सोमवार, 18 नवंबर 2024

साक्षात्कार: सामाजिक विसंगतियों को दूर करने का माध्यम साहित्य: ब्रह्म दत्त शर्मा

कहानीकार और उपन्यासकार के रुप में हासिल की लोकप्रियता 
      व्यक्तिगत परिचय 
नाम: ब्रह्म दत्त शर्मा 
जन्म-तिथि: 8 जून, 1973 
जन्म-स्थान: झींवरहेड़ी, जिला- यमुनानगर (हरियाणा)
शिक्षा: एम.ए.(अंग्रेजी) बी.एड.(कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय)
सम्प्रति: अध्यापन, कहानीकार व उपन्यासकार लेखक
संपर्क: मकान नं. 82,सेक्टर 18, हुड्डा जगाधरी (यमुनानगर)हरियाणा,मो.नं:-08295400476 09416955476, Email:brahamduttsharma8@gmail.com 
BY--ओ.पी. पाल 
साहित्य जगत एवं लोक कला के माध्यम से लेखकों, साहित्यकारों, कवियों, गजलकारों, कलाकारों, गीतकारों, रंगकर्मियों ने विभिन्न विधाओं में हरियाणा की संस्कृति और परंपराओं को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान देने में अहम भूमिका निभाई है। साहित्य के क्षेत्र में भी लेखकों का मकसद यही है कि समाज को नई दिशा देकर उनमें सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो। ऐसे ही साहित्यकार ब्रह्म दत्त शर्मा ने कहानीकार और उपन्यासकार के रुप में लोकप्रियता हासिल की है, जिसमें उन्होंने भारतीय संस्कृति और परंपराओं के संवर्धन की दिशा में सामाजिक सरोकार से जुड़े सामयिक मुद्दों को समायोजित किया है। एक शिक्षाविद् एवं साहित्यकार के रुप में हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान ब्रह्म दत्त शर्मा ने अपने साहित्यिक सफर को लेकर कुछ ऐसे अनुछुए पहलुओं को भी उजागर किया है, जिसमें साहित्य के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों और कुरीतियों को दूर करना संभव ही नहीं, बल्कि मुमकिन भी है। 
साहित्य के क्षेत्र में कहानीकार और उपन्यासकार के रुप में लोकप्रिय हुए साहित्यकार ब्रह्म दत्त शर्मा का जन्म 8 जून, 1973 को हरियाणा में यमुनानगर जिले के गांव झींवरहेड़ी में रणधीर सिंह व श्रीमती धनवंती देवी के घर में हुआ। उनके मध्यवर्गीय परिवार में खेती बाड़ी का काम था। शिक्षित पिता एक छोटे किसान थे और घर परिवार में कोई भी साहित्यिक माहौल नहीं था। ब्रह्म दत्त शर्मा ने बताया कि उनके साहित्य की शुरुआत बड़े अजीबोगरीब ढंग से हुई। या यूं कहे कि उनके लेखन की शुरुआत आमतौर पर दूसरे लेखकों से थोड़ी अलग रही है। दरअसल उन्हें बचपन से ही ही अखबार और किताबें पढ़ने का खूब शौक रहा है। यही कारण था कि कॉलेज के दौर में दोस्तों से उधार लेकर भी किताबें पढ़ते थे और उससे उनके मन में लिखने की लालसा जागृत हुई। वे कभी कविता, कभी कहानी और कभी-कभी सीधा उपन्यास लिखना शुरु करने लगे, लेकिन बात न बनती देखकर फाड़कर फेंक देते थे। यहां उनको अहसास हुआ कि लिखना कितना दुष्कर का है। इसलिए कई सालों तक उन्होंने कुछ नहीं लिखा। फिर नए साल के प्रण के तौर पर लेखन का निर्णय किया और एक वर्ष पूरी तरह लेखन को ही समर्पित कर दिया जाएगा। शिक्षा विभाग हरियाणा के अंतर्गत राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय पाबनी कलां (यमुनानगर) में एस.एस. मास्टर के पद पर कार्यरत ब्रह्म दत्त शर्मा के लेखन की शुरुआत एक जनवरी 2009 से एक कहानी लिखने से हुई। जब उनका कहानी संग्रह लिखकर तैयार हुआ, तो उसे प्रकाशित करवाने की समस्या उनके सामने थी, क्योंकि उनके जिले में उस समय एक भी कहानीकार नहीं था। इसका कारण यह भी था कि उन्हें इस पुस्तक प्रकाशन बारे में कुछ भी मालूम नहीं था। इस समस्या का समाधान उस समय हुआ, जब वह एक परिचित के कहने पर वह कुरुक्षेत्र में कहानीकार ओम सिंह अशफाक से मिले, जिनके सुझाव पर उन्होंने अपनी पहली कहानी हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा को भेजी, जो जुलाई 2009 में प्रकाशित हुई। इस तरह मेरे लेखन को धार मिली और उनका आत्मविश्वास भी बढ़ा। उसके बाद उनका लेखन का कार्य लगतार जारी है। उनके इस सफर में एक ऐसा मोड़ आया, जिसमें साल 2013 के दौरान उत्तराखंड त्रासदी में वह परिवार सहित फंस गये थे और बड़ी मुसीबतों और मुश्किलों से जान बचाकर वहां से वापस घर लौटे। उस त्रासदी में शायद इकलौता भुक्तभोगी लेखक था, इसलिए इस त्रासदी के अपने तमाम अनुभवों के आधार पर उन्होंने अपना पहला उपन्यास ‘ठहरे हुए पलों में’ लिखा, साहित्य के क्षेत्र और पाठकों के बीच सुर्खियां बना। उनके साहित्यिक लेखन में ज्यादातर कहानियों और उपन्यासों में वर्तमान दौर के सामाजिक मुद्दें रहे हैं, वहीं समाज की बुराइयां, विसंगतियां और विरोधाभास पर भी उनके लिखने का हमेशा प्रयास रहा है। 
प्रासांगिक है साहित्य 
इस आधुनिक युग में साहित्य के सामने चुनौतियों के बारे में साहित्यकार ब्रह्म दत्त शर्मा का कहना है कि साहित्य का महत्व हर युग में रहा है और रहेगा। मसलन साहित्य की प्रासांगिता को खत्म नहीं किया जा सकता। हालांकि समय के साथ साहित्य में भी कुछ परिवर्तन होना स्वाभाविक हैं। आज इंटरनेट और सोशल मीडिया ने जीवन के हर क्षेत्र में बदलाव किए हैं, इसलिए साहित्य भी इन बदलावों से अछूता नहीं रह सकता। इस युग में साहित्य के पाठक कम होने के पीछे कई कारण हैं। पहले सिर्फ किताबें ही हमारे ज्ञान और मनोरंजन का प्रमुख साधन थीं, लेकिन आज के युग में आधुनिक साधन माध्यम बने हुए हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि साहित्य पढ़ने वालों की संख्या कम हुई है, लेकिन आज भी किताबें पढ़ी जाती हैं और किताबों का कोई विकल्प भी नहीं है। इसी कारण आज के युवाओं के पास मनोरंजन और ज्ञान प्राप्ति के बहुत से विकल्प हैं, इसलिए उनका रुझान साहित्य से हटा है। इसलिए युवाओं को अच्छे साहित्य से परिचित कराने और पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके लिए स्कूल और कॉलेजों के स्तर पर अध्यापकों में ही साहित्य के प्रति रुचि जगाने की आवश्यकता है। लेखकों का भी दायित्व है कि साहित्य ऐसा लिखा जाए, जिससे आज के युवा स्वयं को जोड़ अपनी संस्कृति के प्रति समझ पैदा कर सकें। दरअसल साहित्य में कुछ हद तक इसलिए भी गिरावट देखी गई है कि आज के लेखकों में और विशेष तौर पर युवा लेखकों में धैर्य की कमी है, जो फटाफट लिखकर प्रसिद्धि पाना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए सिद्धि करना भी आवश्यक है। हालांकि आज भी बहुत से लेखक बहुत बढ़िया लिख रहे हैं। उन्हें सराहा और पढ़ा जाना चाहिए। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्यकार ब्रह्म दत्त शर्मा की अब तक प्रकाशित पुस्तकों में कहानी-संग्रह ‘चालीस पार, ‘मिस्टर देवदास’, 'पीठासीन अधिकारी' और 'चयनित कहानियाँ' सुर्खियों में हैं। वहीं उन्होंने उपन्यास ‘ठहरे हुए पलों में’ और 'आधी दुनिया पूरा आसमान' लिखकर एक लेखक के रुप में साहित्यिक जगत में अहम स्थान बनाया है। उनकी कहानियां, उपन्यास और अन्य आलेख देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती रही हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
साहित्य के क्षेत्र में ब्रह्म दत्त के लिखित कहानी संग्रह 'पीठासीन अधिकारी' को हरियाणा साहित्य अकादमी ने श्रेष्ठ कृति पुरस्कार से नवाजा है। वहीं उन्हें हरियाणा साहित्य अकादमी के हिंदी कहानी प्रतियोगिता पुरस्कार से भी अलंकृत किया जा चुका है। इसके अलावा साहित्य सभा कैथल से बृजभूषण भारद्वाज एडवोकेट समृति साहित्य सम्मान, मेघालय के शिलांग के डॉ. महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान, हिन्दी रत्न सम्मान और यूपी के सुल्तानपुर में माँ धनपति देवी समृति कथा साहित्य सम्मान के अलावा उन्हें जयपुर में दो बार डॉ. कुमुद टिक्कू कहानी प्रतियोगिता पुरस्कार मिल चुका है। वहीं देश से बाहर उन्हें विश्व हिंदी सचिवालय मॉरिशस के विश्व हिंदी कहानी प्रतियोगिता प्रथम स्थान, जबकि नेपाल के जनकपुर धाम में उर्मि कृष्ण हिंदी सेवा सम्मान और भूटान के थिंपू में मिला अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी सेवा सम्मान भी उनकी बड़ी उपलब्धियों में शामिल है। 
18Nov-2024

सोमवार, 11 नवंबर 2024

चौपाल: समाज व संस्कृति में फिल्मों की अहम भूमिका: मुकेश मुसाफिर

हरियाणावी फिल्म उद्योग में प्रमुख अभिनेता के रुप में हुए लोकप्रिय 
       व्यक्तिगत परिचय 
नाम: मुकेश मुसाफिर 
जन्मतिथि: 25 जनवरी 1986 
जन्मस्थान: रोहतक (हरियाणा) 
शिक्षा: स्नातक नेकीराम कालेज तथा सुपवा से फिल्म एक्टिंग 
 संप्रति: अभिनेता, लोक कलाकार एवं निर्देशक 
सम्पर्क: म.न. 97/B, रेलवे कालोनी (रेलवे हॉस्पीटल के पीछे) रोहतक (हरियाणा), मोबा.9728172535, ईमेल-musafirmukesh@gmail.com 
BY--ओ.पी. पाल 
रियाणवी फिल्म उद्योग को गुलजार करने के लिए लोक कलाकारों के लिए अपनी कला के प्रदर्शन से कई कई ऐसी फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दी है और हरियाणवी संस्कृति की अलख जगाने में अहम भूमिका निभाई है। ऐसे ही अभिनेताओं में मुकेश मुसाफिर ने भी दर्जनों फिल्मों में अपने अपने अभिनय से बॉलीवुड तक का सफर तय किया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कान्स फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के खिताब से नवाजी जा चुकी लघु फिल्म छाया में उनकी प्रमुख भूमिका रही है। इसी प्रकार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार हासिल कर चुकी हरियाणवी फिल्म दादा लखमी में भी उनका किरदार महत्वपूर्ण साबित हुआ। अपने अभिनय के सफर को लेकर अभिनेता, लोक कलाकार एवं निर्देशक के रुप में लोकप्रिय मुकेश मुसाफिर ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कहा कि फिल्मों कलाकारों का काई भी किरदार सामाजिक और संस्कृति को नई दिशा देने में सक्षम है। 
रियाणा के फिल्मी कलाकार मुकेश मुसाफिर का जन्म 25 जनवरी 1986 को रोहतक शहर में एक सामान्य मध्यम परिवार में जिले सिंह व ज्ञानो दवी के घर हुआ। उनके पिता रेलवे में नौकरी करते हैं, जो रोहतक की रेलवे कालोनी में रहते हैं, यहीं मुकेश मुसाफिर का बचपन गुजरा, लेकिन परिवार में किसी भी प्रकार का कोई साहित्यिक, सांस्कृतिक या कला का माहौल नहीं था। रेलवे स्टेशन के पास रहने के कारण उन्हें बहुत कुछ देखने को मिला। वहीं आसपास रामलीला, जागरण और झांकियां देखे, लेकिन उनके दिमाग में कतई भी कोई किरदार निभाने की इच्छा नहीं थी। इसका कारण भी था कि परिवार में माता पिता के अलावा चार भाईयों का पालन पोषण अकेले पिता की नौकरी में करना भी मुश्किल हो रहा था। आर्थिक तंगी के बावजूद पढ़ाई करना भी मुश्किल था, इसलिए पढ़ाई करने के साथ उन्होंने 6-7 साल फैक्ट्री, कपड़े की दुकान और टेलरिंग जैसे अनेक काम किया। बकौल मुकेश मुसाफिर, उन्हें अपनी माता से बहुत लगाव था, जो बाजार जाती और आस पड़ोस की बातों को इस अंदाज में कहती थी, जैसे उनका किरदार वहीं निभा रही हों। तब तक भी खुद के दिमाग में कला जैसे करियर की बात नहीं थी। दरअसल परिवार में बचपन से ही वह शर्मिले स्वभाव के रहे हैं, शादी या अन्य समारोह में दूसरे दोस्त नाच करते थे, लेकिन शर्म के मारे वह नाचने में संकोच करते थे, लेकिन कोई खींचकर मंच पर ले जाता था थोड़ा बहुत वह भी नाच लेता था। उनकी लंबाई भी तेजी से बढ़ी तो हाई स्कूल उत्तीर्ण करने के बाद उनका अचानक थियेटर की रुझान बढ़ना शुरु हुआ। हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति ने रेलवे स्टेशन के आसपास पोस्टर लगाए थे कि सामाजिक विषयों पर नुक्कड नाटक के लिए उन्हें अभिनय करने वालों की आवश्यकता है। चूंकि परिवार में कमाने का भी दवाब बना था, तो वह भी समिति के पास गये और वे नुक्कड नाटक में काम करने लगे, लेकिन पढ़ाई के साथ साथ थियेटर भी नियमित नहीं रह सका। इसके बाद उन्होंने साल 2000 में इंटर में विज्ञान विषय में प्रवेश लिया, लेकिन चौथे प्रयास में किसी तरह से उत्तीर्ण की। उसके बाद उन्होंने एक इंस्टीट्यूट में अंग्रेजी सीखी, ताकि कॉल सेंटर आदि संस्थानों में नौकरी की जा सके, लेकिन स्नातक न होने के कारण उन्हें जॉब नहीं मिल सका। इसके बाद उन्होंने रोहतक के नेकीराम कॉलेज में उच्च शिक्षा के लिए प्रवेश लिया, जहां साथियों ने थियेटर शुरु किया, लेकिन ज्यादा आयु के कारण उन्हें थियेटर में नहीं लिया गया। इसके बाद रोहतक में कुछ दिन मेडिकल रिप्रेजेंटिव का कार्य करने के बाद दिल्ली के होटल में काम किया। उनकी दोस्ती का दायर बढ़ने लगा, तो उन्होंने रोहतक में थियेटर का काम शुरु कर दिया और उसके बाद साल 2012 में उन्होंने सुपवा में प्रवेश लेकर एक्टिंग का कोर्स किया। उनके अभिनय की शुरुआत 2016 से लघु फिल्मों से हुई और उन्होंने करीब एक दर्जन लघु फिल्मों में शानदार किरदार से लोकप्रियता हासिल की। उन्होंने कहा कि फिल्मों, टीवी फिल्मों, वेब सीरिज या अन्य शॉ में उनके किरदार का फोकस सामाजिक, संस्कृति और भावात्मकता पर रहा है। इस आधुनिक युग में कला के क्षेत्र में फिल्मों की पटकथाओं में जिस प्रकार बदलाव आया है, उसमें जल्द से जल्द लोकप्रियता हासिल करने का प्रयास है, लेकिन सामाजिक और अपनी संस्कृति से जुड़े रहने के लिए सिद्धी के बाद ही प्रसिद्धि मिलती है। मसलन फिल्म निर्देशकों और कलाकारों को भी चाहिए कि फिल्मों की पटकथा और अभिनय ऐसा होना चाहिए, जो सामाजिक समरसता के लिए अपनी संस्कृति से जुड़ा होने का संदेश समाहित हो। 
ऐसे मिली लोकप्रियता 
अभिनेता मुकेश मुसाफिर ने फीचर फिल्म लक्ष्मी वॉलीबुड अभिनेता अक्षय कुमार के साथ भी काम किया है। वहीं उन्होंने विजय राज, जतिन सरना, शरमन जोशी, पार्टिक बब्बर, सोनल चौहान, जिमी शेरगिल, डेजी शाह, विनय पाठक, गुलशन ग्रोवर, मघना मलिक, यशपाल शर्मा, राजेंद्र गुप्ता जैसे अभिनेताओं के साथ एक दर्जन फिल्मों में अभिनय किया है। इसके अलावा उन्होंने ऐसी बीस लघु फिल्मों में अपने अभिनय की कला का प्रदर्शन किया, जो कॉन्स वर्ल्ड फिल्म फेस्टिवल, भूषण इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, आईएफएफआई गोवा, चिल्ड्रन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल दुबई जैसे विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शित हुई हैं। हाल ही में यशपाल शर्मा के निर्देशन में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हरियाणवी फीचर फिल्म ‘दादा लखमी’ में अहम कलाकार के रुप में अभिनय किया, जिसमें मुकेश मुसाफिर ने बचपन के लखमीचंद के पिता का किरदार निभाया है, इसमें लखमी की मां वॉलीवुड अभिनेत्री मेघना मलिक रही। 
इन वेबसीरीज और फिल्मों में अहम भूमिका
कलाकार मुकेश मुसाफिर ने वेबसीरीज फिल्मों बवाल, अग्निवीर, जालिमपुर, हक्का या हथियार, अखाड़ा, वाहम्म, एचआर 13, मोटर माचिस कटर, सत्या के अलावा डीडी नेशनल के नेशनल के टीवी सीरियल नाम (अकेले नहीं है आप) में भी अभिनय किया है, जो जल्द ही दर्शकों के सामने होंगे। इसके अलावा उन्होंने एचसीएल और हरियाणा सरकार के लिए विज्ञापन में भी अलग अलग किरदार किये हैं। उनकी लघु फिल्म ‘एक आदमी का न्योता’ भी सुर्खियों में रही है। 
पुरस्कार व सम्मान हरियाणा के प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता मुकेश मुसाफिर को हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव कुरुक्षेत्र 2017 में लघु फिल्म ‘दायरा’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला। वहीं उन्हें मार्च 2022 में चित्र भारती फिल्म फेस्टिवल भोपाल में फिल्म ‘छाया’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया जा चुका है। जबकि हरियाणा इंटरनेशनल फिल्म एसोसिएशन 2023 से लघु फिल्म ‘छाया’ के लिए फिर से उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार से नवाजा गया। यही नहीं उनकी लघु फिल्म छाया कान्स वर्ल्ड फिल्म फेस्टिवल में छात्र फिल्म प्रतियोगिता में भी प्रदर्शित की गई। जबकि लघु फिल्म ‘दयारा’ को बुसान अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में विशेष रुप से प्रदर्शित किया गया है। इसके अलावा उनकी लघु फिल्म ‘एक आदमी का न्योता’ का चिल्ड्रन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल दुबई में हुआ प्रदर्शन उनकी बड़ी उपलब्धि रही। 
11Nov-2024

सोमवार, 4 नवंबर 2024

साक्षात्कार: साहित्य और समाज एक सिक्के के दो पहलू: राधेश्याम भारतीय

सामयिक मुद्दो पर रचनाओं से समाज को नई दिशा देने में जुटे 
      व्यक्तिगत परिचय 
नाम: राधेश्याम भारतीय 
जन्मतिथि: 15 जुलाई 1974 
जन्म स्थान: गांव हसनपुर, जिला करनाल। 
शिक्षा: एम.ए.(हिंदी), एम.फिल., पीएच.डी. (हिंदी लघुकथाओं के आलोक में राष्ट्रीय चेतना) 
संप्रत्ति: साहित्यकार, लेखक, हिंदी प्रवक्ता 
संपर्क: नसीब विहार कॉलोनी, घरौंडा, करनाल (हरियाणा) मो. : 09315382236/ 8901282236 
ई-मेल: rbhartiya74@gmail.com 
By--ओ.पी. पाल 
भारतीय संस्कृति में साहित्य और समाज को एक ही सिक्के के दो पहलुओं के रुप में देखा गया है। विद्वानों का मानना है कि साहित्य के बिना समाज अधूरा है। इसीलिए लेखक और साहित्यकार सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर अपनी लेखनी चलाते आ रहे हैं। ऐसे ही साहित्यकारों में शामिल हरियाणा राधेश्याम भारतीय भी सामयिक मुद्दों पर लघुकथा और कहानियां, आलेख के अलावा बाल मनों को भी मोहते हुए अपने रचना संसार का विस्तार कर रहे हैं। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान शिक्षाविद्, लेखक और साहित्यकार डा. राधेश्याम भारतीय ने अपने साहित्यिक सफर किो लेकर कुछ ऐसे अनछुए पहलुओं का जिक्र किया है, जिसमें समाज को नई दिशा देने और सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने के लिए अपनी संस्कृति से जुड़ा रहना आवश्यक है और साहित्य तथा कला संस्कति समाज को जोड़ने में अहम भूमिका निभा रही है।
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रियाणा के साहित्यकार एवं लेखक राधेश्याम भारतीय का जन्म 15 जुलाई 1974 को करनाल जिले के गाँव हसनपुर में पूर्ण सिंह और श्रीमती धनपति देवी के घर में हुआ। उनके पिता जी भारतीय सेना में थे, लेकिन उनके जन्म के दो साल बाद ही जब वह सेना से छुट्टी लेकर घर आ रहे थे, तो पिता का एयरक्रेश होने के कारण दुर्घटना में निधन हो गया। राधेश्याम की माता एवं दादी ने परिवार में तीन भाईयों एवं दो बहनों का पालन-पोषण किया। बकौल राधेश्याम, उनकी दसवीं कक्षा तक की शिक्षा गाँव के स्कूल में हुई, जबकि उससे आगे की पढ़ाई घरौंडा कालेज में ग्रहण की। उनके परिवार का साहित्य से दूर-दूर तक कोई संबंध न था। हाँ, उन्हें अखबार पढ़ना, पंचतंत्र की कहानियों के साथ-साथ प्रेमचंद की कहानियाँ पढ़ना बेहद पसंद था। इसी कारण बीए तक आते-आते कविताओं की तुकबंदी करने लगे। हालांकि वे न तो कहीं छपी और आज लगता है कि वे कहीं छपने योग्य थी भी नहीं। कॉलेज लाइफ की कविताओं के विषय कुछ अलग ही तरह के होते हैं। कॉलेज में एक दिन पता चला कि उनके हिंदी विषय के प्राध्यापक डॉ अशोक भाटिया लेखक हैं और उनका लघुकथा संग्रह 'जंगल में आदमी' कॉलेज की लाइब्रेरी में है। बस उसे देखने-पढ़ने की ऐसी लालसा मन में जगी, कि सारी लघुकथाएं पढ़ डालीं और शायद उनसे प्रभावित होकर ही वह भी लघुकथाएँ लिखने लगे। हालांकि उनकी वे लघुकथाएँ कोरी घटना थी या उनमें साहित्यिकता भी थी, कुछ पता न था और पता भी न चलता यदि वरिष्ठ साहित्यकार रामकुमार आत्रेय जी का सान्निध्य प्राप्त न होता। उन्होंने केवल लघुकथाओं में सुधार ही नहीं करवाया, बल्कि यह भी समझाया कि साहित्य क्यों लिखा जाना चाहिए। उनसे ही सीख मिली कि एक साहित्यकार अपनी लेखनी से समाज का मार्गदर्शन कैसे कर सकता है? साहित्यकार राधेश्याम की सबसे पहली लघुकथा टिड्डी' के नाम से दैनिक जागरण के 'सांझी' में प्रकाशित हुई। ऐसे में उनका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था। उसके बाद उनकी रचनाएं और आलेख राष्ट्रीय पत्र व पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं। उनकी अधिकतर रचनाओं का फोकस समाज में फैली जातीय संकीर्णता, रूढ़िवादी परम्परा एवं लोगों की मानसिकता पर रहा। खासतौर से 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक की लघुकथाओं में उन्होंने अपनी रचनाओं का फोकस सामाजिक विसंगतियों, विद्रपताओं, असमानता, रूढ़िवादी परम्परा, धार्मिक एवं जातीय संकीर्णता, बिगड़ते लिंग अनुपात, किसान मजदूरों की दुर्दशा, भ्रष्टतंत्र, स्वार्थपूर्ण राजनीति से प्रभावित आम आदमी की चिंताओं पर रखा है। वह मानते हैं कि इसकी पृष्ठभूमि में उनकी रचनाओं का उद्देश्य समाज में मानवीय मूल्यों की स्थापना करने पर रहा है। उन्होंने बताया कि हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला के सौजन्य से उनका पहला लघुकथा संग्रह 'अभी बुरा समय नहीं आया है' प्रकाशित हुआ। उसके बाद 'कीचड़ में कमल' एवं 'खिड़की का दुःख' प्रकाशित हुए। लघुकथा को अपनी 'बेटी' मानने वाले मधुदीप ने लघुकथाओं पर शुरु की अपनी 'पड़ाव और पड़ताल' श्रृंखला में उ नकी 11 लघुकथाएं प्रकाशित कीं और उन पर आलोचनात्मक आलेख वरिष्ठ साहित्यकार रामकुमार आत्रेय से लिखवाया। यही नहीं अमेरिका के पीट्सबर्ग से की पत्रिका 'सेतु' द्वारा करवाई गई अंतर्राष्ट्रीय लघुकथा प्रतियोगिता में लघुकथा 'सम्मान' को पुरस्कार मिला। वहीं विभिन्न प्रतियोगिताओं में उनकी लिखित कहानियां भी पुरस्कृत की गई। डॉ. अशोक भाटिया के निर्देशन में उन्होंने 'हिंदी लघुकथाओं के आलोक में राष्ट्रीय चेतना' विषय पर पीएच.डी की। हिसार दूरदर्शन एवं आकाशवाणी रोहतक और कुरुक्षेत्र से लघुकथाओं का पाठ करने का मौका भी उन्हें मिला। हाल ही में आकाशवाणी कुरुक्षेत्र से बालकथाओं का प्रसारण हुआ। लेखक एवं साहित्यकार राधेश्याम वर्ष 2000 में शिक्षा विभाग में हिंदी अध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। वर्ष 2007-08 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से प्राथमिक से माध्यमिक के शिक्षकों के लिए साक्षरता एवं सामाजिक एकता' विषय को लेकर राष्ट्रीय स्तर की निबंध प्रतियोगिता करवाई गई, जिसमे उनके लिखे गए निबंध को सांत्वना पुरस्कार मिला। वहीं शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने पर हरियाणा शिक्षा विभाग में खंड शिक्षा अधिकारी एवं जिला शिक्षा अधिकारी की ओर से प्रशस्ति-पत्र के अलावा उन्हें वर्ष 2019-2020 के सत्र में हरियाणा शिक्षा विभाग पंचकूला की ओर से राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने 'राज्य शिक्षक सम्मान' से सम्मानित किया गया। 
युवाओं को साहित्य पढ़ाना आवश्यक 
आधुनिक युग में साहित्य के सामने चुनौतियों को लेकर लेखक राधेश्याम भारतीय का कहना है कि साहित्य और समाज एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। साहित्य ही समाज की दशा और दिशा तय करता है। आज भी श्रेष्ठ साहित्य की बेहद मांग है और नाटक, एकांकी, फिल्मों में साहित्य की भूमिका बरकरार है। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आजकल साहित्य कम पढ़ा जा रहा है। इसका मुख्य कारण है कि वर्तमान में पाठक पुस्तकों की अपेक्षा मोबाइल से अधिकाधिक जुड़ते चले जा रहे हैं, जो चिंता का विषय है। नई युवा पीढ़ी को साहित्य और संस्कृति से जोड़ने के लिए विद्यालयों में शिक्षकों को उन्हें अधिक से अधिक साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करने की आवश्यकता है। इसके लिए विद्यालयों में कहानी, कविता, निबंध आदि विषयों पर प्रतियोगिताएं करवाकर उन्हें प्रोत्साहित किया जा सकता है। वहीं साहित्यकारों को भी अच्छा और बेहतर लेखन पर ज्यादा फोकस करना चाहिए, ताकि समाज को नई दिशा दी जा सके। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्यकार राधेश्याम भारतीय की प्रकाशित पुस्तकों में लघुकथा संग्रह ‘अभी बुरा समय नहीं आया है', 'कीचड़ में कमल' और 'खिड़की का दुःख' के अलावा बालगीत संग्रह ‘नील गगन में उड़ते पंछी’, बाल कहानी संग्रह ‘समरीन का स्कूल’ के साथ सम्पादित कृति के रुप में 'हरियाणा से लघुकथाएं' (विशेष सहयोग) शामिल हैं। उनकी लघुकथाएं पंजाबी व मराठी में भी अनुवादित हो चुकी हैं। उनकी रचनाएं और आलेख देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
राज्य शिक्षक सम्मान' से सम्मानित शिक्षाविद् एवं साहित्यकार राधेश्याम भारतीय के बाल कहानी संग्रह ‘समरीन का स्कूल’ को जहां हरियाणा साहित्य अकादमी ने ‘श्रेष्ठ कृति सम्मान’ से नवाजा है, वहीं साहित्य सभा कैथल से 'स्वदेश दीपक स्मृति पुस्तक पुरस्कार', वीएचसीए फाउंडेशन घरौंडा से 'हिंदी रत्न' सम्मान, वहीं लघुकथा कथादेश, कथाबिम्ब, नारी अभिव्यक्ति मंच की ओर से हुई प्रतियोगिताओं में उनकी लघुकथाएं पुरस्कृत हुई। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की राष्ट्रीय निबंध प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार एवं साहित्य समर्था जयपुर कहानी 'फसल' को तीसरा स्थान भी मिला। इसके अलावा हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच सिरसा, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी शिलॉग, लघुकथा शोध केन्द्र भोपाल समेत विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं के मंच से उन्हें अनेक सम्मान व पुरस्कार मिल चुके हैं। 
04Nov-2024

सोमवार, 28 अक्तूबर 2024

चौपाल: सपेरा बीन की परंपरा को जीवंत रखने में जुटे हरपाल नाथ

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कला के प्रदर्शन हासिल की लोकप्रियता 
         व्यक्तिगत परिचय 
नाम: हरपाल नाथ 
जन्मतिथि: 30 नवंबर 1975 
जन्म स्थान: गांव वजीरपुर टिटाना, जिला पानीपत
शिक्षा: हाई स्कूल 
संप्रत्ति: लोक कलाकार, बीन वादक, 
संपर्क: गांव वजीरपुर टिटाना, जिला पानीपत (हरियाणा), मोबा. 9466095998 
By--ओ.पी. पाल 
रियाणा के लोक कलाकार भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल के संगीत वाद्यों के रुप में विलुप्त होती बीन, तुम्बा, ढोलक, ढेरु गायन, बाजीगर जैसी कला को जीवंत करने में जुटे हैं। ऐसे ही बीन वादक कलाकार हरपाल, नाथ संप्रदाय की धरोहर बीन जोगी कला को संजोने के मकसद से विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक और अन्य कार्यक्रमों में बीन वादन की कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी कला से लोकप्रिय हासिल करने वाले बीन वादक कलाकार हरपाल नाथ ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में ऐसी कलाओं को पुनजीर्वित करने के समाज से अपनी संस्कृति से जुड़े रहने का संदेश दिया है। 
रियाणवी लोक कला एवं संस्कृति में लुप्त होती सपेरा बीन जैसी विद्या को जीवंत करने में जुटे कलाकार हरपाल नाथ का जन्म 30 नवंबर 1975 को पानीपत जिले के गांव वजीरपुर टिटाना में प्रेमनाथ और श्रीमती नंदी नाथ के घर में हुआ। नाथ संप्रदाय का पुस्तैनी रोजगार बीन बजाकर सांप का खेल दिखाना रहा है। हरपाल नाथ को पूर्वजों से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही बीन जैसे संगीत वाद्य की धरोहर को संजोने में लगे है यानी बीन जैसी लोक कला उन्हें विरासत में मिली है। उनके एक भाई मुकेश नाथ कला एवं संस्कृतिक विभाग में बतौर बीन वादक के पद पर कार्यरत रहे हैं। उनकी माता श्रीमती नंदी नाथ गांव की दो बार सरपंच रही हैं तो दसवीं तक शिक्षा ग्रहण कर चुके खुद हरपाल नाथ भी पंचायत सदस्य रहे। माता के अस्वस्थ्य होने पर सर्वसम्मिति से हरपाल भी सरपंच का कार्यभार संभाल चुके हैं। बकौल हरपाल नाथ, लोक कला में संगीत वाद्यों के रुप में बीन, तुम्बा, ढोलक, ढेरु गायन गाथा, बाजीगर कला और कच्ची घोड़ी, खंजरी बजा कर जोगी नाथ बीन सपेरा जैसी परम्परा को बढ़ाने के लिए हरियाणा प्रदेश में बहुत कम ही कलाकार हैं। जहां तक बीन जैसे वाद्य यंत्र बजाकर सांप का खेल दिखाकर प्राचीन काल से ही अपने परिवार का पालन पोषण करते आ रहे नाथ संप्रदाय के लोग जोगी नाथ सपेरा जाति से संबन्ध रखते हैं। इनके गुरु कानीफानाथ एक बड़ी शक्ति के रुप में माने जाते हैं जिन्होंने जंगलों में सांप पकड़ने के लिए बीन जैसे संगीत वाद यंत्र की उत्पत्ति की। बीन वादक कलाकार हरपाल नाथ का कहना है कि इस आधुनिक युग में ऐसी पारंपरिक कलाओं को विलुप्त होने से कुछ हद तक रोकने के लिए यदि भारत सरकार और संस्कृतिमंत्रालय या दूसरी सरकारीसंस्थाएं सचमुच ऐसे कलाकारों का सरंक्षण चाहती हैं, तो मनोरंजन के लिए विदेश जाने वाले हर ग्रुप को कम से कम एक ऐसे कलाकार को ले जाना आवश्यक है, पारंपरिक कला से जुड़ा हो। यदि ऐसा हो सके तो हम अपनी विलुप्त विरासतों को संरक्षित किया जा सकता है। हरपाल नाथ ने बताया कि सरकार द्वारा कानून बनाकर बीन बजाकर सांप का खेल दिखाने पर प्रतिबंध लगाने से जोगी नाथ सपेरा वर्ग के सामने जीवन यापन को लेकर संकट पैदा हो गया, जिसकी वजह से सपेरा समाज भूख के कगार पर आ गया। इसके लिए सपेरा समाज सोशल वेलफेयर सोसायटी ने हरियाणा सरकार के मुख्यमंत्री को पुस्तैनी रोजगार से इस प्रतिबंध को हटाने के लिए मांग भी की है। इसके लिए सपेरा समाज धरना प्रदर्शन भी कर चुका है। हालांकि बीन बजाकर सांप का खेल दिखाने पर लगे प्रतिबंध के बाद बीन वादक कलाकार पारंपरिक वेश-भूषा में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर आयोजित होने वाले समारोह, त्यौहारों और सांस्कृतिक आयोजनों में बीन बजाने की कला का प्रदर्शन करते हुए इस विद्या को जीवंत करने में जुटे हैं। हालांकि हरियाणा सरकार भी विलुप्त होती सपेरा बीन जोगी लोक कला को बचाए रखने संस्कृति विभाग के माध्यम से प्रोत्साहित कर रही है। 
यहां से मिली मंजिल 
बीन वादक कलाकार हरपाल नाथ ने साल 1992 में लोक कला के क्षेत्र में प्रवेश किया। बीन वादक की विलुप्त होती कला को जीवंत करने के लिए उन्होंने एक लोक कलाकार के रुप में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता हासिल की। इसके लिए उन्होंने अपने नेतृत्व में सपेरा बीन जोगी ग्रुप तैयार किया, जिसमें सुल्तान नाथ, सुरेश नाथ, अनिल, रवि, प्रवीण और संदीप जैसे कई बीन विद्या के कलाकार शामिल है। बीन कलाकारों के इस ग्रुप ने आईसीसीआर के माध्यम से 1998 में इटली, दुबई, बांग्लादेश आदि कई देशों में भी बीन की धुन से अपनी कला का प्रदर्शन किया है। अंतर्राष्ट्रीय महोत्सवों के दौरान हरपाल नाथ बीन पार्टी ने जहां बीन की कला का प्रदर्शन करके स्वर्ण जयंती समारोह में पीएम मोदी, और कुरुक्षेत्र में गीता जयंती महोत्सव के दौरान राष्ट्रपति और अंतर्राष्ट्रीय सूरजकुंड मेले में विदेशी पर्यटकों को भी मंत्रमुग्ध किया है। इसके अलावा हरपाल नाथ के दल ने देश के विभिन्न राज्यों में आयोजित सांस्कृतिक व अन्य समारोह में बीन जोगी कला का प्रदर्शन किया। ऐसे समारोह में उन्हें व उनके कलाकारों को अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं। 
ऐसे हुई बीन की उत्पत्ति 
लोक संगीत के वाद्य यंत्र बीन को आमतौर पर सूखी लौकी और बाँस की नलियों से बनाया जाता है। दक्षिण भारत में इसे 'महुदी' के नाम से जाना जाता है और इसका इस्तेमाल मुख्य रूप से सपेरे करते हैं। नाथ संप्रदाय के गुरु कानीफानाथ एक बड़ी शक्ति के रुप में माने गये हैं जिन्होंने जंगलों में सांप पकड़ने के लिए बीन जैसे संगीत वाद यंत्र की उत्पत्ति की। उन्होंने जहां मधुमक्खी के छत्ते से मोम पैदा करने के साथ जंगल बांस के वृक्ष से पेरी और नरसल के पत्ते बनाए। ऐसे ही घासफूंस का बाजा कहे जाने वाली बीन तैयार की। अभी तक पूरे भारत में बीन बनाने की कोई फैक्ट्री या कंपनी नहीं है। इसलिए बीन तैयार करने का काम भी जोगीनाथ सपेरा वर्ग का ही है। इसी बीन की धुन पर नाथ संप्रदाय के पूर्वज जंगलों से सांप पकड़ने के बाद गांव गांव तथा नगर बस्तियों में घूमकर बीन बजाकर सांप का खेल दिखाकर अपनी रोजी रोटी कमाते आ रहे हैं। 
28Oct-2024

सोमवार, 7 अक्तूबर 2024

साक्षात्कार: समाज को नई दिशा देने में साहित्य का अहम योगदान: रामबीर सिंह

सादा जीवन-उच्च विचार को मानवता की अवधारणा की मिसाल 
 व्यक्तिगत परिचय 
नाम: रामबीर सिंह ‘राम’ 
जन्मतिथि: 01 जनवरी 1972 
जन्म स्थान: नांगल ठाकरान (दिल्ली) 
शिक्षा: एम.ए., बी एड. 
संप्रत्ति: प्राचार्य, लेखक, कवि 
संपर्क: ब्रह्मशक्ति सी. से. स्कूल थाना कलां सोनीपत । मोबा. 9315650750 
BY-ओ.पी. पाल 
साहित्य एवं लोक साहित्य के क्षेत्र में हरियाणा के लेखक, साहित्यकार, लोक कलाकार साहित्य एवं लोक संस्कृति को संजोने में जुटे हैं। ऐसी शिक्षा, साहित्य एवं लोक कला के क्षेत्र में लेखक रामबीर सिंह राम सादा जीवन-उच्च विचार को मानवता की अवधारणा की मिसाल पेश करते हुए सामाजिक और शैक्षणिक रुप से समाज को नई ऊर्जा का संचार करने में जुटे हैं। खासतौर से युवा पीढ़ी में शिक्षा की अलख जगाने के साथ उन्हें अपनी संस्कृति के प्रति जागरुक तो कर ही रहे हैँ। वहीं वह सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर अपनी लेखनी के जरिए साहित्य एवं लोक संस्कृति का संवर्धन करके पूर्वजों की साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत को भी आगे बढ़ा रहे हैं। हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान शिक्षक, लेखक एवं कवि रामबीर सिंह ‘राम’ ने अपने साहित्यिक एवं लोक सांस्कृतिक सफर को लेकर कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिनके बिना सामाजिक जीवन का संस्कारिक होना संभव नहीं है। 
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रियाणा के साहित्यकार एवं लेखक रामबीर सिंह ‘राम’ का जन्म 01 जनवरी 1972 को गांव नांगल ठाकरान (दिल्ली) में शिवचरण एवं श्रीमती कपूरी देवी के घर में हुआ। उनके दादा निहालचंद 'निहाल' हरियाणा के उस जमाने में जाने-माने लोकनाट्यकार (सांगी) थे, जो हरियाणा ही नहीं उत्तर भारत में होने वाले सांगों में हिस्सा लेते थे। खासबात ये थी कि उनके सांग मंचन का उद्देश्य केवल धनोपार्जन नहीं था, बल्कि सांगों में मिलने वाले चंदे के धन से उन्होंने सामाजिक सेवा को सर्वोपरि रखते हु अनेक कुएं, जोहड़, गौशाला, पाठशाला, धर्मशाला आदि के निर्माण में सहयोग दिया है। मसलन वे एक क्रांतिकारी लोककवि के नाम से लोकप्रिय रहे और सांगों के माध्यम से अपने राष्ट्र प्रेम से संबंधित रचनाओं द्वारा लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित होने का आह्वान तक किया, जिनकी अमर रचना 'भाइयों हो ज्याओ सब त्यार, देश मांगता कुर्बानी' ने स्वतंत्रता संग्राम में एक मशाल का काम किया। सूर्यकवि पंडित लखमीचंद जैसे युगकवि इनसे प्रेरणा पाते थे। इसलिए उनकी ख्याति केवल भारत में ही नहीं अपितु विदेशों तक व्याप्त थी, जिसका उल्लेख हिंदू विश्वकोष कोलंबिया (यूएसए) में मिलता है। ऐसी संस्कारों का उनके पिताजी पर भी गहरा प्रभाव पड़ा, जो उस समय के एक प्रसिद्ध लोककवि एवं भजनोपदेश के रुप में लोकप्रिय हुए। ब्रह्मशक्ति सी. से. स्कूल थाना कलां सोनीपत में प्राचार्य के पद पर कार्यरत रामबीर सिंह ने बताया कि यह सौभाग्य है कि उनका जन्म साहित्य साधना में लीन एक प्रसिद्ध कविकुल में हुआ। दादा व पिता के के पदचिह्नों पर उन्होंने भी विरासत में मिले संस्कारों के चलते बचपन से ही सांग देखना, रागनी सुनना और लोकगीतों का आनंद लेना उनकी अभिरुचि रही है। उसी का नतीजा है कि वह साहित्य सृजन करते हुए गायन यानी कवि में भी विशेष अभिरुच रखते हैं। वह अपनी लिखित कविताओं के अलावा दादा व पिता समेत हरियाणा के लोक कवियों की कविताएं मंच पर सुनते भी हैं और सुनाते भी हैं। एक शिक्षक के रुप में बच्चों के भविष्य निर्माण में उनकी रुचि होना स्वाभाविक है, यही कारण है कि बच्चों में साहित्यिक संस्कारों का संचार करने के मकसद से उन्होंने उनको प्रेरित करने वाली 'प्रकाश-पुंज' नामक पुस्तक के रूप में लिखी। साहित्यिक संस्कार डालने का प्रयास करता उसके बाद वह हरियाणा के वरिष्ठ लोक साहित्यकार डॉ. पूर्णचंद शर्मा के संपर्क में आए, जिन्होंने उनके दादाजी का उल्लेख अपनी लख्मीचंद ग्रंथावली में किया। उन्होंने उनकी लोकसाहित्य साधना एवं उनके ज्ञान कौशल से उत्प्रेरित होकर अपने दादा के सांगों का संकलन करके उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर एक पुस्तक लिखी, जिसे श्रेष्ठ कृति के रुप में पुरस्कृत करते हुए हरियाणा साहित्य अकादमी ने 31,000 रुपये का पुरस्कार प्रदान किया। इससे बढ़े आत्मविश्वास की बदौलते उन्होंने हरियाणा के कई लोककवियों पर पुस्तक लिखी हैं। उनके साहित्यिक रचनाओं का फोकस विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण, समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना और लोक कल्याण तथा युवा पीढ़ियों को अपनी संस्कृति से जोड़ने पर रहा है, ताकि सकारात्मक रुप से सामाजिक चेतना कायम रहे। दूरदर्शन के नेशनल चैनल पर स्कूली बच्चों द्वारा मेरी बात कार्यक्रम कई बार नेतृत्व करने के अलावा आकाशवाणी और दूरदर्शन पर विविध विषयों पर अनेक कार्यक्रमों में विशेष प्रवक्ता के रुप में उन्हें भागीदारी करने का भी मौका मिला है। उनके विभिन्न विषयों पर लेख एवं कविताएं कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती आ रही हैं। 
बच्चों को संस्कारिक बनाना आवश्य 
साहित्यकार एवं शिक्षाविद् रामबीर सिंह ने बच्चों में राष्ट्र प्रेम और संस्कारों के प्रति प्रेरित करने की दिशा में अपने नेतृत्व में तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविद तथा प्रणव मुखर्जी के अलावा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से स्कूली बच्चों की प्रेरक भेंट भी कराई है। इसके अलावा देशभर के शिक्षाविद्, समाजसेवी, चिकित्सक, राजनीतिज्ञ, स्वतंत्रता सेनानी, राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी जैसी विभूतियों ने स्कूल का भ्रमण कर बच्चों से भेंट की है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्यकार रामबीर सिंह की प्रकाशित आधा दर्जन पुस्तकों में लोककला-सिरमौर: निहालचंद-शिवचरण हरियाणा साहित्य अकादमी से पुरस्कृत रही। उन्होंने लोकसंगीत-पुरोधा: निहालचंद ‘निहाल’, पंडित सरुपचंद: व्यक्तित्व एवं कृतित्व तथा सुखबीर सिंह: एक परिशोलन के अलावा प्रकाश-पुंज और प्रेरक प्रसंग जैसी कृतियों का लेखन कर हरियाणवी संस्कृति को समर्पित की है। 
पुरस्कार व सम्मान 
साहित्य, लोक संस्कृति एवं शिक्षा के संवर्धन करने जैसी साधना के लेखक, कवि एवं शिक्षक रामबीर सिंह को अभ्युदय अंतर्राष्ट्रीय सर्वपल्ली डा. राधाकृष्ण सम्मान तथा राष्ट्रीय शिक्षक गौरव सम्मान से नवाजा जा चुका है। उन्हें सदाचार भूषण सम्मान, अवंतिका शिक्षा सम्मान, उद्वव मानव सेवा सम्मान के अलावा शिक्षक दिवस पर पीएम मोदी का शुभकामना संदेश भी मिल चुका है। वहीं शैक्षिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंचों से भी उन्हें अनेक पुरस्कार के साथ सम्मानित किया जा चुका है। 
साहित्य का महत्व कम नहीं 
आज के आधुनिक युग में साहित्य के सामने चुनौती को लेकर शिक्षाविद् एवं साहित्यकार रामबीर सिंह का कहना है कि साहित्य मनुष्य की सर्वोत्तम कृति है और मानव की असली भावनाएं और उनका निर्माण साहित्य की दृष्टि से ही होता है। समाज को नई ऊर्जा देने में साहित्य जगत का अहम योगदान होता है। लेकिन आज के इंटरनेट व मोबाइल युग में लोगों में साहित्य के प्रति कम रुझान के कारण स्थिति कमजोर तो हुई, लेकिन साहित्य का महत्व कभी कम नहीं हुआ। साहित्य मनुष्य की सर्वोत्तम कृति है और मानव की असली भावनाएं और उनका निर्माण साहित्य की दृष्टि से ही होता है। खासतौर से युवा पीढ़ियों को अपनी संस्कृति के प्रति जिम्मेदार बनाने के लिए उन्हें साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करने की नितांत आवश्यकता है, क्यों कि युवाओं में साहित्य व संस्कृति के प्रति कम होती रुचि का प्रभाव समाज पर पड़ रहा है। इसलिए लेखकों, साहित्यकारों और लोक कलाकारों की ऐसी कला को पाठकों, श्रोताओं व दर्शकों के सामने ऐसी कला प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी कि समाज में कम होते पारस्परिक सद्भाव को सकारात्मक ऊर्जा मिल सके। 
07Oct-2024

सोमवार, 30 सितंबर 2024

साक्षात्कार: विश्वभर में बसे भारतीयों को अपनी संस्कृति से जुड़ा रहना चाहिए: इंदु नांदल

साहित्य जगत में भारत के लिए विश्व रिकार्ड बनकार बनाई अंतर्राष्ट्रीय पहचान 
       व्यक्तिगत परिचय
नाम: इन्दु नांदल 
जन्मतिथि: 15 अगस्त 1973 
जन्म स्थान: रोहतक (हरियाणा) 
शिक्षा: स्नातकोत्तर(सामाजिक विज्ञान), स्पोर्ट्रस डिप्लोमा 
संप्रत्ति: शिक्षिका, लेखक, कवियत्रि 
संपर्क: जकार्ता(इंडोनेशिया) मोबा.- +6281519431695 
By-ओ.पी. पाल 
रियाणा के साहित्यकारों और लेखकों के साथ लोक कलाकारों ने अपनी अपनी विधाओं में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी पहचान बनाई है। ऐसी ही हरियाणा की बेटी इंदु नांदल ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी लेखनी से काव्य जगत में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी पहचान ही नहीं बनाई, बल्कि वे अपनी लेखनी से साहित्य के साथ हरियाणवी संस्कृति को नया आयाम देते हुए पिछले तीन दशक से ज्यादा समय से विदेश में रहते हुए भी हिंदुस्तान की माटी से ऐसे जुड़ी हुई है, कि उन्होंने रामायण, देशभक्ति, भारतीय त्यौहारों और चन्द्रयान-3 पर कविता संग्रह लिखकर विश्व रिकार्ड बनाकर इतिहास रच ड़ाला है। विदेश में रहते हुए भी अपनी मातृभूमि और संस्कृति जुड़ी अंतर्राष्ट्रीय कवयित्री इंदु नांदल ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में यहां तक कहा कि विश्वभर में बसे भारतीयों को अपनी संस्कृति की मूल जड़ो से जुड़ा रहना चाहिए, क्योंकि हिंदी भाषा और संस्कृति ही भारत की पहचान है। 
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दुनियाभर में भारतीय संस्कृति की अलख जगाने वाली साहित्यकार एवं कवियत्रि इंदु नांदल का जन्म 15 अगस्त 1973 को रोहतक में उम्मेद सिंह व विद्या देवी के घर में हुआ। उनके परिवार में कोई भी साहित्यिक माहौल नहीं था। उन्हें आस पास की चीजे प्रेरित करती थी, तो उन्हें कविता व दोहे के रुप में लिखने में अभिरुचि होने लगी। यही कारण रहा कि उन्होंने हिंदी व अंग्रेजी भाषा में सामाजिक शास्त्र में शिक्षा ग्रहण की। यहीं से उनका रुझान साहित्य के क्षेत्र में बचपन यानी स्कूली दौर से ही रहा है, जहां शिक्षकों ने भी उसे प्रोत्साहित किया। इंदु नांदल ने महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक से स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण की। इसके अलावा उन्होंने मोतीलाल नेहरु स्कूल ऑफ राई(सोनीपत) से स्पोर्ट्स कोर्स किया। उन्होंने इंटरमीडिए तक की शिक्षा चंडीगढ़ में हासिल की। जब वह यहां दसवीं कक्षा में थी तो उनका बास्केटबाल के लिए साईं में चयन हो गया था। इंदु बास्केटबाल की नेशनल प्लेयर रह चुकी है। वहीं वे एक चित्रकार भी हैं। इंदु नांदल हिंदी व अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ कई विदेशी भाषाओं का ज्ञान भी ज्ञान है, जो वर्तमान में जकार्ता इंडोनेशिया में रहती है। बैकौल इंदु नांदल उन्होंने साल 1996 में भारत छोड़ दिया था और वह साल 2008 से 2020 तक इंडोनेशिया के रामा इंटरनेशनल स्कूल पूर्बा वार्ता में एक शिक्षिका के रुप में कार्य कर चुकी है, जहां उन्होंने इस दौरान पांच साल तक बच्चों को हिंदी पढ़ाई है। उन्होंने कहा कि इंडोनेशिया में हिंदी दिवस मनाया जाता है, जहां उन्हें कई बार काव्य पाठ करने का मौका मिला है। इसके बाद वह कुछ दिन जर्मनी में रही, जहां उन्होंने कोरोना काल में रामायण पर कविता लिखकर पहला विश्व रिकार्ड भी बनाया। उसके बाद फिर वे इंडोनेशिया आ गई, जहां उनके पति संजीव नांदल टेक्टाइल इंजीनियर हैं। जबकि उनका बेटा साहिल कनाडा बुक डिजाइनर है, जिनका हर कदम पर उनके काव्य लेखन में प्रोत्साहन और सहयोग रहता है। इंदु नांदल विदेश में रहते हुए भी उन्हें भारत और भारतीय संस्कृति पर लिखना वह अपनी जिम्मेदारी मानती हैं। उन्होंने बताया कि भारत के लिए वह ऐसे ही और विश्व रिकॉर्ड बनाकर साहित्य व संस्कृति का संवर्धन करती रहेंगी। देश भक्ति की कविताओं पर विश्व रिकॉर्ड बनाकर उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे तिरंगा सिर्फ़ लाल क़िले पर नहीं, बल्कि पूरे विश्व में फहरा दिया हो। इंदु नांदल पांच साल तक आल इंडिया रेडियो पर युवा संसार प्रोग्राम में स्वरचित कविताओं का पाठ भी कर चुकी हैं। इंडोनेशिया भारतीय दूतावास में आठ वर्ष स्कूल के बच्चों के साथ स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस पर देशभक्ति गीतों को भी प्रस्तुत करती रही हैं। उन्होंने जर्मनी, इंडोनेशिया, कनाडा और भारत में रहकर समाज, संस्कृति और प्रकृति के विभिन्न विषयों पर आधारित कविताओं की रचना की है। उनकी रचनाएं देश-विदेश की राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है। पचास से अधिक लेख तो उनके इंडोनेशिया के अखबारों में प्रकाशित हो चुके हैं। वह महिला काव्य मंच जर्मनी इकाई की अध्यक्ष, जर्मनी अशाफनवरंग इकाई केमहिला काव्य मंच की अध्यक्ष भी हैं। 
प्रकाशित पुस्तकें 
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवियत्रि इंदु नांदल ने अपनी कविताओं का काव्य संग्रह ‘काव्य सागर’ लिखा है। इसके अलावा उन्होंने ‘वंदे मातरम्’ शीर्षक से ‘रामायण’ पर 665 पंक्तियों, देशभक्ति पर 72 रचनाकारों की 154 कविताओं, भारतीय त्यौहारों पर 132 कविताओं तथा चंद्रयान-3 पर 116 कविताओं का काव्य संग्रह लिखे हैं, जो विश्व रिकार्ड में दर्ज हुए हैं। 
सम्मान व पुरस्कार 
इंदु के विश्व रिकार्ड बने चार काव्य संग्रह के लिए गोल्डन उन्हें विश्व रिकार्ड में दर्ज चार काव्य संग्रहों के लिए उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड लंदन से सर्टिफिकेट ऑफ कमिटमेंट से सम्मानित किया गया। हिंदी दिवस पर उन्हें जर्मनी दूतावास ने कांस्युलेंट ऑफ जनरल मुनिक जर्मनी दूतावास ने पुरस्कार देकर सम्मानित किया। इसके अलावा उन्हें जर्मनी में भारतीय दूतावास् ने निबंध के लिए सम्मानित किया है। इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में इंटरनेशन इंडियन नेशनल डांस कंपीटिशन में उन्हें द्वितीय पुरस्कार देकर सम्मानित किया जा चुका है। 
युवाओं को प्रेरित करना आवश्यक 
कवियत्रि इंदु नांदल का कहना है कि समाज, संस्कृति और शिक्षा का समावेश से परिपूर्ण साहित्य में सकारात्मक विचारधारा भरी होती है। लेकिन यह चिंता का विषय है कि आज के आधुनिक युग में युवा पीढ़ी साहित्य और संस्कृति से दूर भाग रही है। ऐसे में लेखकों और साहित्यकारों की नैतिक जिम्मेदारी है कि वे देशभक्ति, संस्कृति, आध्यात्मिक, प्रकृति और भारतीय सभ्यता जैसे विषयों पर ऐसी सकारात्मक रचनाओं का लेखन करें, ताकि युवा पीढ़ी को देशभक्ति और अपनी संस्कृति के प्रति प्रेरित किया जा सके। 
23Sep-2024

सोमवार, 16 सितंबर 2024

चौपाल: संस्कृति के संवर्धन में समाज को समर्पित कला अहम: अशोक मेहता

थिएटर से बॉलीवुड तक अभिनय के क्षेत्र में बनाई बड़ी पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: अशोक मेहता ऊर्फ बीर सिंह 
जन्मतिथि: 30 नवंबर 1975 
जन्म स्थान: मूल गांव खानक, जिला भिवानी 
शिक्षा: इंटरमिडिएट संप्रत्ति: अभिनय, रंगकर्मी, लेखक संपर्क: गांधीनगर कृष्णा कॉलोनी भिवानी(हरियाणा), मोबा.9812342041 
BY--ओ.पी. पाल 
रियाणवी संस्कृति के संवर्धन की दिशा में सूबे के लेखकों, कलाकारों, गायकों एवं साहित्यकारों ने अपनी कलाओं के प्रदर्शन से समाज को नई दिशा देने का प्रयास किया। यही नहीं ऐसी शख्सियतों ने हरियाणवी संस्कृती को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान दी है। हरियाणवी फिल्मों के साथ अभिनय के क्षेत्र में कलाकारों ने वॉलीवुड तक अपनी कला का हुनर दिखाते हुए अपनी संस्कृति को सर्वोपरि रखने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे ही कलाकारों में अशोक मेहता और बीर सिंह ने हरियाणवी, भोजपुरी और हिंदी फिल्मों में अपने लेखन और अभिनय के हुनर से लोकप्रियता हासिल की है। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में वॉलीवुड अभिनेता अशोक मेहता उर्फ बीर सिंह ने अपने थिएटर से लेकर वॉलीवुड़ तक के सफर को लेकर कहा कि समाज को समर्पित कोई भी कला संस्कृति और संस्कारों के संवर्धन में अहम भूमिका निभाती है। 
रियाणा के लोक कलाकार अशोक मेहता का जन्म 30 नवंबर 1975 को भिवानी जिले के गांव खानक में मध्यमवर्गीय परिवार के छिनकू राम मेहता व शकुंतला देवी के घर में हुआ। परिवार का गांव में ही खेती-बाड़ी और स्टोन क्रेशर माइंस गांव खानक में काम है। इसमें उनके पिता व उसके भाई अभी भी काम करते हैं, लेकिन अशोक ने स्टोन क्रेशर का काम छोड़ कलाकार को अपना करियर बना रखा है। उन्होंने बताया कि 30 वर्ष के खानक माइंस के काम के अनुभव से फिल्मों में बहुत फायदा हुआ, क्योंकि वह साइकिल से लेकर ट्रक तक सभी वाहन चलाने लगे थे। वहीं खनन में काम करने वाले विभिन्न राज्यों के लोगों के कारण राजस्थानी, भोजपुरी, यूपी, बिहार की भाषा का भी ज्ञान हो गया। अशोक मेहता जब कक्षा चार व पांच में थे तो उन्हें मंच पर नृत्य और अभिनय करने के अलावा कॉमिक्स पढ़ने शौंक था। जबकि उनके परिवार में किसी प्रकार का साहित्यिक या सांस्कृतिक माहौल नहीं रहा है। इसके बावजूद उन्हें लोक कला और सांस्कृतिक क्षेत्र में अभिरुचि रही है। फिल्म इंडस्ट्री में बीर सिंह के नाम से पहचाने जा रहे अशोक मेहता ने बताया कि साल 2017 में उनके एक दोस्त ने उसे किस्तामें पर एक होंडा एक्टिवा दिलवाई, तो उसकी सर्विस के लिए फोन आने लगे। इसलिए वह गूगल पर सर्च करता तो एक्टिंग सर्विस मुंबई ज्वाइन साइट खुल जाती और उस फिल्म की वीडियो आने लगती है। इसके बाद वह दिल्ली में थिएटर करने लगे। वह दिल्ली थिएटर करने गये, वहां की बहुत मोटी फीस होने से उनके सामने बड़ी दिक्कत थी। इसके बाद वह मुंबई चले गये और नालासोपरा में उन्होंने स्क्रिप्ट लिखना सीखा और आठ माह बाद महसूस किया कि लेखन का काम आसान नहीं है और इससे इतनी कमाई भी नहीं होगी। फिर से एक दिन वह गांव में बैठे थे तो दिल्ली मून लाइट फिल्म और थिएटर फाउंडर महेश भट्ट के ऑफिस से फोन आया कि उनका चयन हो गया है। इस पर वह दिल्ली की कैलाश कालोनी स्थित अरुण जेटली के घर के सामने थिएटर में मिला और डबल बैच में सुबह और शाम थिएटर करना शुरू कर दिया। यहां उन्होंने अभिनय की बारीकियों को सीखा और इमोशन,फिजिकल कैरक्टराइजेशन, एटीट्यूड, बॉडी लैंग्वेज, सिचुएशन, सराउंडिंग जैसी चीजों को समझा। उन्होंने पहली बार साल 2019 में 60 के पार जीवन के आधार पर बॉलीवुड अभिनेता यशपाल शर्मा कहने से लेखन का काम किया, जिसमें उन्हें मोरनी में फिल्म निर्देशक उषा श र्मा ने तृतीय अवार्ड दिया। मोरनी में उषा शर्मा द्वारा और इस वर्ष बॉलीवुड की फिल्म हरियाणा जो सिनेमा की फिल्म थी और जोगी कास्टिंग कंपनी के कास्टिंग डायरेक्टर हरिओम कौशिक ने पहली बार मौका दिया और 32 दिन तक शूटिंग की। मुंबई में संघर्ष करते हुए उन्होंने बड़ी परेशानी झेली और परिवार वालों के खर्च पर ही जीवन काटा, क्योंकि अभी आमदनी कुछ नहीं थी। इस पर परिजनों की बहुत सुनने को मिला, लेकिन मुंबई में धक्के खाकर अभिनय के फॉस् पर कुछ जरुरी चीजें सीखने में सफल रहे। उन्होंने बताया कि कला या अभिनय के क्षेत्र में पेशवर तरीके से अनुशासन को सर्वोपरि रखा है। वहीं उन्होंने स्वास्थ्य, अनुशासन, फॉक्स जैसे संस्कारों का पालन किया है। एक कलाकार के लिए अपने व्यवहार और आचार विचार का ध्यान भी रखना आवश्यक है, तभी उसे आगे की मंजिल मिल सकती है। 
यहां से मिली मंजिल 
लोक कलाकार व अभिनेता अशोक मेहता ने पहली सिनेमा के लिए बसवाना फिल्मस मुंबई द्वारा बनाई गई ‘हरियाणा’ फिल्म भूमिका निभाई। महेन्द्रगढ़ के गांव पाली जाट के कास्टिंग डायरेक्टर हरि ओम कौशिक ने उन्हें फिल्मों में पहली बार मौका दिया। उन्होंने नेशनल अवार्ड से सम्मानित फिल्म फौजा में खलनायक का किरदार निभाया। हरियाणवी फिल्म मैं भी सरपंच और कुर्बानी एक प्रेम कथा में अभिनय किया। उनकी लघु फिल्म राइट स्टेप और व्हेयर इज गोड में भी काम किया। इसके अलावा अशोक मेहता ने हरियाणवी वेबसीरीज की फिल्म ‘ग्रुप डी’, पुनर्जनम, जानलेवा इश्क जैसी फिल्मों में अभिनय करके अपनी पहचान बनाई। संगीत के क्षेत्र में उन्होंने सपना चौधरी के संगीत यूट्यूब पर सपना चौधरी के ससुर का किरदार निभाया है। वहीं वे टीवी में भोजपुरी सीरियल डॉक्टर का किरदार निभा रहे हैं। इसके अलावा उन्होंने विज्ञापनों में भी विभिन्न उत्पादों के लिए अभिनय किया है। लोक कला, संगीत और अभिनय के क्षेत्र में अपनी कला का प्रदर्शन करने वाले अशोक मेहता को को अभिनय,हरियाणा नाटय कला मंच, फिल्म राइटिंग लेखन अवार्ड से भी नवाजा जा चुका है। वहीं हरियाणवी फिल्म चंद्रावल की नायिका एवं निर्देशक उषा शर्मा उन्हें कहानी 60 के पार जीवन का आधार पर लेखन सम्मान में आईफा अवार्ड से नवाज चुकी हैं। 
अध्ययन के बिना सब अधूरा 
इस आधुनिक युग में साहित्य और लेखन पर युवा पीढ़ी बहुत ज्यादा ध्यान दे रही है, लेकिन जल्द से जल्द लोकप्रियता हासिल करके पैसा कमाना चाहते हैं। साहित्य या एक्टिंग जैसी कलाओं में बिना सीखे कोई आगे नहीं बढ़ सकता। इसके लिए किताबों को पढ़ने और लिखने के लिए अध्ययन करना आवश्यक है यानी बिना किसी साधना के सब कुछ अधूरा है। वहीं आज अभिनय के क्षेत्र में कलाकार नशे की गिरफ्त में फंसते जा रहे हैं, जिसका समाज पर बुरा असर पड़ता है। यह बात भी सही है कि आज संगीत और कला में गिरावट आ रही है और द्विअर्थी गीत, डायलॉग और लेखन को जरिया बनाकर शोहरत हासिल नहीं की जाती, बल्कि समाजिक पतन ज्यादा होता है। इसके लिए कलाकारो, लेखकों और साहित्यकारों को अच्छे लेखन और अच्छी कला को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है, ताकि युवा अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति जागरुक होकर समाज में फैली कुरितियों को दूर करने में अपना योगदान दे सके। 
16Sep-2024