कोयला आबंटन मुद्दे पर प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांगती रही है। जहां तक सपा का यूपीए को समर्थन देने का सवाल है उसमें पहले से ही राष्टपति के पास सपा और बसपा की समर्थन की चिठ्ठी मौजूद है, जो अगला पत्र जाने तक प्रभावी रहेगी। इसलिए यह कहना कि सपा ने यूपीए को समर्थन दिया है वह तो पहले से ही मौजूद है।राजनीतिक विशेषज्ञ और जेएनयू में प्रो. प्रवीण कुमार झा का कहना है कि वैसे तो आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारी में सभी राजनीतिक दल जुटे हुए हैं, लेकिन असम हिंसा से लेकर कोयला घोटाले और एफडीआई लागू करने तक देश में मचा बवाल और हाय-तौबा चुनावी तैयारियों की ही कवायद का हिस्सा है। अण्णा और रामदेव के आंदोलनों ने यूपीए सरकार के खिलाफ देशभर में माहौल बनाकर विपक्षी दलों के मन में यह आस जगा दी थी, कि देश में मध्यावधि चुनाव के हालात बन रहे हैं और और क्षेत्रीय दलों और तीसरे मोर्च के तरफदार नेता जोड़-तोड़ और मोर्चाबंदी में मशगूल हो गए। लेकिन इन आंदोलनों की हवा निकालने के बाद कांग्रेसनीत यूपीए सरकार खुद को फ्रंट फुट पर आती दिखाई दी। जाहिर सी बात है कि देश के अधिकतर दल और सांसद मध्यावधि चुनाव नहीं चाहते हैं, लेकिन यह बात तय है कि 2014 के आम चुनाव के लिए तैयारियां शुरू हो चुकी है क्योंकि एनडीए और खुद यूपीए के भी कुछ घटक दलों को ये आभास हो चुका है कि इन आम चुनावों में परिवर्तन की प्रबल संभावना है इसलिए राजनीतिक दल इस अवसर को खोना नहीं चाहते हैं। देश में चल रहा यह हाई पावर राजनीतिक नाटक से अब केवल यही कहा जा सकता है कि सभी राजनीतिक दलों ने आगामी लोकसभा चुनाव के लिए कमर कसते हुए तैयारियों की शुरूआत कर दी है।मौजूदा राजनीतिक परिपेक्ष्य में राजनीतिकारों की राय में वैसे भी लोकसभा के आम चुनाव में कम ही समय रह गया है, ऐसे में मध्यावधि चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल को फायदा नजर नहीं आता। प्रमुख विपक्षी दल के लिए यूपीए सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित करना भी ऐसे राजनीतिक माहौल में संभव नहीं है। फिलहाल कोई भी यह नहीं चाहता है कि वतर्मान स्थिति में वास्तव में कोई बदलाव हो। प्रधानमंत्री संसद को भंग करके मध्यावधि चुनाव करवाने का खतरा नहीं उठाएंगे और विपक्षी दल सरकार का विरोध करते हुए प्रधानमंत्री से ऐसे ही इस्तीफा मांगते रहेंगे और यह आशा करते रहेंगे कि किसी तरह 2014 तक ऐसा ही माहौल बना रहे।
ओ.पी. पाल
यूपीए सरकार के खिलाफ भले ही एफडीआई और डीजल कीमतों में बढ़ोतरी जैसे मुद्दों पर समूचा विपक्ष एकजुट नजर आया हो या फिर तृणमूल कांग्रेस का यूपीए से समर्थन वापसी। लेकिन इन सबके बावजूद यूपीए सरकार बैकफुट पर जाने के बजाए फ्रंट फुट पर खेलती नजर आयी। यही कारण है कि मध्यावधि चुनाव का राग अलापने वाली सपा को भी अपने कदम वापस खींचने पड़ गये। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि फिलहाल देश के सियासी समीकरण में भाजपा या कोई अन्य विपक्षी दल मध्यावधि चुनाव कराने के पक्ष में नहीं है। इसका साफ कारण है कि किसी भी राजनीतिक दल ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह फिलहाल सियासी जंग के लक्ष्य को हासिल कर सके।संसद के मानसून सत्र से तृणमूल कांग्रेस के यूपीए सरकार से समर्थन वापसी और फिर यूपीए सरकार के लिए संकट मोचक बने सपा प्रमुख मुलायम तक की राजनीति को देखा जाए तो देश की मौजूदा राजनीतिक वातावरण उस इशारे से मुहं फेर चुके हैं जो मध्यावधि चुनाव की आहट दे रहे थे। राजनीतिक विशेषज्ञ डा. महरूद्दीन खान कहते हैं कि मध्यावधि चुनाव का सुर्रा छोड़कर सपा प्रमुख ने तीसरे मोर्चा बनाने की सियासत जरूर की है और उसे हवा भी मिलती नजर आई, लेकिन वह यह जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में सत्ता में होते हुए भी उनकी पार्टी की स्थिति ऐसी नहीं है कि मध्यावधि चुनाव का सामना किया जा सके। बसपा का पिकप भी सही नहीं है और वह पहले से ही मध्यावधि चुनाव के पक्ष में नहीं थी। सही मायने में तो भाजपा भी मध्यावधि चुनाव के पक्ष में नहीं है, भले ही वह कोयला आबंटन मुद्दे पर प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांगती रही है। जहां तक सपा का यूपीए को समर्थन देने का सवाल है उसमें पहले से ही राष्टपति के पास सपा और बसपा की समर्थन की चिठ्ठी मौजूद है, जो अगला पत्र जाने तक प्रभावी रहेगी। इसलिए यह कहना कि सपा ने यूपीए को समर्थन दिया है वह तो पहले से ही मौजूद है।राजनीतिक विशेषज्ञ और जेएनयू में प्रो. प्रवीण कुमार झा का कहना है कि वैसे तो आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारी में सभी राजनीतिक दल जुटे हुए हैं, लेकिन असम हिंसा से लेकर कोयला घोटाले और एफडीआई लागू करने तक देश में मचा बवाल और हाय-तौबा चुनावी तैयारियों की ही कवायद का हिस्सा है। अण्णा और रामदेव के आंदोलनों ने यूपीए सरकार के खिलाफ देशभर में माहौल बनाकर विपक्षी दलों के मन में यह आस जगा दी थी, कि देश में मध्यावधि चुनाव के हालात बन रहे हैं और और क्षेत्रीय दलों और तीसरे मोर्च के तरफदार नेता जोड़-तोड़ और मोर्चाबंदी में मशगूल हो गए। लेकिन इन आंदोलनों की हवा निकालने के बाद कांग्रेसनीत यूपीए सरकार खुद को फ्रंट फुट पर आती दिखाई दी। जाहिर सी बात है कि देश के अधिकतर दल और सांसद मध्यावधि चुनाव नहीं चाहते हैं, लेकिन यह बात तय है कि 2014 के आम चुनाव के लिए तैयारियां शुरू हो चुकी है क्योंकि एनडीए और खुद यूपीए के भी कुछ घटक दलों को ये आभास हो चुका है कि इन आम चुनावों में परिवर्तन की प्रबल संभावना है इसलिए राजनीतिक दल इस अवसर को खोना नहीं चाहते हैं। देश में चल रहा यह हाई पावर राजनीतिक नाटक से अब केवल यही कहा जा सकता है कि सभी राजनीतिक दलों ने आगामी लोकसभा चुनाव के लिए कमर कसते हुए तैयारियों की शुरूआत कर दी है।मौजूदा राजनीतिक परिपेक्ष्य में राजनीतिकारों की राय में वैसे भी लोकसभा के आम चुनाव में कम ही समय रह गया है, ऐसे में मध्यावधि चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल को फायदा नजर नहीं आता। प्रमुख विपक्षी दल के लिए यूपीए सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित करना भी ऐसे राजनीतिक माहौल में संभव नहीं है। फिलहाल कोई भी यह नहीं चाहता है कि वतर्मान स्थिति में वास्तव में कोई बदलाव हो। प्रधानमंत्री संसद को भंग करके मध्यावधि चुनाव करवाने का खतरा नहीं उठाएंगे और विपक्षी दल सरकार का विरोध करते हुए प्रधानमंत्री से ऐसे ही इस्तीफा मांगते रहेंगे और यह आशा करते रहेंगे कि किसी तरह 2014 तक ऐसा ही माहौल बना रहे।
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